पता नहीं मौन है
क्यों
सह रहा है
वो शायद
भावनाओं के मुद्दों में
बह रहा है।
फिर आयेंगे
सालों बाद
साहब इस गाँव में
वो आजकल
सबसे
यही
कह रहा है।
घरों के डूबने का
अहसास
सबसे पहले उसे
होता है
जो अधमंजिला
झोपड़ी में
रह रहा है।
उसकी
बातों पे ही ध्यान
मत दो
ये भी सुनो वो
कब, कैसे,
क्यों
और कितना
कह रहा है।
नहीं
खड़े होना
बड़े दरख़्तों के नीचे
कौन जाने
बारिश में कौन
कब
ढह रहा है।
आँसू पोंछने
का
तुम अब
ये नाटक बंद करो
पूछो
रूह से उसकी
वो क्या
सह रहा है।
किसी की अंतिम
विदाई पर
बरस रहा है
आसमां
तो कितने पवित्र होंगे
वो इन्सां
जिनके शोक में
बादलों का सीना
फट रहा है।
इस मौसम में भी
सबसे
नुकसान में
है
इंसानियत की
नदी
जिसका पानी
लगातार
घट रहा है।
वायदों के बुलबुले
और
उम्मीदों के पर्चे
देखो
ख़ैरात में इन दिनों
क्या क्या
बंट रहा है।
चारों ओर
छाई है सुबह में
खून सी लाली
घेरे है
सूरज को
कोहरा
या
छंट रहा है।
टूटे खिलौनों की
मरम्मत में
लगा है
वो
बच्चा
सुबह से जाने उसे
क्या
सूझ रहा है।
बुझा दिये गये
हैं
अमन के दिये
सभी
अंधेरों को भी अब
रास्ता
बूझ रहा है।
देख लो उसने भी
अभी
हार नहीं मानी
लोगों की अकलियत
से
अब तक
जूझ रहा है।
बरगला कर उनको
अपनी जेब
इतनी भी ना भर
तू कहता है
जिसे कि
है
वो खुदा
देख रहा है।
जो बात तेरी
ज़ुबान से
निकल रही है आज
खुद भी रख
रहा है उसे
या
फेंक रहा है।
कोई मजबूरी ज़रूर
रही होगी
उसकी
चिता की सुलगती
आँच पर
रोटी
सेक रहा है।
पहली भेड़ बन कर
भेड़ों की भीड़
में
खेल
कौन नादान
बच्चा
खेल रहा है।
बरस के
खत्म हो जाएगा
तुम्हारी
आँख का पानी
उस बशर का क्या
जो ज़िंदगी भर का
ग़म
झेल रहा है।
- भूपेश पंत
क्यों
सह रहा है
वो शायद
भावनाओं के मुद्दों में
बह रहा है।
फिर आयेंगे
सालों बाद
साहब इस गाँव में
वो आजकल
सबसे
यही
कह रहा है।
घरों के डूबने का
अहसास
सबसे पहले उसे
होता है
जो अधमंजिला
झोपड़ी में
रह रहा है।
उसकी
बातों पे ही ध्यान
मत दो
ये भी सुनो वो
कब, कैसे,
क्यों
और कितना
कह रहा है।
नहीं
खड़े होना
बड़े दरख़्तों के नीचे
कौन जाने
बारिश में कौन
कब
ढह रहा है।
आँसू पोंछने
का
तुम अब
ये नाटक बंद करो
पूछो
रूह से उसकी
वो क्या
सह रहा है।
किसी की अंतिम
विदाई पर
बरस रहा है
आसमां
तो कितने पवित्र होंगे
वो इन्सां
जिनके शोक में
बादलों का सीना
फट रहा है।
इस मौसम में भी
सबसे
नुकसान में
है
इंसानियत की
नदी
जिसका पानी
लगातार
घट रहा है।
वायदों के बुलबुले
और
उम्मीदों के पर्चे
देखो
ख़ैरात में इन दिनों
क्या क्या
बंट रहा है।
चारों ओर
छाई है सुबह में
खून सी लाली
घेरे है
सूरज को
कोहरा
या
छंट रहा है।
टूटे खिलौनों की
मरम्मत में
लगा है
वो
बच्चा
सुबह से जाने उसे
क्या
सूझ रहा है।
बुझा दिये गये
हैं
अमन के दिये
सभी
अंधेरों को भी अब
रास्ता
बूझ रहा है।
देख लो उसने भी
अभी
हार नहीं मानी
लोगों की अकलियत
से
अब तक
जूझ रहा है।
बरगला कर उनको
अपनी जेब
इतनी भी ना भर
तू कहता है
जिसे कि
है
वो खुदा
देख रहा है।
जो बात तेरी
ज़ुबान से
निकल रही है आज
खुद भी रख
रहा है उसे
या
फेंक रहा है।
कोई मजबूरी ज़रूर
रही होगी
उसकी
चिता की सुलगती
आँच पर
रोटी
सेक रहा है।
पहली भेड़ बन कर
भेड़ों की भीड़
में
खेल
कौन नादान
बच्चा
खेल रहा है।
बरस के
खत्म हो जाएगा
तुम्हारी
आँख का पानी
उस बशर का क्या
जो ज़िंदगी भर का
ग़म
झेल रहा है।
- भूपेश पंत
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