शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

आम चुनाव, 2014: पाखंड के रास्ते पर राजनीति


कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है| देश की राजनीति भी इस वक़्त कुछ ऐसे ही दौर से गुज़र रही है| चुनाव आते ही पांच साल बाद एक बार फिर लोकलुभावन वायदों और नारों का दौर शुरू हो गया है| समय के साथ साथ हर चुनाव में सत्ता और विपक्ष के बीच फुटबॉल की तरह पाला बदलने वाले ये नारे जनता को इस बार कितना लुभा पायेंगे, ये तो चुनाव नतीजे ही बताएँगे, लेकिन इस बार बीजेपी के चुनावी नारे “अब की बार, मोदी सरकार” ने खुद को कांग्रेस से अलग बताने वाली इस प्रमुख विपक्षी पार्टी के चेहरे से एक बार फिर नकाब हटा दिया है| देश में नेहरू गाँधी परिवार की सत्ता को लेकर कांग्रेस को पानी पी पी कर कोसने वाली बीजेपी अब खुद एक व्यक्तिवादी मानसिकता के साथ चुनाव में है| कांग्रेस के पास तो वैसे भी सोनिया और राहुल-प्रियंका के अलावा और कोई चेहरा दांव पर लगाने के लिए नहीं है लेकिन बीजेपी के पास अपने मुद्दों और सिद्धांतों को त्याग कर मोदी के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की कौन सी मजबूरी है, इस सवाल का जवाब शायद उसके अतीत में ही छिपा है। 
 ज़ाहिर है कि वाजपेयी की उदारवादी छवि के सहारे सत्ता का स्वाद चख चुकी बीजेपी के लिए इस बार चुनाव में पार्टी के मुद्दों और सिद्धांतों को स्थापित करना नहीं बल्कि येन केन प्रकारेण सरकार बनाना अब पहली प्राथमिकता बन गया है| बीजेपी जहां एक ओर युवा मतदाताओं को विकास के नाम पर लुभाने की कोशिश कर अपनी राजनीतिक अस्पृश्यता को दूर करने की कोशिश कर रही है वहीं मोदी की घोर हिंदूवादी छवि का इस्तेमाल कर अपने परंपरागत वोटरों को साधे भी रखना चाहती है। यही वजह है कि अपने विरोधियों पर अल्पसंख्यक और जातीय तुष्टिकरण का आरोप लगाने वाली बीजेपी राम मंदिर जैसे मुद्दों को घोषणा पत्र में शामिल करने और मुजफ्फरनगर दंगों के कथित आरोपियों को टिकट देने से भी गुरेज नहीं करती। रही बात विकास की तो इसे चुनावी मुद्दा बनाने वाली बीजेपी को अगर देश में कहीं विकास नज़र आता भी है तो सिर्फ मोदी के गुजरात में| यहाँ तक कि मोदी की शख्सियत को आगे बढ़ाने के चक्कर में पार्टी न सिर्फ़ अपने दूसरे मुख्यमंत्रियों बल्कि पिछली वाजपेयी सरकार के विकास मॉडल को भी हाशिये पर डालने से नहीं चूकती| बीजेपी के पास इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं है कि भ्रष्टाचार को ख़त्म किये बिना विकास की धारा को अंतिम छोर तक किस तरह पहुँचाया जा सकेगा| भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस के कदम से कदम मिला कर चल रही बीजेपी कांग्रेस मुक्त भारत को ही भ्रष्टाचार मुक्त भारत का पर्याय बता रही है। लेकिन कांग्रेसनीत सरकार के घोटाले गिनाने वाली बीजेपी का खुद का दामन कितना पाक साफ़ है ये इस देश की सुधि जनता को बताने की ज़रूरत नहीं है| पार्टी कालेधन के मुद्दे पर बाबा रामदेव की मुहिम का गांधी परिवार के खिलाफ़ हथियार की तरह इस्तेमाल तो कर रही है लेकिन कर्नाटक से लेकर उत्तराखंड तक बीजेपी नेताओं पर लगे आरोप उसकी कथनी और करनी में फर्क बताने के लिये काफी हैं। उधर कांग्रेस का हर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक्की का नारा भी गरीबी हटाओ के पुराने नारे से ही प्रेरित नज़र आता है। महंगाई, भ्रष्टाचार और कुशासन के आरोपों से जूझ रही कांग्रेस अपने नारों के ज़रिये राहुल गांधी की अपरिपक्व नेता की छवि को भले ही कुछ हद तक कम कर सके लेकिन सरकार विरोधी रुझान और बढ़ती आर्थिक असमानता से त्रस्त मध्यम वर्ग को लुभा पाना पार्टी के लिये फिलहाल मुश्किल ही लगता है। बहरहाल इस बार आम चुनाव में भले ही देश की दो बड़ी पार्टियाँ अपने अपने राजनीतिक चश्मे से विकास को मुद्दा बना रही हैं तो भी उनके न चाहने के बावज़ूद भ्रष्टाचार ही सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन कर उभर रहा है।