सोमवार, 31 दिसंबर 2018

नव वर्ष में कदम बढ़ाएं

तारीखें बदलती हैं
हर रोज
फिर एक दिन
पूरा साल बीत कर
इतिहास में हो जाता है
दर्ज
आओ देखें
कितना बचा
और कितना चुकाया
इंसानियत का
कर्ज

इससे पहले कि
लोकतंत्र का
पांच वर्षीय महापर्व
हम सब मनाएं
इतिहास के इन पन्नों को
पलटाएं
सदियों पहले नहीं
सिर्फ
पांच साल पीछे जाएं


कितनी
मिली सुविधाएं
खत्म हुईं
कितनी दुविधाएं
बचीं या फिर
मर गयीं संवेदनाएं

इससे पहले
कि
इसके या
उसके पक्ष में नारे लगाएं
तय करें
काले धन के नाम
पर कहीं
मन काले न हो जाएं

बेटों को पढ़ाएं
कि
बेटियां कैसे बचायें
खत्म हों
कैसे समाज से
पुरुषत्व की क्रूर दासताएं

खेत खलिहानों में
पसीने की तरह
खून टपकाते
हाथों से
दो जून रोटी खाएं
तो कभी
शांत पहाड़ी वादियों में
अपने हक़ के
लिये
गला फाड़ कर चिल्लाएं

एक दूसरे पर
थोड़ा हंसें
और थोड़ा अपनी
आत्म मुग्धता को हंसाएं
बदल जाएं
चाहे कितनी सत्ताएं
उस पर
बेधड़क बोली का
अंकुश लगाएं

चलो!
इस साल को
लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का
साल बनायें
नये साल में नये अंदाज़ में
मिल कर कदम बढ़ाएं।

आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।

रविवार, 30 दिसंबर 2018

सच बेचिये, खुद को नहीं!

भूपेश पंत

सार्थक पत्रकारिता के मकसद से निकलने वाली चुनिंदा पत्र-पत्रिकाओं, चैनलों या वेबसाइट्स के शुभचिंतकों में तकरीबन हर उम्र, तबके और सामाजिक परिवेश के लोग होते हैं, लेकिन उनकी चिंता आश्चर्यजनक रूप से समान है। ये लोग मानते हैं कि सच लिखना और बोलना धीरे धीरे और मुश्किल होता जा रहा है। इन हालात में भी कुछ लोग वही सच लिख बोल रहे हैं जो जन भावनाओं से जुड़ा है। लेकिन उनकी चिंता सच बोलने को लेकर नहीं सच के ज़िंदा रहने को लेकर है। इन सबका सोचना यही है कि जो लोग सच को सामने लाने की हिम्मत कर रहे हैं वो ऐसा कब तक कर पाएंगे। इन चिंताओं के पीछे दरअसल एक ही सूत्र वाक्य है कि सच सुनना और पढ़ना अच्छा तो लगता है लेकिन सच बिकता नहीं।

