मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

इंसानियत को खेद है

कल शाम ऑफिस के काम से दूसरे शहर से वापस लौटा तो मेरे मोहल्ले का सीन देखने लायक था। आसपास के सारे लोग अपने अपने बच्चों को लेकर मेरे घर के आगे जमा थे और मुझे बुलाने की मांग करते हुए न जाने क्या क्या चिल्ला रहे थे। मेरी पत्नी उन्हें कुछ समझाने की कोशिश कर रही थी और मेरा बेटा अपनी माँ के पीछे दुबका हुआ था। मेरी समझ में कुछ नहीं आया तो किसी तरह भीड़ को चीरता हुआ मैं अपनी पत्नी के पास पहुंचा और उससे इस हंगामे का कारण पूछा। उसने मुझे बताया कि आज हमारे बेटे ने मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलते हुए अचानक गुस्से में उनसे न जाने क्या क्या असंसदीय भाषा में बोल दिया। बच्चे उसका मतलब नहीं जानते थे सो उन्होंने घर जा कर अपने माँ बाप से उन शब्दों का मतलब पूछ लिया। उनके माँ बाप को जब पूरे मामले का पता चला तो वो सब मिल कर मेरे घर पर टूट पड़े। मैंने अपने बच्चे को रुआंसा देखा तो याद आया कि ये तो वही शब्द थे जो अक्सर मैं ही उसके सामने इस्तेमाल करता था। न जाने कब वो बच्चा इन शब्दों को इतना कीमती समझ बैठा कि अपने दोस्तों के सामने उगल बैठा। लेकिन ये बात मैं मोहल्ले के लोगों के सामने कैसे स्वीकारता। मैंने भी गुस्से में फिर ऐसा न करने की नसीहत के साथ एक चपत अपने बेटे के गाल में लगाई और उससे मोहल्ले के लोगों से माफ़ी मांगने को कहा। मेरे बेटे ने रोते रोते सबके सामने खेद जताया और माँ के पल्लू से निकल कर अपने आंसुओं के साथ घर के भीतर भाग गया। मैंने मोहल्ले वालों से बात को यहीं ख़त्म करने की प्रार्थना की और भीड़ धीरे धीरे छंटने लगी। राहत की सांस लेते हुए अपनी पत्नी के साथ घर के भीतर जाते जाते मैंने सुना कि पड़ोस के राम मोहम्मद सिंह हेम्ब्रम साहब का बेटा उनसे पूछ रहा था, पापा हरामजादा क्या होता है?