मंगलवार, 1 जनवरी 2019

एकल अभिनय!

वो नेता है
वो ही अभिनेता है
वो पक्ष है
और
वो ही विपक्ष है
वो अकेले ही सुनता है
वो अकेले ही बोलता है
उसे अकेला होना
इतना पसंद है
कि
वो जा बैठा है
सत्ता के शीर्ष पर
अब वो ही जनता है
और
वो ही शासक
इस रंगमंच पर
उसका
अकेला होना जरूरी है
और
तालियां बजाना
दर्शकों की
विकल्पहीन मजबूरी है
वो हमेशा से चाहता था
अकेला हो कर
अपनी ताकत का
अहसास करना
इसलिए
अपनी पटकथा में
वो
अपने खिलाफ़ भी
अपनी पसंद से ही चुनता है
किरदार
और
भरोसा दिलाता है
कि
जन्मा है वही एक
अवतार
करने सबका उद्धार
वो चाहता है
एक डर
एक सुर
एक उन्माद
एक मौका
एक पार्टी
एक फूल
एक पेड़
एक रंग
एक धर्म
और
एक सत्ता
वो इसे ही
कहता है एकता
वो
एक की इच्छा से
पूरी जनता को हाँक कर
बहुदलीय लोकतंत्र को
बनाना चाहता है
एकाकार
कई पात्रों से होकर गुजरता
उसका एकल अभिनय
अकसर
कर जाता है
भावनाओं की सीमा पार
और
देर तक
तालियों की गड़गड़ाहट
से गूंजता सभागार
बता देता है उसे
कि
दशकों से अंधे, बहरे
और
मूक दर्शकों को
आज भी
सेवक की नहीं
एक अदद
तानाशाह की है
दरकार
तो बोलो, अबकी बार....!

- भूपेश पंत

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें