बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

नारद और भगवान

भगवान ने जब से अपने भक्तों के साथ सीधा संवाद कायम किया है तब से उनके प्रचार प्रसार में जुटे बिचौलियों को जैसे सांप सूंघ गया है। हालत ये है कि अब उनसे न तो उगलते बन रहा है और न निगलते। इन स्वयंभू नारदों की मज़बूरी ये है कि जिस भगवान की मूर्ति गढ़ कर आज तक वो अपनी दुकान चला रहे थे उन्हें ही अब महज़ पत्थर साबित करें भी तो कैसे ? डर है कि अब कुछ उल्टा सीधा बोला तो भक्तजन उनके ही कपड़े न फाड़ डालें। भगवान की महिमा का तो कहना ही क्या। पहले तो भक्तों तक पहुँचने के लिए इन्हीं नारदों का सहारा लिया और जब उनका जादू सिर चढ़ कर बोलने लगा तो दूध में से मक्खी की तरह उन्हें बाहर फेंक दिया। भगवान अब अंतर्जालीय उपकरणों के सहारे सीधे भक्तजनों के संपर्क में हैं और अपने प्रवचनों अथवा निकट या दूर से दर्शनों की समय सारणी भी खुद ही तय करने लगे हैं। दरअसल भगवान ने भी समझ लिया है कि बदलते दौर में उनका इन परंपरागत नारदों पर ही निर्भर रहना खुद उनके अस्तित्व के लिए खतरनाक साबित हो सकता है.. भस्मासुर का उदाहरण उनके सामने है ही। लिहाज़ा क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा का भाव रखने वालों से दूरी बनाये रखना ही ठीक होगा। सबसे बड़ी बात ये कि एक बार अपने बावरे भक्तों की आँखों में आस्था की पट्टी बंध गयी तो फिर सही मायनों में वो कण कण में व्याप्त हो जायेंगे। लेकिन भगवान तो आखिर भगवान हैं, दया के सागर, वो किसी के पेट पर लात भी तो नहीं मार सकते। अब तक जिन लोगों ने उनके नाम पर अपनी रोजी रोटी चलाई है उन्हें कभी कभार दूध पीने जैसे चमत्कारों के ज़रिये लाभान्वित होने का मौका ज़रूर देते हैं। लेकिन नारदजन असंतुष्ट हैं इस तर्क के साथ कि भगवान को उन्होंने ही भगवान बनाया जबकि भगवान का मानना है कि उनका होना तो अटल सत्य है और उनके नाम का सहारा लेकर ही बड़े बड़े कोर्पोरेट पत्थर सुख समृद्धि के भवसागर में तैर रहे हैं, लिहाज़ा उन्हें जितना और जैसे मिल रहा है उतने में ही संतुष्ट होना चाहिए। अब भगवान को भी कौन समझाए कि साधारण इंसान हों या देवगण.. उनके मन में ज्यादा से ज्यादा पाने की असीम चाह भी तो उन्ही की देन है। आखिर किसने कहा था उनसे लोगों को ये बताने को कि लोकतंत्र के उड़नखटोले पर सवार हो कर वो किस तरह साधारण मनुष्य अवतार से इस परमपद तक पहुंचे हैं। बहरहाल भगवान ने अपने प्रताप से स्वयंभू नारदों के सामने अब एक ही विकल्प छोड़ा है कि उनकी ज्यादा से ज्यादा चरणवंदना कर अपनी उदरपूर्ति में लगे रहें, कम से कम तब तक जब तक कि भगवान के अबोध भक्त खुद अपने ज्ञान चक्षु न खोल लें।