मंगलवार, 1 जनवरी 2019

अपने अपने प्रस्थान बिंदु

बूढ़ा फकीर लगातार घर का दरवाज़ा खटखटा रहा था। लग रहा था कि वो भूख प्यास से व्याकुल है।

गांव के साधारण से घर में उस वक्त मौजूद बुढ़िया ने दरवाज़ा खोल कर गुस्से में कहा, 'अब क्या मुए ये दरवाज़ा भी नहीं छोड़ेगा। कमबख़्त सब कुछ खा गया फिर भी मेरी जान नहीं छोड़ता। अब क्या लेने आया है....'

फकीर ने आँसू भरी निगाहों को ऊपर उठाते हुए कहा, 'बहुत भूखा हूँ माई कुछ खाने को दे दे तेरा भला होगा..'

बुढ़िया गुस्से में आकर, .... 'कमाल है अभी भी तेरा पेट नहीं भरा। पांच साल पहले इसी तरह रुआँसा हो के आया था मेरे पास। जब पेट भर गया तो अच्छे दिन आयेंगे कह कर चला गया और तब से आज आया है।'

फकीर ने कुछ बोलना चाहा... 'वो मैं....।'

बुढ़िया अपनी रौ में थी, ....'अब रहने दे झूठ बोलना। तेरे अच्छे दिनों के चक्कर में मेरे घर के बर्तन भांडे तक बिक गये। पता नहीं तूने क्या क्या बंद करा दिया। नोट, दुकान, गाड़ी, नौकरी, खाना पीना सब कुछ। पूरा गाँव उजड़ गया। अबकी खाना खिलाऊंगी तो पता नहीं मेरा सांस लेना ही बंद न करा दे।'

फकीर, 'अरे माई सुन तो ले...'

'अब क्या सुनाएगा तू....हैं। अपनी ही मन की बात कहते रहियो। हमरी ना सुनियो बस। मन तो करता है चूल्हे की लकड़ी का धुंआ तेरी आँखों में डाल दूं पर क्या करूं कपड़े जो फकीरों वाले पहने हैं। पर मुझे तो तू इन कपड़ों में पूरा रावण लागे है जंगल वाला....' बुढ़िया जैसे बौरा सी गयी थी।

फकीर, 'लेकिन माई मैं तो पहली बार तेरे पास आया हूँ। मैंने कोई धोखा नहीं दिया। तू कहती है तो मैं तेरी चौखट से भूखा ही प्रस्थान कर जाता हूँ। लेकिन बता रहा हूँ वो कोई और था जो तुझे बेवकूफ़ बना कर प्रस्थान कर गया।'

बुढ़िया झल्ला कर बोली, 'करमजले मुझे बेवकूफ़ बता रहा है। वही ट्रिम की हुई सफेद दाढ़ी, वही कुटिल मुस्कान, वही इस्तरी किये हुए डिजाइनर भगवा वस्त्र, वही भीख का चमकता कटोरा और झोले में वही झूठे वायदे। मेरी आँखों में भले ही दो साल से मोतियाबिंद उतर गया हो लेकिन तेरी शक्ल मैं आज तक नहीं भूली। खबरदार जो अब कभी मेरा दरवाज़ा खटखटाया तो। चल भाग यहां से....'

फकीर ने अपनी बेतरतीब दाढ़ी पर कांपता हाथ फेरा। फटे पुराने कपड़ों पर पड़ी धूल को झाड़ा और लड़खड़ाते हुए लौटने लगा। किसी ने फकीर बन कर उससे फकीरी करने का हक भी छीन लिया था। इंसानियत भी न जाने कहाँ प्रस्थान कर गयी कि माई ने उसकी बात तक नहीं मानी। क्या कोई इस हद तक भी किसी का विश्वास तोड़ सकता है क्या। अपनी आख़िरी उम्मीद से नाउम्मीद हो वो फकीर अपना झोला उठाये उदास मन से न जाने किस दिशा में बढ़ चला। ऊपर भगवा से आसमान में फैलती लाली बता रही थी कि सूरज तेजी के साथ अपने प्रस्थान बिंदु की ओर बढ़ रहा है।

- भूपेश पंत

वो है डॉन!