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि देश की जनता को ये समझाने की ज़िम्मेदारी किसकी है कि देश से भ्रष्टाचार को ख़त्म किये बिना विकास की बात तक करना बेमानी है? कम से कम कांग्रेस, बीजेपी और देश के अलग अलग राज्यों में बारी बारी से सत्ता का सुख भोग चुके उन क्षेत्रीय दलों से तो इसकी उम्मीद करना मुश्किल है जिनके बड़े बड़े नेताओं पर भ्रष्टाचार के बड़े बड़े आरोप लगे हैं लेकिन इसे लेकर उनमें आजतक किसी तरह का अपराधबोध देखने को नहीं मिला| बेशर्मी की हद तो ये है कि कोई चौरासी के क़त्लेआम तो कोई गोधरा दंगों के लिए माफ़ी की मांग करता है लेकिन देश में हुए बड़े बड़े घोटालों के लिए कोई जनता के सामने शर्मसार होने को तैयार नहीं| आम आदमी पार्टी ने ज़रूर पहली बार भ्रष्टाचार को केंद्रीय मुद्दा बना कर देश के मतदाताओं को धर्म और जाति से ऊपर उठ कर राजनीति को साफ़ करने का मौका दिया है लेकिन बीजेपी और कांग्रेस का प्रचार तंत्र मतदाताओं में लगातार भ्रम फैला कर उसे नाकाम बनाने पर तुला है| आप पर सबसे बड़ा आरोप ये लगाया जाता है कि ये पूरी पार्टी केजरीवाल एंड कंपनी के इर्दगिर्द चल रही है, तो क्या बीजेपी मोदी, कांग्रेस गाँधी परिवार, सपा मुलायम परिवार, बसपा मायावती, डीएमके करुणानिधि, एनसीपी शरद पवार और शिवसेना ठाकरे की गणेश परिक्रमा नहीं कर रहे हैं? हालाँकि ये तर्क आप को व्यक्तिवादी राजनीति करने का लाइसेंस नहीं देता और देश की राजनीति में एक तरह के विकार को ही सामने लाता है लेकिन भ्रष्टाचार जैसे अहम् मुद्दे पर ईमानदारी से लोगों को जागरूक करके और बेदाग छवि वाले जुझारू उम्मीदवार मैदान में उतार कर आम आदमी पार्टी ने काफी हद तक इस रास्ते पर चलने से खुद को रोका है।
दरअसल देश को आज ऐसी ही वैकल्पिक राजनीति की ज़रूरत है जहाँ जनता के बुनियादी मुद्दे अहम् हों न कि राष्ट्रीय नेताओं के चमकते चेहरे| सत्ता के विकेंद्रीकरण के दौर में आम चुनाव को मोदी बनाम राहुल बनाम केजरीवाल बनाम मुलायम बनाम जयललिता बना कर ना तो देश का भला होगा और न ही राजनीति का। अंतिम छोर पर खड़े आम आदमी की आवाज़ सत्ता के ऊपरी पायदान तक तभी पहुंच पाएगी जब ब्लॉक स्तर से लेकर संसद तक ऐसे जन प्रतिनिधि चुने जाएं जो चुनाव जीतने के बाद क्षेत्र के विकास के लिये काम करें ना कि अपने और पार्टी के चुनावी खर्च को पूरा करने के लिये। सच तो ये है कि इस बार का आम चुनाव पार्टियों से कहीं ज्यादा वोटरों के लिए परीक्षा की घडी है। खासतौर पर युवा मतदाता इस बार भ्रष्टाचार मुक्त विकास के मुद्दे और स्थानीय उम्मीदवार की छवि को देखकर वोट करें तो एक नयी तरह की राजनीति का देश में बीजारोपण हो सकता है| 
 अलग चाल, चरित्र और चेहरे का दावा करने वाली बीजेपी ने जिस तरह इस बार चुनाव में संघ के इशारे पर अपने ही कई बड़े नेताओं को दरकिनार करके मोदी को मसीहा बना कर मैदान में उतरा है उसने इस पार्टी की व्यक्ति केंद्रित सोच को ही ज़ाहिर किया है| संचार माध्यमों में धड़ल्ले से हो रहा बीजेपी का चुनाव प्रचार मोदी के हाथ में ऐसी जादू की छड़ी थमा देता है जिससे देश की हर समस्या पलक झपकते ही हल हो जाएगी, शायद उनकी भी जिन्होंने विकास तो दूर आज तक अपने क्षेत्र के सांसदों, विधायकों की शक्ल भी नहीं देखी| बीजेपी का प्रचार अभियान चार दशक पुराने कांग्रेस के इंदिरा युग की याद दिलाता है जब इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया का नारा देकर देश के आम मतदाताओं को सुनहरे भविष्य का सपना दिखाया गया था और जिसका खामियाजा देश को देर सबेर आपातकाल के रूप में झेलना पड़ा था| किसी ने सच ही कहा है कि इतिहास खुद को दोहराता है, पहली बार हादसे के रूप में और दूसरी बार पाखंड के रूप में..... अतीत के आईने में देखे तो अचानक ये कथन खौफ़नाक लगने लगता है| त्रासदी से तो हम बच नहीं पाए, क्या इस बार हम पाखंड से बच पाएंगे?