कुछ लोग इस परंपरागत विचार से ज़रूर आंख मूंद कर सहमत होंगे लेकिन मुझे लगता है कि सच को बेचने पर पाबंदी लगाने वाली इस सोच ने दरअसल सच को हराने का ही काम किया है। सच को अगर लिखा-पढ़ा जा सकता है, बोला-सुना जा सकता है, पसंद किया जा सकता है तो फिर सच को बेचा क्यों नहीं जा सकता। इसी सोच ने लोगों में ये धारणा बनायी है कि सच लिख-बोल कर कुछ हासिल नहीं हो सकता। कहीं संस्कारों के नाम पर ये सच के खिलाफ कोई साज़िश तो नहीं है?  वैसे भी पत्रकारिता को सदा से ही सच को सामने लाने वाले औज़ार के तौर पर देखा गया है। सच लिखने और दिखाने का दावा करने वाले मीडिया संस्थान भी तो दरअसल सच को बेचने की दुकानें ही हैं। ये कतई ज़रूरी नहीं कि सच बिकाऊ बन कर अपना अस्तित्व खो दे। लोग अगर सच जानना चाहते हैं तो उन्हें उसकी कीमत तो चुकानी ही चाहिये। सच को बिकाऊ बनाने का मकसद समाज में सच की सत्ता को स्थापित करना होना चाहिये ताकि जीवन के हर क्षेत्र में लोग सच से जुड़ने का साहस कर सकें। सच को गरीब बना कर ये काम नहीं हो सकता। लेकिन इस बात का ध्यान रखना होगा कि सच को बेचने के नाम पर उसे बाजारू ना बनने दिया जाये। सच तभी बाजारू बनेगा जब उसे लिखने और बोलने वाले खुद बिकाऊ हो जायें। दुर्भाग्य से आज हो यही रहा है। सच के नाम पर कलम बेची जा रही है। सियासत से लेकर मीडिया तक फैली कारोबारी ताकतों को भी सच की ताकत का अहसास है। सरकारें चाहती तो नहीं लेकिन मानती ज़रूर हैं कि लोगों को सच जानने का अधिकार है। सूचना का अधिकार इसी वजह से अस्तित्व में आया। सच के ही नाम पर कई चैनल और पत्र पत्रिकाएं मौजूदा दौर में झूठ की फसल उगा रही हैं। सच का मुलम्मा लगा कर उसे लोगों के सामने परोस कर खूब मुनाफा भी कमाया जा रहा है। लेकिन सच आज भी उतना ही निरीह और मजबूर है जितना पहले था। सच बोलने वाली आवाज़ें या तो सत्ता के दमन चक्र के आगे घुटने टेक देती हैं या फिर उन्हें बड़ी ही चालाकी से खामोश कर दिया जाता है। ये लोग संस्कारों के नाम पर सच को बिकाऊ नहीं बनने देते और उसी की आड़ में झूठ के कारोबार का रास्ता साफ करते हैं। बिल्कुल उसी तरह जैसे धर्म के तथाकथित ठेकेदार भगवान की आड़ में अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं। आधा सच तो झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है क्योंकि उसकी वजह से कोई द्रोणाचार्य निहत्था करके मारा जा सकता है।

सच को ज़िंदा रखने की ज़िम्मेदारी सिर्फ सच लिखने और बोलने वालों की ही नहीं है। सच सुन कर ताली बजाने से ही काम नहीं चलेगा। सच को किसी तमाशे की तरह देखने की बजाय उसे जीवन का अभिन्न अंग बनाना होगा। सच सुनना, पढ़ना और जानना पसंद करने वालों को उसे बचाने के लिए भी आगे आना होगा। सियासत और पत्रकारिता समेत जीवन के हर पहलू में सकारात्मक बदलाव के लिये सच की प्राण प्रतिष्ठा किया जाना बहुत ज़रूरी है।
(राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस पर विशेष) 

