मंगलवार, 2 जून 2009

कतरनों में क़ैद आम आदमी


साहब कुछ चाय पानी, मेरी एफआईआर लिखने के बाद वो सिपाही मुझे कुर्सी से उठते देख बोल पड़ा। तब मुझे अहसास हुआ कि पिछले दस मिनट से मेरे मोबाइल खोने को लेकर उसके कुछ सहानुभूति जताने और मिलने पर ज़रूर लौटा देने जैसे दिलासों के पीछे कौन सी शक्ति काम कर रही थी। मैं भी यकायक उससे पूछ ही बैठा, क्या पत्रकार को भी नहीं छोड़ोगे भाई? मेरी बात सुन उसे अचानक याद आया कि सामने बैठा निरीह सा दिखने वाला प्राणी आम आदमी होने का भ्रम भले ही पैदा कर रहा हो लेकिन दरअसल वो किसी तेज़तर्रार चैनल का पत्रकार है. ठीक है जाइये, न जाने क्यों मुझे उसकी बुझी हुई आवाज़ में अपने लिये ढेर सारा तिरस्कार नज़र आया। मैं थाने से बाहर निकला तो राहत की सांस ली। भ्रष्टाचार के जिस दंश को आम आदमी सालों से झेलता आ रहा है, आज एक पत्रकार होने की वजह से आखिर मैं उससे बच जो गया था। ऑफिस से लेकर घर तक भले ही मेरी बिरादरी के लोगों को एक आम आदमी की तरह ही चिंता, शोषण और अन्याय के थपेड़े झेलने पड़ते हों लेकिन कुछेक ऐसे मौके मुझ जैसे कई लोगों को ये सोचने का मौका ज़रूर दे देते हैं कि अब वो आम आदमी की क़तार से ऊपर उठ चुके हैं।
सिर झटक कर मैंने ख़यालों की दुनिया से निकलने की कोशिश की लेकिन सोच इस तरह दिलोदिमाग़ पर हावी होती चली गयी जैसे किसी ने ऊन के गोले का एक सिरा पकड़ कर उसे ढलान पर लुढ़का दिया हो। एफआईआर लिखाने जैसी छोटी सी बात पर इतनी सहज़ता से रिश्वत की मांग, मैं शायद भीतर ही भीतर हिल चुका था। मुझे लगा जब मुसीबत का मारा कोई वाकई का आम आदमी मेरी जगह होता तो क्या उसे सहानुभूति के इतने शब्द भी सुनने को मिल पाते। लेकिन वो पुलिस वाला भी तो इस देश का एक आम आदमी ही है। क्या उसे खुद इस बात का अहसास नहीं कि वो क्या कर रहा है, या फिर ये सच है कि खाकी हो या खादी, वर्दी और कुर्सी किसी को भी आम नहीं रहने देती। तो फिर एक अरब से ज़्यादा के इस देश में आख़िर आम आदमी कितने हैं, किसी ना किसी को तो इसकी गणना करनी ही चाहिये। मैंने दिमाग़ पर ज़ोर डाल कर याद करने की कोशिश की लेकिन ऐसा कोई नज़र नहीं आया जिसे मैं बेचारे आम आदमी की उपाधि दे सकूं। शायद इसलिये कि अब आम हो या खास, हर कोई भ्रष्टाचार के रंग में रंग गया है, ये उसकी सांसों में ज़िंदग़ी की तरह घुल चुका है। बल्कि कुछ के लिये तो शायद ये उस स्कीइंग पैड की तरह है जिसे पहन कर ही आज की भागती दौड़ती ज़िंदग़ी के साथ कदम मिलाया जा सकता है। ये बात और है कि इस दौड़ में जरा भी क़दम फिसला तो बस.... गए। यही सोचते सोचते मैंने दरवाज़े की घंटी को दबाया। किर्र.... दरवाज़ा खोलते हुए पापा मुझे आज कुछ ज़्यादा ही खुश नज़र आये। मैं कुछ पूछता उससे पहले ही उन्होंने अख़बार की एक क़तरन मेरे हाथ में थमा दी, वो एक राष्ट्रीय दैनिक का संपादकीय था जिसमें भ्रष्टाचार से पीड़ित आम जनता के दर्द को आवाज़ देने की कोशिश की गयी थी। तो यही था पापा की आंखों में अचानक कई दिनों बाद उतरी चमक का राज़। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा था जैसे सालों से सीमा पर बिना गोलियों की बंदूक से दुश्मन को डरा रहे सैनिक को अचानक एक दिन कारतूस का डिब्बा थमा दिया गया हो। और क्यों ना हो आख़िर बचपन से लेकर आज तक मैंने उन्हें अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष में ही तो घिरा पाया है। शायद इसीलिये भ्रष्टाचार के विरोध में उठी किसी भी आवाज़ के साथ भावनात्मक रिश्ता गांठ लेना अब पापा की आदत में शुमार हो चुका है।