कुछ फेरबदल के साथ रिलीज हुई डॉन सीरीज की इस नयी फिल्म की संवाद अदायगी, गीत संगीत और एक्शन आज भी ब्लॉक ब्लस्टर है। आज भी डॉन को समझ पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है जैसे डायलॉग पर दर्शक तालियाँ पीट पीट कर पागल हो रहे हैं। वो आज भी देखने में सफेदपोश है। बड़े बड़े जहाजों में विदेश घूमता है। वो एक जगह पर और अपने कहे पर बहुत देर नहीं रुकता। वो आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता लेकिन खुद बहुत फेंकता है। उसके फेंके हुए शब्द उन विरोधियों के कानों में पिघले शीशे की तरह टपकते हैं जिन्हें अपने दिमाग़ पर बहुत भरोसा है। जो लोग दर्द से चिल्लाते भी हैं उन्हें वो पुलिस का कुत्ता बता कर गोली मरवा देता है। आज भी कई देशों में पुलिस उसके द्वारा भगाये गये लोगों को ढूँढ रही है। उसके भीतर उस जैसा जो मर चुका है उसका पता किसी को नहीं है। लिहाज़ा उसे आज भी डबल रोल का फायदा उठा कर कानून और दर्शकों को चकमा देना आता है। अपनी अय्यारी के दम पर वो अलग अलग मौकों पर अपने बयान और हाव भाव बखूबी बदल सकता है। आज भी पूरे गैंग में उसका दाहिना हाथ एक ही है। हालाँकि वो आज भी किसी पर भरोसा नहीं करता। उसके गैंग के सड़क छाप गुंडे अब समाज में सम्मानित हैं और बदले में उसके खिलाफ़ उठने वाली हर आवाज का टेंटुआ दबा देते हैं। उन्हें केवल आदेश का पालन करना धर्म की घुट्टी में पिलाया गया है। इस बार उसे मामूली से डॉन बनाने वाला खुद सीन से नदारद है और नया वरधान सब जानते हुए भी उसके अभिनय पर हैरान है। आक्रामकता में ही बचाव है और इसलिए वो भी अपने दुश्मन को संभलने का मौका नहीं देता। जो लोग उसकी असलियत बता कर उसे पकड़वा सकते हैं उन्हें वो पहले ही काला चोर साबित कर चुका है। अब देश की पुलिस और जनता काले चोरों के पीछे पड़ी है और डॉन क्योटो जैसी जगमगाहट के बीच मजे में बनारसी पान खाइके छोरा गंगा किनारे वाला पर कूल्हे मटका रहा है।

- भूपेश पंत

कबूतरखाना!

कभी कबूतरों को देखा है
गर्वीली गरदन लेकर
अपने आप से गुटरियाते
दाने चुगते
अपनी धुन में मग्न
किसी की याद दिलाते
ये कबूतर
उनकी अकड़
और
खिड़कियों से आती
बकर बकर की
आवाज़
बहुमंजिला इमारतों के किसी
दड़बे में
आपको रात दिन
चैन से रहने नहीं देती
ये झुंड में रहते हैं
गंदगी फैलाते हैं
उनकी सतत गुर्राहट में
किसी अनजानी बिल्ली का ख़ौफ़ है
और
एक चेतावनी भी
कभी
वो क़ासिद बन कर
प्यार मुहब्बत
के
संदेश पहुंचाते थे
आज उसके अंतर्जालीय रूप
के सहारे
नफ़रत के पर्चे बांटे जाते हैं

