शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

एक दिमाग़ की मौत!

(ब्रेन डेड सोसायटी)
भूपेश पंत

कहते हैं कि भीड़ का अपना दिमाग नहीं होता लेकिन ये भी सच है कि हर तरह की भीड़ के पीछे कोई न कोई दिमाग़ ज़रूर होता है। वो दिमाग़ कैसा और किसका होगा ये जानने की उत्सुकता एक रात मुझे आधी रात को शहर के उस अंधेरे कोने में ले आयी। अंधेरे को चीरती उल्लू की आवाज़ और फड़फड़ाते चमगादड़ों के बीच खँडहर में काले लिबास पहनी भीड़ जमा थी। इस तरह चीखती चिल्लाती मानो मौत का समारोह मन रहा हो। मैंने देखा कि भीड़ का दिमाग़ और चेहरा दोनों ही नहीं थे। मुझे देखते ही भीड़ ने मुझे किसी शिकार की तरह घेर लिया। मुझसे मेरी पहचान पूछी गयी और पूरी तसल्ली के लिये कई ऐसे फेसबुकिये कुतर्क किये गये ताकि जाना जा सके कि कहीं मैं दिमाग़ का इस्तेमाल तो नहीं करता हूँ। लेकिन मैं जानता था कि मेरी जरा सी भी होशियारी भीड़ को मुझ पर टूट पड़ने का मौका दे देगी। लिहाज़ा मेैंने उनके हर कुतर्क पर मौन साध लिया और भीड़ का हिस्सा बन गया। मुझे पता था कि शहर के किसी काले अंधेरे हिस्से में इस भीड़ को चलाने वाला कोई दिमाग़ और चेहरा ज़रूर होगा जिसे देखने को मैं उत्सुक था। भीड़ का उन्माद पूरे शहर पर पसरता गया। भीड़ भी बढ़ती गयी और मरने वाले भी। एक दिन ऐसा आया जब भीड़ का उन्माद अर्श पर था लेकिन उसका शिकार होने वाला कोई बचा नहीं। भीड़ लाशों के बीच किसी ज़िंदा शिकार को ढूँढ रही थी कि कहीं से आवाज़ आयी कि चलो अब बहुत हो गया, खत्म करो। मुझे भी लगा कि चलो ये भीड़ छटे तो वो चेहरा और दिमाग़ साफ दिखने लगेगा जो अभी नेपथ्य में गुम है। मैं बेसाख्ता बोल पड़ा कि हां, यही ठीक रहेगा। मेरी आवाज़ निकलते ही भीड़ ने मुझे घेर लिया और फिर मुझ पर टूट पड़ी। मौत को इस तरह अपनी ओर आते देख मुझे अहसास हो गया कि मैंने खुद को शैतानों के बाड़े में फैंक दिया है। भीड़ ये जान चुकी थी कि उनमें और मुझ में समझ का फ़र्क है। अपनी आख़िरी सांसें गिनते हुए अचानक मेरी अधखुली आंखों के सामने एक चेहरा नमूदार हुआ। वो चेहरा था सत्ता का। नफ़रत के दागों से भरा उसी की तरह सपाट और संवेदनहीन। और फिर जो मैंने देखा वो हैरान करने वाला था। सत्ता के बड़े बड़े नाखूनों वाले दोनों पंजों के बीच भीड़ में शामिल हर शख्स का दिमाग़ था लेकिन मेरा नहीं। शायद यही वजह थी मेरे मारे जाने की।

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