सोमवार, 1 जून 2009

कविता का दुर्भाग्य

मैं कवि हूं क्योंकि कविता करता हूं...
मौत से बहुत डरता हूं 
इसलिये 
सिर्फ़ मौत पर कविता करता हूं
मौत इंसान की हो या पशु की...

माता की हो या शिशु की..
एक मौत 
यानी एक कविता
अभी तक ना जाने कितनी मौतें मेरी कविता बनी हैं... 
जाने कितने मजहबों के लहू से सनी हैं..
अब तो पूरा संकलन बन चुका है
जिसका नाम मैंने एकता रखा है..
 
मौत धर्मनिरपेक्ष होती है..
क्योंकि वो धर्म या जाति के आधार पर नहीं आती है..
आती है और किसी को भी ले जाती है
इसलिये मौत लो और धर्मनिरपेक्ष हो जाओ..
नेता हो तो मौत की राजनीति अपनाओ...
 
मेरी कविता ज़िंदगी से दूर है 
क्योंकि 
ज़िंदगी पर लिखना उतना ही कठिन है
जितना ज़िंदगी को जीना
इसीलिये मेरी कविता का विषय सदा मौत रहा है..
ज़िंदगी की तरह मौत को ढूंढना नहीं पड़ता 
वो आजकल हर जगह मिल जाती है
 
हर समझदार व्यक्ति अब इसे अपना चुका है
ये विषय
अब राष्ट्रीय महत्व पा चुका है...
मौतें होती हैं तो संपादक संपादकीय लिखता है..
मरने वाले के परिवार को मुआवज़ा मिलता है
नेता उनका अस्थिकलश बनवाता है
और वोटों के लिये गली गली घुमाता है...
 
लेकिन
मैं उस मौत को सहेज लेता हूं अपनी कविता बना कर
जोड़ देता हूं किताब के मध्य पन्ना 
इस आस में कि 
शायद
इतने लोगों का बलिदान व्यर्थ ना जाये
और
मुझे इस संकलन पर कोई पुरस्कार मिल जाये..
 
मौतें अब मेरी ज़रूरत बन चुकी हैं..
सोचता हूं जिस दिन कोई नहीं मरेगा
उस दिन मुझे मरना होगा
एक कविता बन संकलन में छप जाने के लिये 
मौतें होना ही मेरे कवित्व का सौभाग्य है...
और शायद यही
मेरी कविता का दुर्भाग्य है.....

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