बूढ़ी उम्मीदों का जवान राज्य है उत्तराखंड

भूपेश पंत

लड़ भिड़ कर पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के लोगों ने नौ नवंबर 2000 में अलग राज्य की अपनी मांग मनवा ही ली। इस मांग को लेकर हुए जनांदोलन को चौबीस साल बीत गये और राज्य मिले अठारह साल। यूपी के पर्वतीय इलाके की उपेक्षा और योजनाओं में पहाड़ की अनदेखी के आक्रोश से जन्मा था पृथक पर्वतीय राज्य का ये जनांदोलन। हर क्षेत्र में पिछड़े इस पर्वतीय इलाके के लोगों का गुस्सा भड़काने का काम किया आरक्षण के मुद्दे ने। लोग आरक्षण के विरोधी नहीं थे लेकिन भौगोलिक आधार पर अपने पिछड़े होने के बावजूद जातीय आधार पर अवसरों में कटौती का अहसास उन्हें सड़कों पर उतार लाया और देखते देखते ये आंदोलन अलग राज्य की मांग में तब्दील हो गया।
क्या छात्र, क्या महिलाएं, क्या कर्मचारी और क्या कारोबारी, अपने अस्तित्व को बचाने की इस जद्दोजहद में हर कोई भागीदार था। राजनीतिक दलों ने आंदोलन की आंच में सियासी रोटियां सेंकनी शुरू कीं लेकिन जनता के इस आंदोलन की कमान ना तो कोई सियासी दल अपने हाथ में ले पाया और ना ही कोई नेता। तत्कालीन यूपी सरकार का दमनचक्र भी चरम पर था। खटीमा, मसूरी, नैनीताल, मुजफ्फरनगर से लेकर दिल्ली तक खून के छींटे भी उड़े और आंदोलन की तपिश भी महसूस की गयी। सड़कों पर उतरा हर व्यक्ति अलग राज्य के निर्माण में अपनी भागीदारी निभा रहा था। भागीदार वो भी थे जो अपने घरों, मोहल्लों और गांवों में पुलिसिया गिरफ्त से बच कर पहुंचे अनजाने चेहरों को छत और खाना मुहैया करा रहे थे। भागीदार वो लोग भी थे जिन्होंने आंदोलन की कामयाबी की दुआएं मांगीं।
इस जन आंदोलन ने उत्तराखंड को बहुत कुछ दिया। अपमान, पीड़ा, शहादत, उत्पीड़न और बलात्कार की नींव पर उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ और साथ ही मिली आंदोलन से उपजे नेताओं की नयी फौज। ये वो लोग थे जिनमें उत्तराखंड राज्य को लेकर भावनाओं का ज्वार था, कुछ सपने थे और व्यवस्था के प्रति एक आक्रोश था। सियासत में अधपके ये लोग सियासी दलों के खांटी नेताओं के लिये बहुत बड़ा खतरा थे जो नये राज्य के निर्माण में अपने लिये नयी संभावनाएं तलाश रहे थे। यही वजह रही कि जो नेता जन आंदोलन की अगुवाई तक नहीं कर पाये वही नये राज्य की सियासत के सबसे बड़े सूबेदार बन कर अगली पंक्ति में जा खड़े हुए।
नेताओं और नौकरशाहों के चमकते चेहरे अपनी सियासी और माली हालत में सुधार की पूरी गुंजाइश देख रहे थे। खतरा था तो बस उन नौजवानों और जागरूक बुद्धिजीवियों से, जो अपने सपनों के नये राज्य में पहाड़ के सुलगते सवालों का हल तलाश रहे थे। बस यहीं से शुरू हुई आंदोलन में भागीदारी के रिटर्न गिफ्ट बांटने की सियासत। नवोदित पर्वतीय राज्य के सियासी आकाओं ने आंदोलन से जुड़े लोगों को सहूलियतों, रियायतों, प्रमाणपत्रों और नौकरियों का झुनझुना दिखाना शुरू किया। ये वो सियासी दांव था जो और किसी भी दूसरे नवोदित राज्य में इस तरह नहीं चला गया। लोगों को भी लगा कि अगर सरकार उनके त्याग और बलिदान की कीमत चुका रही है तो इसमें बुरा क्या है। आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण के नाम पर लोगों को खेमों में बांट दिया गया।
आंदोलन के दौरान मारे गये शहीदों के नाम पर स्मारक बना कर औपचारिकता पूरी कर दी गयी। सोचा ये जाना था कि नये राज्य के पुराने मुद्दों का हल कैसे मिले, पहाड़ की दुश्वारियां कैसे दूर हों और विकास के सपनों को कैसे साकार किया जाये। लेकिन सियासी साजिश का शिकार होकर आंदोलन की कोख से जन्मे आंदोलनकारी अपनी ऊर्जा इस बात पर खर्च करने लगे कि आंदोलन में भागीदारी की ज्यादा से ज्यादा कीमत उन्हें कैसे मिले और दूसरों को कैसे नहीं। पहाड़ के वास्तविक मुद्दों को पेंशन की रकम, चिह्नीकरण में आ रही दिक्कत, सम्मान पाने की होड़ और रियायतों की झड़ी से ढक दिया गया। जुझारू लोगों को सुविधाभोगी बनाने की साजिश रची गयी।
