सिर झटक कर मैंने ख़यालों की दुनिया से निकलने की कोशिश की लेकिन सोच इस तरह दिलोदिमाग़ पर हावी होती चली गयी जैसे किसी ने ऊन के गोले का एक सिरा पकड़ कर उसे ढलान पर लुढ़का दिया हो। एफआईआर लिखाने जैसी छोटी सी बात पर इतनी सहज़ता से रिश्वत की मांग, मैं शायद भीतर ही भीतर हिल चुका था। मुझे लगा जब मुसीबत का मारा कोई वाकई का आम आदमी मेरी जगह होता तो क्या उसे सहानुभूति के इतने शब्द भी सुनने को मिल पाते। लेकिन वो पुलिस वाला भी तो इस देश का एक आम आदमी ही है। क्या उसे खुद इस बात का अहसास नहीं कि वो क्या कर रहा है, या फिर ये सच है कि खाकी हो या खादी, वर्दी और कुर्सी किसी को भी आम नहीं रहने देती। तो फिर एक अरब से ज़्यादा के इस देश में आख़िर आम आदमी कितने हैं, किसी ना किसी को तो इसकी गणना करनी ही चाहिये। मैंने दिमाग़ पर ज़ोर डाल कर याद करने की कोशिश की लेकिन ऐसा कोई नज़र नहीं आया जिसे मैं बेचारे आम आदमी की उपाधि दे सकूं। शायद इसलिये कि अब आम हो या खास, हर कोई भ्रष्टाचार के रंग में रंग गया है, ये उसकी सांसों में ज़िंदग़ी की तरह घुल चुका है। बल्कि कुछ के लिये तो शायद ये उस स्कीइंग पैड की तरह है जिसे पहन कर ही आज की भागती दौड़ती ज़िंदग़ी के साथ कदम मिलाया जा सकता है। ये बात और है कि इस दौड़ में जरा भी क़दम फिसला तो बस.... गए। यही सोचते सोचते मैंने दरवाज़े की घंटी को दबाया। किर्र.... दरवाज़ा खोलते हुए पापा मुझे आज कुछ ज़्यादा ही खुश नज़र आये। मैं कुछ पूछता उससे पहले ही उन्होंने अख़बार की एक क़तरन मेरे हाथ में थमा दी, वो एक राष्ट्रीय दैनिक का संपादकीय था जिसमें भ्रष्टाचार से पीड़ित आम जनता के दर्द को आवाज़ देने की कोशिश की गयी थी। तो यही था पापा की आंखों में अचानक कई दिनों बाद उतरी चमक का राज़। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे सालों से सीमा पर बिना गोलियों की बंदूक से दुश्मन को डरा रहे सैनिक को अचानक एक दिन कारतूस का डिब्बा थमा दिया गया हो। और क्यों ना हो आख़िर बचपन से लेकर आज तक मैंने उन्हें अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष में ही तो घिरा पाया है। शायद इसीलिये भ्रष्टाचार के विरोध में उठी किसी भी आवाज़ के साथ भावनात्मक रिश्ता गांठ लेना अब पापा की आदत में शुमार हो चुका है।
मेरा सोचना ग़लत नहीं था, अबकी बार पापा लौटे तो उनके हाथों में अख़बारों की पुरानी कतरनें और वो कागज़ थे जो पिछले तीस सालों में बढ़ते बढ़ते एक पुलिंदे की शक्ल ले चुके हैं। साठवां बीतने के बाद अब ये क़तरनें ही उनकी ज़िंदगी की पूंजी हैं और उनके लंबे चौड़े संघर्ष की अनगढ़ी इबारत भी। कॉमरेड पी सी जोशी के निर्देश पर अपनी जमी जमायी वक़ालत छोड़ उत्तराखंड के सुदूर पिथौरागढ़ में आकर वामपंथी राजनीति के क्रांतिकारी तेवरों के साथ सामाजिक राजनीतिक जीवन में कूदते हुए पापा ने विचारों के जिस प्रवाह में क़दम रखा था उसने आज तक उन्हें किनारा भले ही न दिया हो लेकिन रीढ़ की हड्डी में सिर उठा कर चलने की ताक़त ज़रूर दी। स्वतंत्रता सेनानी परिवार में जन्म लेने के गौरव का इस्तेमाल निजी हित में न करते हुए पापा ने इसे एक नये तरह के आंदोलन का आधार बनाया। सत्तर और अस्सी के दशक में कस्तूरी कांड, सीमेंट घोटाला और रामगंगा पेयजल योजना में भ्रष्टाचार जैसे कई मामलों का स्थानीय और प्रादेशिक स्तर पर भंडाफोड़ करते हुये उन्होंने जो मुहिम शुरू की थी वो कुलीनों के इतिहास में भले ही दर्ज़ न हो पायी हो लेकिन उनसे जुड़ी अख़बारी क़तरनें अब मेरे पूरे परिवार के भूत, भविष्य और वर्तमान का अटूट हिस्सा बन चुकी हैं। मुझे लगा ढेर सारी अख़बारी क़तरनों के बीच घिरा मेरा बाप ही क्या वो आम आदमी नहीं है जिसकी मुझे सुबह से तलाश थी? हां वो आम ही तो है, दुनिया की नज़रों में बेहद मामूली सा इंसान। जो आज भी अपने भीतर उम्मीद की एक किरण पाले हुए है कि सब कुछ ठीक हो सकता है। जो अब भी मेरी मां की पेंशन के लिये किसी ऑफिस में रिश्वत देने की बज़ाय अधिकारी का गला पकड़ने का हौसला रखता है।