मेरा सोचना ग़लत नहीं था, अबकी बार पापा लौटे तो उनके हाथों में अख़बारों की पुरानी कतरनें और वो कागज़ थे जो पिछले तीस सालों में बढ़ते बढ़ते एक पुलिंदे की शक्ल ले चुके हैं। साठवां बीतने के बाद अब ये क़तरनें ही उनकी ज़िंदगी की पूंजी हैं और उनके लंबे चौड़े संघर्ष की अनगढ़ी इबारत भी। कॉमरेड पी सी जोशी के निर्देश पर अपनी जमी जमायी वक़ालत छोड़ उत्तराखंड के सुदूर पिथौरागढ़ में आकर वामपंथी राजनीति के क्रांतिकारी तेवरों के साथ सामाजिक राजनीतिक जीवन में कूदते हुए पापा ने विचारों के जिस प्रवाह में क़दम रखा था उसने आज तक उन्हें किनारा भले ही न दिया हो लेकिन रीढ़ की हड्डी में सिर उठा कर चलने की ताक़त ज़रूर दी। स्वतंत्रता सेनानी परिवार में जन्म लेने के गौरव का इस्तेमाल निजी हित में न करते हुए पापा ने इसे एक नये तरह के आंदोलन का आधार बनाया। सत्तर और अस्सी के दशक में कस्तूरी कांड, सीमेंट घोटाला और रामगंगा पेयजल योजना में भ्रष्टाचार जैसे कई मामलों का स्थानीय और प्रादेशिक स्तर पर भंडाफोड़ करते हुये उन्होंने जो मुहिम शुरू की थी वो कुलीनों के इतिहास में भले ही दर्ज़ न हो पायी हो लेकिन उनसे जुड़ी अख़बारी क़तरनें अब मेरे पूरे परिवार के भूत, भविष्य और वर्तमान का अटूट हिस्सा बन चुकी हैं। मुझे लगा ढेर सारी अख़बारी क़तरनों के बीच घिरा मेरा बाप ही क्या वो आम आदमी नहीं है जिसकी मुझे सुबह से तलाश थी? हां वो आम ही तो है, दुनिया की नज़रों में बेहद मामूली सा इंसान। जो आज भी अपने भीतर उम्मीद की एक किरण पाले हुए है कि सब कुछ ठीक हो सकता है। जो अब भी मेरी मां की पेंशन के लिये किसी ऑफिस में रिश्वत देने की बज़ाय अधिकारी का गला पकड़ने का हौसला रखता है। 
लेकिन ये आम आदमी मुझे बाहर सड़कों पर नज़र क्यों नहीं आता। बसों में बेटिकट घूमते लोग, दफ़्तरों में मेज के ऊपर से ही रुपये थमा कर हाथ मिलाते लोग, अपने कनिष्ठों को भूखा प्यासा रख कर शोषण और अन्याय पर लेख लिखवाता कोई लेखक, ट्रकों को रोक कर खुलेआम उगाही करती ट्रैफिक पुलिस या फिर सीमेंट की जगह रेत मिलाता ठेकेदार, ये सभी आम आदमी होने का भ्रम क्यों पैदा करते हैं। शायद इसलिये क्योंकि अभी तक आम आदमी मेरे पिता की तरह ही अख़बार की क़तरनों या जनगणना की फाइलों में कहीं क़ैद है... और इस लेख के ज़रिये अपने पिता को उनकी इस क़ैद से रिहा करवा कर आज मैं उसी आम आदमी को सड़कों, गलियों, दफ़्तरों, पंचायतों, विधानसभाओं और संसद तक पहुंचाने की कोशिश या फिर दुस्साहस कर रहा हूं। 
(मैंने ये आलेख 2003 में उस वक्त लिखा था जब मैं आजतक न्यूज़ चैनल में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत था। इस आलेख को सत्यता पर आधारित तथ्यों के इर्द गिर्द बुना गया है जो एक आम आदमी के सच्चे संघर्ष, भ्रष्टाचार के फैलते नासूर और उसके ख़िलाफ़ मीडिया की ताक़त के संभावित और सही इस्तेमाल की ज़रूरत को अभिव्यक्त करते हैं।)  

3 टिप्‍पणियां:

  1. सहमत हूँ आपसे। कहते हैं कि-

    भ्रष्टाचार एक घाव था छोटा बढ़कर अब नासूर हुआ।
    हालत यहाँ तक आ पहुँची कि जान बचाना मुश्किल है।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. bhupesh jee , mujhe lagtaa hai ki ye
    swaabhaavik hai..aaj samaaj ke jo haalaat hain..jaahir ki ek ek aadmee ko jod kar bane samaaj ke hee... usmein bhrashtachaar aur anya sabhee buraaiyuan is had tak paivast ho chukee hain ki unhein ek aghoshit maanyataa mil chuki hai aur aam aadmee kee sabse badee majbooree ye hai ki wo akelaa ladtaa hai....

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