वो आंदोलनकारी जो नये राज्य के बेहतर निर्माण में नींव के पत्थर बन सकते थे उन्हें एक ऐसे ढांचे के कंगूरे बना कर सजा दिया गया जिसकी नींव में भ्रष्टाचार, ऐय्याशी, अपराध, शराब माफिया, खनन माफिया और भू माफिया जैसी दीमकें आज भी रेंग रही हैं। सियासी दलों को अपने इस दांव से राहत भी मिली और रोजगार भी। कुछ आंदोलनकारी आज भी स्थायी राजधानी गैरसैंण समेत राज्य के तमाम अनसुलझे मुद्दों को लेकर छिटपुट लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन स्वार्थों की सियासत न तो उन्हें एकजुट होने दे रही है और न ही मजबूत। राज्य आंदोलनकारियों के नाम पर हो रही सियासत का ये एक ऐसा भद्दा चेहरा है जो लोगों के त्याग और कुर्बानियों को सरकारी पलड़े में तोल कर उसकी बोली लगा रहा है। हैरानी की बात तो ये है कि सियासत के इस मकड़जाल में फंसे लोग खुद आगे बढ़ चढ़ कर अपनी बोली लगा रहे हैं। जैसे कि वो आंदोलन में कूदे ही थे ये सब पाने के लिये।
बीते अठारह सालों में उत्तराखंड तो जवान हो गया लेकिन लोगों की उम्मीदें बुढ़ाती चली गयीं। राज्य में हाईकमान संस्कृति से संचालित राष्ट्रीय दलों की सरकारें विकास को उन सुदूर पहाड़ी इलाकों तक चढ़ाने में नाकाम रहीं जिनके लिये ही वास्तव में राज्य का गठन किया गया था। ये सरकारें कभी नौकरशाहों की मनमर्जी का रोना रोती नज़र आती हैं तो कभी गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का मुद्दा गरमाती हैं। पलायन के कारण वीरान होते गांव हों या आपदा राहत के नाम पर बंदरबांट, शिक्षा-स्वास्थ्य और पेयजल से जुड़े मसले हों या पहाड़ से जुड़ी लोकलुभावन घोषणाएं सरकार और विपक्ष के रूप में ये राष्ट्रीय दल आपस में नूराकुश्ती ही करते नज़र आते हैं।
पहाड़ की जनता को इस मामले में प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल से भी निराश ही हाथ लगी है। पार्टी के इक्का दुक्का विधायक अपनी सुविधा से सरकारों की गोद में जा बैठते हैं और संगठन के पांव तले जैसे ज़मीन ही गायब है। गुटों में बंट कर अपनी पहचान खो चुकी यूकेडी अगर पहाड़ की जनता के मुद्दों को आक्रामकता से उठाती तो शायद उनके दिलों में कुछ जगह भी बना पाती। लेकिन खुद को बचाने की कशमकश में ही उलझी ये क्षेत्रीय पार्टी कभी इन मुद्दों की तरफ पूरे जोश के साथ लौट भी पाएगी ऐसी उम्मीद करना फिलहाल बेमानी लगता है।
पहाड़ की अस्मिता के संघर्ष में जुटे छोटे छोटे राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठन स्थानीय स्तर पर इन समस्याओं के लिये संघर्ष जरूर कर रहे हैं लेकिन उन्हें एक सूत्र में पिरो सके ऐसी कोई राजनीतिक शक्ति उभर पाएगी इसे लेकर भी संदेह बना हुआ है। पहाड़ के इस तरह बंटे होने का सियासी लाभ हमेशा की तरह कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी उठाती आयी हैं। सच तो ये है कि अपने जन्म के साथ ही उत्तराखंड शहीदों और आंदोलनकारियों के सपने का राज्य नहीं बन पाया है।
वो तो बस भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों की चारागाह बन कर रह गया है। यानी जो जनांदोलन चौबीस साल पहले हालात में बदलाव के जिन सपनों के साथ शुरू हुआ था वो लक्ष्य अब तक अधूरा है। ये एक जनांदोलन और उससे जुड़े सपनों की मौत नहीं तो और क्या है? सच तो ये है कि पिछले अठारह सालों से हम अपनी ही उम्मीदों की लाश समारोह पूर्वक ढो रहे हैं और सरकारें हर साल इसी बात का उत्सव मनाती हैं।
 09/11/2018

