शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

बिहार: सत्ता की प्यास और सिद्धांतों की लाश!

भूपेश पंत

देश की सियासत के मौजूदा दौर में बिहार का ताज़ा राजनीतिक उलटफेर अप्रत्याशित नहीं लेकिन जेडीयू नेता और सीएम नीतीश कुमार ने सत्ता की चाह में जो राह पकड़ी है उसकी उम्मीद कई राजनीतिक विश्लेषकों ने नहीं की थी. भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सिद्धांतों से समझौता ना करते हुए नीतीश कुमार ने जिस तरह अपने कई मूल्यों, विरोधों और सिद्धांतों की बलि चढ़ा दी, उसकी परिणति उनके छठी बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के रूप में हुई. फर्क है तो इतना कि इस बार बिहार में महागठबंधन की नहीं विकास के नाम पर बीजेपी की बैसाखियों पर चलने वाली नीतीश-मोदी की गठबंधन सरकार बनी है. आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव अब भले ही नीतीश को लेकर सार्वजनिक तौैर पर कुनमुनाते रहें लेकिन इस तथाकथित पूर्वनियोजित स्क्रिप्ट को अंजाम तक पहुंचाने में उनका योगदान भी कम नहीं है.

लालू यादव ने कहा कि नीतीश ने छल किया है, क्योंकि तेजस्वी के खिलाफ हुई सीबीआई की कार्रवाई के पीछे उन्हीं का हाथ है. उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री पद से नीतीश का इस्तीफा एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ है. सबकुछ फिक्स था, कब कार्रवाई करनी है और कब तेजस्वी से इस्तीफा मांगना है.

वैसे देखा जाये तो बिहार में लालू परिवार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों और खासतौर पर उपमुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव के इस्तीफे की मांग को लेकर नीतीश के अलग राह पकड़ने के कयास लगने लगे थे. तेजस्वी के इस्तीफे को लेकर आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव का अड़ियल रुख नीतीश की राह को और भी आसान बना रहा था. नीतीश के पास भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के अपने सिद्धांत से समझौता करने के अलावा दो ही विकल्प थे. पहला कि वो महागठबंधन को तोड़ कर विधानसभा भंग करने की सिफारिश करते और नयी सरकार के लिये चुनावों का रास्ता साफ करते. इससे जहां उनकी सुशासन बाबू की छवि में ईमानदार और सिद्धांतवादी राजनेता होने का तड़का लगता वहीं बीजेपी से दूरी बनाकर वो अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को भी बरकरार रख पाते. लेकिन नोटबंदी समेत केंद्र की मोदी सरकार के कई फैसलों के लिये उनकी तारीफ कर चुके नीतीश को मोदी लहर पर सवार होना सियासी तौर पर शायद ज्यादा आसान लगा. जाहिर है नीतीश ने बीजेपी के सहयोग से सरकार बनाने का दूसरा विकल्प चुना. राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार को समर्थन देकर नीतीश ने अपनी राजनीतिक बिसात बिछाने में देर नहीं की. बीजेपी की ओर से सुशील कुमार मोदी पहले ही खुले तौर पर नीतीश को समर्थन का भरोसा दे चुके थे. जाहिर है बिहार का ये सियासी उलटफेर आने वाले दिनों में राज्य की सियासत की एक नयी इबारत गढ़ेगा जिसमें जेडीयू को अपनी साख के रूप में एक बड़ी कीमत अदा करनी होगी.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने नीतीश कुमार पर तीखा हमला बोला है. राहुल गांधी ने कहा कि सत्ता के लिए व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, कोई नियम नहीं है.

नीतीश कुमार को अपने पाले में खींच करके पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने एक तीर से कई शिकार किये हैं. जहां एक ओर मिशन बिहार की कामयाबी से बीजेपी ने राज्य की सरकार में शामिल होकर विपक्ष मुक्त भारत के अपने एजेंडे को विस्तार दिया है वहीं, राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एकजुट होने की कोशिश कर रहे विपक्ष की कमर तोड़ कर रख दी है. दूसरी ओर गुजरात दंगों को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना करने वाले और बिहार के डीएनए को मुद्दा बना चुके नीतीश को विपक्ष से मौकापरस्त होने का तमगा मिलने से भी बीजेपी को ही सबसे अधिक फायदा है. सरकार में हिस्सादारी करके अगले चुनावों तक अपनी स्थिति और मजबूत बनाने के लिये बीजेपी के पास पूरे तीन साल हैं. बशर्ते इन सालों में नीतीश-मोदी सरकार के आड़ेे कोई और सिद्धांत न आये. सूबे की सियासत में उछले भ्रष्टाचार के मुद्दे को भुनाने में इस बार भी कांग्रेस कमजोर कड़ी बन कर उभरी. राहुल-नीतीश मुलाकातों से ऐसा कोई फार्मूला सामने नहीं आया जो महागठबंधन में बिखराव को रोक पाता. आरजेडी अध्यक्ष लालू यादव और उनके परिवार के दूसरे सदस्यों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों पर सीबीआई और ईडी की कार्रवाई के बीच कांग्रेस अब तक अपना स्टैंड साफ नहीं कर पायी है. उधर नीतीश को निशाना बना कर लालू यादव के बयानों में उनकी ये खीज ही सामने आ रही है कि नीतीश को धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर राजनीतिक रूप से ब्लैकमेल कर पाने की उनकी उम्मीद धरी की धरी रह गयी.

Congratulations to @NitishKumarji & @SushilModi ji. Looking forward to working together for Bihar’s progress & prosperity. — Narendra Modi (@narendramodi) July 27, 2017

देश में जहां एक ओर आम लोगों के बुनियादी मुद्दे कभी नोटबंदी, कभी जीएसटी तो कभी देशभक्ति के तूफान में कम से कम हाशिये पर टिके रहने की जद्दोजहद कर रहे हैं, वहीं येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने की बीजेपी की मुहिम रंग लाती दिख रही है. मीडिया से लेकर सियासत तक अपने वर्चस्व को कायम रखने की ये कोशिश कभी देश में एकछत्र राज कर चुकी कांग्रेस की याद दिलाती है. और ये भी याद दिलाती है कि सत्तारूढ़ दल की नीयत ही उसकी नियति का निर्धारण करती है. लोकतंत्र, संविधान और राजधर्म की रक्षा के लिये देश में एक मजबूत विपक्ष का होना आज भी उतना ही ज़रूरी है जितना आपातकाल के दौरान था. विपक्ष अगर बीजेपी के इस वार से जल्द उबर नहीं पाया तो देश आने वाले समय में एक और निरंकुश सरकार के निजाम का गवाह बन सकता है. सच है कि आसमान की ओर फैंका जाने वाला पत्थर उतनी ही तेजी से नीचे भी आता है. कांग्रेस के इतिहास से सबक लें तो लगता है कि गुरुत्वाकर्षण का ये वैज्ञानिक नियम सियासी दलों पर भी लागू होता है. और एक सच ये भी है कि लोकतंत्र में जनता का वोट ही इस गुरुत्वाकर्षण बल की तीव्रता का पैमाना होता है, जिसे कई बार बेवकूफ बनाया जा सकता है लेकिन सबको नहीं और हर बार नहीं.
Posted by: News Trust of India 27/07/2017

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