रविवार, 30 दिसंबर 2018

सच बेचिये, खुद को नहीं!

भूपेश पंत

सार्थक पत्रकारिता के मकसद से निकलने वाली चुनिंदा पत्र-पत्रिकाओं, चैनलों या वेबसाइट्स के शुभचिंतकों में तकरीबन हर उम्र, तबके और सामाजिक परिवेश के लोग होते हैं, लेकिन उनकी चिंता आश्चर्यजनक रूप से समान है। ये लोग मानते हैं कि सच लिखना और बोलना धीरे धीरे और मुश्किल होता जा रहा है। इन हालात में भी कुछ लोग वही सच लिख बोल रहे हैं जो जन भावनाओं से जुड़ा है। लेकिन उनकी चिंता सच बोलने को लेकर नहीं सच के ज़िंदा रहने को लेकर है। इन सबका सोचना यही है कि जो लोग सच को सामने लाने की हिम्मत कर रहे हैं वो ऐसा कब तक कर पाएंगे। इन चिंताओं के पीछे दरअसल एक ही सूत्र वाक्य है कि सच सुनना और पढ़ना अच्छा तो लगता है लेकिन सच बिकता नहीं।

कुछ लोग इस परंपरागत विचार से ज़रूर आंख मूंद कर सहमत होंगे लेकिन मुझे लगता है कि सच को बेचने पर पाबंदी लगाने वाली इस सोच ने दरअसल सच को हराने का ही काम किया है। सच को अगर लिखा-पढ़ा जा सकता है, बोला-सुना जा सकता है, पसंद किया जा सकता है तो फिर सच को बेचा क्यों नहीं जा सकता। इसी सोच ने लोगों में ये धारणा बनायी है कि सच लिख-बोल कर कुछ हासिल नहीं हो सकता। कहीं संस्कारों के नाम पर ये सच के खिलाफ कोई साज़िश तो नहीं है?  वैसे भी पत्रकारिता को सदा से ही सच को सामने लाने वाले औज़ार के तौर पर देखा गया है। सच लिखने और दिखाने का दावा करने वाले मीडिया संस्थान भी तो दरअसल सच को बेचने की दुकानें ही हैं। ये कतई ज़रूरी नहीं कि सच बिकाऊ बन कर अपना अस्तित्व खो दे। लोग अगर सच जानना चाहते हैं तो उन्हें उसकी कीमत तो चुकानी ही चाहिये। सच को बिकाऊ बनाने का मकसद समाज में सच की सत्ता को स्थापित करना होना चाहिये ताकि जीवन के हर क्षेत्र में लोग सच से जुड़ने का साहस कर सकें। सच को गरीब बना कर ये काम नहीं हो सकता। लेकिन इस बात का ध्यान रखना होगा कि सच को बेचने के नाम पर उसे बाजारू ना बनने दिया जाये। सच तभी बाजारू बनेगा जब उसे लिखने और बोलने वाले खुद बिकाऊ हो जायें। दुर्भाग्य से आज हो यही रहा है। सच के नाम पर कलम बेची जा रही है। सियासत से लेकर मीडिया तक फैली कारोबारी ताकतों को भी सच की ताकत का अहसास है। सरकारें चाहती तो नहीं लेकिन मानती ज़रूर हैं कि लोगों को सच जानने का अधिकार है। सूचना का अधिकार इसी वजह से अस्तित्व में आया। सच के ही नाम पर कई चैनल और पत्र पत्रिकाएं मौजूदा दौर में झूठ की फसल उगा रही हैं। सच का मुलम्मा लगा कर उसे लोगों के सामने परोस कर खूब मुनाफा भी कमाया जा रहा है। लेकिन सच आज भी उतना ही निरीह और मजबूर है जितना पहले था। सच बोलने वाली आवाज़ें या तो सत्ता के दमन चक्र के आगे घुटने टेक देती हैं या फिर उन्हें बड़ी ही चालाकी से खामोश कर दिया जाता है। ये लोग संस्कारों के नाम पर सच को बिकाऊ नहीं बनने देते और उसी की आड़ में झूठ के कारोबार का रास्ता साफ करते हैं। बिल्कुल उसी तरह जैसे धर्म के तथाकथित ठेकेदार भगवान की आड़ में अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं। आधा सच तो झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है क्योंकि उसकी वजह से कोई द्रोणाचार्य निहत्था करके मारा जा सकता है।

सच को ज़िंदा रखने की ज़िम्मेदारी सिर्फ सच लिखने और बोलने वालों की ही नहीं है। सच सुन कर ताली बजाने से ही काम नहीं चलेगा। सच को किसी तमाशे की तरह देखने की बजाय उसे जीवन का अभिन्न अंग बनाना होगा। सच सुनना, पढ़ना और जानना पसंद करने वालों को उसे बचाने के लिए भी आगे आना होगा। सियासत और पत्रकारिता समेत जीवन के हर पहलू में सकारात्मक बदलाव के लिये सच की प्राण प्रतिष्ठा किया जाना बहुत ज़रूरी है।
(राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस पर विशेष) 

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