शौक़!

न यहाँ का शौक़ है न ये वहाँ का शौक़ है
ये वहशत की सियासत कहाँ का शौक़ है।

क्यों खफ़ा हैं मेरे शौक़े तसव्वुर से इतना
उन्हें भी तो सुना है सारे जहाँ का शौक़ है।

पहाड़ी पर फिर से मंडरा रहा है एक बाज
ऊंचाई से शिकार पर झपटने का शौक़ है।

गिरगिट को भी इतना ये हुनर नहीं आता
नेता को जितना सूट बदलने का शौक़ है।

धोते हैं बाद क़त्ल के वो हाथ और खंजर
क़ातिलों से वाबस्ता सफ़ायी का शौक़ है।

एक के कुसूर पे पूरी क्लास ने पायी सज़ा
मास्साब को लाइन में पिटाई का शौक़ है।

उनका दावा है कि शौक पान का भी नहीं
जिन्हें ईमान की सुपारी चबाने का शौक़ है।

ज़माने के दर्द से छलनी हो चुका है सीना
ख़ुदा जाने हमें ये किस ज़माने का शौक़ है।

जो रो रहे हैं तुम्हारे आगे यों फूट फूट कर
उनकी हरेक अदा फूट डालने का शौक़ है।

हर बात पे तुम्हारी कर लेते हैं हम भरोसा
क्या सांप आस्तीन के पालने का शौक़ है।

- भूपेश पंत

और.. उल्लू बना अपना !

भूपेश पंत

इसी तरह वो भी दीवाली की एक रात थी। बच्चों के साथ मुहल्ले में ग्रीन पटाखे जला कर पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाने की शांति से मन ओत प्रोत था। ज्यादातर पटाखे बच्चों ने मुँह से अजीब अजीब आवाज़ निकाल कर फोड़े। जिस बच्चे ने जितनी अच्छी आवाज़ का प्रदर्शन किया उसे मैंने मन ही मन पुलिस अधिकारी या नेता बनने का आशीर्वाद दिया और घर आ गया।

घर के चारों ओर रोशनी उतनी ही थी जितनी जेब के लिये मुनासिब थी। लिहाज़ा मालाओं  से ज्यादा दीयों और मोमबत्ती की रोशनी पर भरोसा किया गया था। बीबी सज संवर कर तरह तरह के पकवान और फल सजाये लक्ष्मी माता की तस्वीर के आगे बैठी थी। उसे बताया गया था कि पैसा ही पैसे को खींचता है इसलिये खून पसीने की सारी कमाई एक छोटी सी पोटली की शक्ल में सामने धरी थी। चंचल लक्ष्मी को साधने की उसकी इस मासूम सी कोशिश को माता के पांव के पास बैठे उलूक राज घूर रहे थे। बीबी की इस निस्वार्थ पूजा को देख कर मुझे अच्छे दिनों की तरह ही ये यकीन होने लगा था कि आज माता लक्ष्मी मुझ आम इंसान के घर पर जरूर पधारेंगी।

दिमाग़ में अचानक घुस आये इस वहम पर भरोसा करके मैंने घर की खिड़की खोल दी। ठंडी हवा भीतर तक काटने लगी पर सोचा क्या पता माता लक्ष्मी रात के बारह बजे दरवाज़ा खटखटाने में संकोच करें। मैंने रजाई उठा कर खिड़की के पास पड़े तख्त पर ही उनका इंतज़ार करने का फैसला किया। मेरी आँख कभी खिड़की पर जाती और कभी दीवार घड़ी पर। ये सिलसिला शायद बारह बजने से एक दो मिनट पहले तक चलता रहा। मेरे कान अच्छे दिनों की आहट सुनने को बेताब थे और मन जुमलों से खेल रहा था।




अचानक खिड़की पर किसी पक्षी के पंख फड़फड़ाने जैसी आहट हुई। मुझे एकबारगी लगा कि कहीं कोई चोर तो नहीं लेकिन जब मैंने अपने सामने रोशनी के एक पुंज को माता लक्ष्मी के वाहन उल्लू में बदलते देखा तो मेरी हैरानी की सीमा ही नहीं रही। उलूक शिरोमणि को साक्षात सामने देख कर मन भाव विभोर होने ही वाला था कि मेरे दिमाग़ ने उसे पॉज कर दिया। अरे ये तो सिर्फ गाड़ी है इसका मालिक कहां है। मतलब लक्ष्मी माता इनके ऊपर बैठी क्यों नहीं हैं ये तो पूछ।