एक दिन
मेरा भी सामना हुआ
एक कबूतर से
जो गलती से आ फंसा
घर के एक कमरे में
उसे लगा
मैं उसे नुकसान पहुंचाना चाहता हूँ
लेकिन
मैं तो कमरे के कीमती सामान को
उसकी फड़फड़ाहट से
बचाने के लिये
बस बाहर निकालना चाहता था
वो कई बार
मुझ पर झपटा
ख़ौफ़ में
कोई भी ऐसा ही करता
लेकिन
वो तो मुझ पर
बीट करके भाग गया

मेरी कबूतरों से
कोई
व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है
वो निश्चित ही
होते हैं
शांत, सरल और गंभीर
इस तरह से सतर्क
जैसे हर पल सता रहा हो
मौत का भय उन्हें
सच तो ये है
कि
इसके लिये
वो इंसान ज़िम्मेदार हैं
जिन्होंने मुझे
ये राय बनाने पर मज़बूर किया
कि
इंसानी कबूतरखाने के
आसमान में उड़ता
हर कबूतर
शांतिदूत नहीं होता।

- भूपेश पंत

एकल अभिनय!

वो नेता है
वो ही अभिनेता है
वो पक्ष है
और
वो ही विपक्ष है
वो अकेले ही सुनता है
वो अकेले ही बोलता है
उसे अकेला होना
इतना पसंद है
कि
वो जा बैठा है
सत्ता के शीर्ष पर
अब वो ही जनता है
और
वो ही शासक
इस रंगमंच पर
उसका
अकेला होना जरूरी है
और
तालियां बजाना
दर्शकों की
विकल्पहीन मजबूरी है
वो हमेशा से चाहता था
अकेला हो कर
अपनी ताकत का
अहसास करना
इसलिए
अपनी पटकथा में
वो
अपने खिलाफ़ भी
अपनी पसंद से ही चुनता है
किरदार
और
भरोसा दिलाता है
कि
जन्मा है वही एक
अवतार
करने सबका उद्धार
वो चाहता है
एक डर
एक सुर
एक उन्माद
एक मौका
एक पार्टी
एक फूल
एक पेड़
एक रंग
एक धर्म
और
एक सत्ता
वो इसे ही
कहता है एकता
वो
एक की इच्छा से
पूरी जनता को हाँक कर
बहुदलीय लोकतंत्र को
बनाना चाहता है
एकाकार
कई पात्रों से होकर गुजरता
उसका एकल अभिनय
अकसर
कर जाता है
भावनाओं की सीमा पार
और
देर तक
तालियों की गड़गड़ाहट
से गूंजता सभागार
बता देता है उसे
कि
दशकों से अंधे, बहरे
और
मूक दर्शकों को
आज भी
सेवक की नहीं
एक अदद
तानाशाह की है
दरकार
तो बोलो, अबकी बार....!

- भूपेश पंत

हलचल होगी!

खुद सवाल बनेगी खुद ही हल होगी
तुझको लिख डालूंगा तो गज़ल होगी।

उम्मीदों के दिये तुम जला कर रखना
झोपड़ी भी कभी देखना महल होगी।

चाहे लाख तोड़ लें वो जहां के आइने
आईना इक रोज उनकी शकल होगी।

जानती ही होगी वो मेरे मन की बात
सरकार है थोड़े ही कम अकल होगी।

पा लिया है जो ऊँचा सियासी मुकाम
तेरी भी हर एक बात बस छल होगी।

सबको पीस देगी ये वक़्त की चक्की
इस रात की भी तो सुबह कल होगी।

आयेंगे तो मांगना जुमलों का हिसाब
इस बहाने ही एक नयी पहल होगी।

बांध कर परिंदों के पर ये कहा उसने
उड़ने से फ़िज़ाओं में हलचल होगी।

किस रास्ते पर जाएगी ये नयी पीढ़ी
इंसानियत की राह जो ओझल होगी।

लिखूंगा तभी किसी के गेसुओं पे जो
मुश्किलात वतन की सारी हल होगी।

- भूपेश पंत