मैंने उल्लुओं के ह्रदय सम्राट को सादर प्रणाम कर पूछा कि अच्छे दिनों की तरह माता लक्ष्मी भी आपके ऊपर से अंतर्धान क्यों हो गयीं। आपके होते हुए कहीं वो पैदल तो नहीं हो गयीं। उल्लू महाराज ने अपनी चिर परिचित घुर्रन आंखों में वात्सल्य लाने की नाकाम कोशिश करते हुए चोंच खोली। वत्स मैं तो स्वभाव से फकीर हूँ और मुझमें लक्ष्मी को लेकर कोई अनुराग या विराग नहीं है। माता मेरी सवारी करें या न करें पर उन्हें उनकी मंजिल तक मैं ही पहुंचाता हूँ। ये कह कर उल्लू शिरोमणि ने गर्व से अपनी गर्दन तीन सौ साठ डिग्री घुमा दी। उनके पास दिखाने को शायद यही एक डिग्री थी।

मैंने पूछा, महाराज निश्चित तौर पर आपने जब उड़ान भरी होगी तो माता लक्ष्मी आपके ऊपर ही सवार रही होंगी। लेकिन अब वो वहां नहीं हैं। इसलिये कृपा करके अपनी उड़ान के बाद का पूरा वृत्तांत सुनाने की कृपा करें।

उलूक महाराज अपनी वाह वाह करने की मुद्रा से बाहर निकले और बोले, वत्स माता लक्ष्मी के कई प्रतिरूप इस वक्त उस जगमगाहट का हिस्सा बन चुके हैं जहां के लिये वो बने थे।

मैंने कहा, अरे वो माता हैं कोई एनपीए नहीं कि उन्हें किसी के लिये बनाया गया हो। लगता है उन्हें मार्ग से भटकाने में आपका ही हाथ है।

उलूक महाराज ने पहले अपनी प्रकृति प्रदत्त कर्कश आवाज से मुझे मित्रवत संबोधित किया फिर बोले, तुम्हें मालूम है कि माता लक्ष्मी को लोग रोशनी में नहीं रखते इसलिये वो जब भी जगमगाहट देखती हैं उसी में खोकर रह जाती हैं। वैसे जगमगाहट तो तुम्हारे यहां भी है लेकिन कई कोने अभी भी अंधेरे में हैं। और मुझे ये अंधेरे पसंद हैं। मैं अगर माता को तुम्हारे घर में प्रेम, भाईचारा, आपसी विश्वास और ईमानदारी के दीयों की जगमगाहट दिखा देता तो वो यहीं रुक जाती। फिर वो यहां पर अशिक्षा, अज्ञानता, बीमारी, लाचारी, भुखमरी और पिछड़ेपन के अंधेरे कोनों को भी रहने नहीं देतीं। इसलिये मैंने अपनी उड़ान का वही रास्ता चुना जो बड़ी बड़ी आलीशान इमारतों से होकर जाता है। ताकि वहां की शानोशौकत माता लक्ष्मी को वहां ठहरने पर मजबूर कर दे।

तो क्या माता लक्ष्मी मेरे भाग्य में नहीं, मैं बोल पड़ा।

उलूक राज ने गंभीर होते हुए कहा, देखो वत्स। एक गोपनीय बात बताता हूँ। अव्वल तो इसे किसी से कहना नहीं क्योंकि लोगों में इतनी समझ भी नहीं। फिर भी जरूरी हुआ तो मुझे क्रेडिट देना मत भूलना। बुद्धिमान लोगों को अति बुद्धिमान नेतृत्व मिलता है जबकि मूर्खों को महामूर्ख नेतृत्व मिलता है। तुम्हारे भाग्य में जो तुमने लिखा वही तुमको मिला है, यानी मैं। माता लक्ष्मी को भूल जाओ और वही करो जो एक उल्लू के राज में तुम्हें करना चाहिए।

इतना कह कर उल्लू शिरोमणि एक बार फिर उड़ गये। मैंने पाया कि बीबी इस दीवाली की मेहनत भी बेकार जाने पर फिर से मुझे कोसने लगी थी और मैं हर बार की तरह फिर से उसे काठ के उल्लू की तरह देख रहा था। पार्श्व में कहीं कोई माता गा रही थी।

मैं क्या करूं राम मुझे उल्लू मिल गया...!

तेरा नाना मेरा नाना

गप्पू : (लोगों से घिरा हुआ) मित्रों! देखो देखो मेरे नानाजी की तस्वीर। आज मैं आपको मिलाने जा रहा हूँ अपने नानाजी से जिन्होंने इस शहर के लिये बहुत कुछ किया। उस वक्त भी जब हम लोग कुछ नहीं कर रहे थे। आज हमने अपने परिवार के खोये गौरव को फिर से पा लिया है।

(लोग वाह वाह करते हुए तालियां बजा रहे हैं)

पप्पू : अरे इतनी भीड़ क्यों लगी है। कोई तमाशे वाला आया है क्या..

गप्पू : (भीड़ के बीच से मुंडी बाहर निकाल कर) इधर आओ और ये देखो मेरे नानाजी की तस्वीर। तुम बड़ा कहते थे ना कि हमारे परिवार का इस शहर को बसाने में कोई योगदान नहीं है। देख लो मेरे नानाजी इस शहर के बसाने वालों में से एक थे।

पप्पू : (चश्मा लगा कर हैरान होते हुए)  अरे क्या गजब करते हो यार...  ये तो मेरे नानाजी के भाई हैं। अक्सर हमारे साथ ही रहते थे और मेरे पास भी इनकी तस्वीर है.. (जेब से तस्वीर निकालते हुए) ये देखो मेरे दोनों नानाजी।

गप्पू : ऐसे कैसे... अगर ये तुम्हारे नानाजी थे तो आजकल तुमने इनकी भव्य तस्वीर क्यों नहीं बनायी। तुमने इनके नाम का ढोल क्यों नहीं पीटा। ये तुम्हारी जेब से निकली पुरानी श्वेत श्याम तस्वीर इस बात का प्रमाण है कि तुम्हारे परिवार ने उनकी उपेक्षा की और वो तुम्हारे नाना नहीं थे। वो मेरे मुहल्ले के थे और मैंने उनकी इसी तस्वीर को रंगीन और बड़ा बना कर चायनीज फ्रेम में सजाया है। मैंने और सिर्फ मैंने ही उनकी तस्वीर पर इतना खर्च किया है इसलिए अब ये तस्वीर और नानाजी दोनों मेरे हुए। बजाओ ताली।

(पप्पू सिर पीट रहा है और लोग वाह वाह कर फिर से ताली बजाने लगे हैं।)

- भूपेश पंत

एक्सचेंज ऑफर

गप्पू : देखा मैं कुछ भी कर सकता हूँ क्योंकि मेरे पास बहुमत है, सबसे धनवान पार्टी है, कई राज्यों में सरकार है, भेड़ों की तरह सजी भक्तों की फौज है। तुम्हारे पास क्या है...

पप्पू : ज्यादा फेंकियो मत। मेरे पास मां है...देशप्रेम से ओतप्रोत पार्टी का इतिहास है, मेरे खानदान का नाम है... और ऐसा क्या कर दिया तुमने जो मैं नहीं कर सकता।

गप्पू : मैंने पार्टी को अपने दम पर कहां से कहां पहुंचा दिया।

पप्पू : तो कौन सा तीर मार दिया। मैंने भी तो पार्टी को कहां से कहां पहुंचा दिया।

गप्पू : अरे मैं तेरी ही पार्टी की बात कर रहा हूँ।

पप्पू : दूसरों का क्रेडिट अपने खाते में डालने की तुम्हारी आदत जाएगी नहीं।

गप्पू : तू देखता जा मैं किस किस से क्या क्या छीनता हूँ.. अपने महान नेता तक को तो बचा नहीं पाया जिन्हें मैंने मरणोपरांत अपनी पार्टी का अटूट हिस्सा बना दिया है। आने वाले वक्त में इतिहास उन्हें विशालकाय राज्यवादी पुतले और राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक के तौर पर याद करेगा। ऐसा करने वाला मैं पहला और शायद आखिरी व्यक्ति हूँ।

पप्पू : लेकिन बिना उनकी अनुमति के तुम ऐसा कर कैसे सकते हो जबकि वो जीवित भी नहीं ...

गप्पू : मैंने जहाँ से अनुमति लेनी थी ले ली। वैसे भी क्या उन्होंने या किसी ने भी पिछले सत्तर सालों में मुझसे अनुमति ली थी। वैसे भी मैं अपने अलावा किसी की नहीं सुनता। हां अगर तुम चाहो तो मेरे पास एक ऑफर है।

पप्पू : कैसा ऑफर..

गप्पू : एक्सचेंज ऑफर.. लौहपुरुष के बदले लौहपुरुष।

- भूपेश पंत

बुतों का समाज!

तुमने
एक बुत देखा
जो आकाश तक बड़ा था
न जाने कितने
बेशकीमती रत्नों से जड़ा था
हालाँकि
जिसका वो बुत था
उसका कद
मोहताज नहीं था इस बुत का
और
सरकारी अलंकारों का
लेकिन
जाने क्यों हुक्मरान अड़ा था
उस दिन मैंने देखा
पूरे देश में
आपराधिक खामोशी
के साथ
बुतों का समाज खड़ा था
जिनके कंधों पर
इस सबसे ऊँचे बुत के
खर्च का
बोझ पड़ा था।

- भूपेश पंत

शनिवार, 29 दिसंबर 2018

बेबस बुत!

ये कैसा वहम गोया उसके दिल में गड़ गया
बुत लगा कर ख़ुदाया मेरा कद भी बढ़ गया।

जंगल के सन्नाटे में गूंजी मीटू मीटू की चीख
सरकारी अमला दोष सारा तोते पे मढ़ गया।

मैंने तो बस दिलायी थी अच्छे दिनों की याद
मुँह बिचका के यार मेरा आगे को बढ़ गया।

एक दिन मुझे यहीं पर भक्तों से पुजवाना है
ये कह के वो मंदिर की चार सीढ़ी चढ़ गया।

सोचा न था ये दाग एक दिन तो नासूर बनेंगे
छोड़ दिया इनको तो पूरा फल ही सड़ गया।

लाया गया मजलिस में सुनाने जन की बात
वो शख़्स तो अपनी ही कहने पर अड़ गया।

कट कर धूल में मिल गयी ईमान की पतंग
पेंच उसका इस बार सियासत से लड़ गया।

उसने नहीं कही कभी अपने मन की बात
जब तक पता चला सब कुछ उजड़ गया।

खबरों में अब अपनी ही खबर नहीं होती
शायद अपना ही कोई चैनल बिगड़ गया।

बड़ा ढीठ निकला मौके पे सोता चौकीदार
मैंने उसे जगाया तो हत्थे से उखड़ गया।

- भूपेश पंत

मत आना बापू!

बापू!
तुम मत आना
फिर से
ये देखने कि
इतनी कुर्बानियों से मिली
आजादी का
क्या हाल कर दिया है
हमने
सत्तर सालों में
अपने ही लोगों की
दिमागी गुलामी के जरिये
किस तरह
सत्ता के उपभोग की
नयी इबारत
लिखी है
माना कि
हम नतमस्तक हैं
तुम्हारी तस्वीर के आगे
लेकिन
जब आकर देखोगे
समता मूलक समाज
का सपना
तो हम
अपना पुश्तैनी हक
सुई की नोक बराबर भी
किसी वंचित मेहनतकश से
बाँट नहीं पायेंगे
इसलिए
तुम्हारा दोबारा आना है
वर्तमान के लिये अप्रासंगिक
और
भविष्य के लिये
अराजकता का पैगाम
लिहाज़ा
अतीत जीवियों को
उनके हाल पर छोड़ देना
बेहतर होगा
इसलिये
हमारे बुलाने पर भी
मत आना
बदले में
हम अपने कर्मों से
तुम्हारी प्रासंगिकता
बनाये रखेंगे।

बापू!
आज तुम ज़िंदा होते
तो सबसे बड़े रामभक्त होते
चरखा चलाते, रामधुन गाते
तुम देखते कि
सीना छलनी होने के बाद
मुँह से निकली हे राम की ध्वनि
अब नये रूप में सत्ता की प्रतिध्वनि
बन चुकी है
हत्यारा अब राष्ट्रभक्त है
और
तुम केवल राष्ट्रपिता
तुम्हारे
राम राज्य के सपने
को अपने लोकतांत्रिक साम्राज्य
में
साकार करने के लिये
जोशीले राम भक्तों को
जन्म दिया है
हमने
जो
अहिंसा पर विश्वास नहीं करते
वो तुम्हारा आना
सह नहीं पाएंगे
इस बार भी
तुम्हारी अहिंसा की
लाठी से
बना लिये हैं
कई सत्ता पोषित डंडे
सिर भी बढ़ गये हैं अब
घुसपैठियों और बुद्धिजीवियों के
हमारी मुश्किल और बढ़ाने
मत आना।

बापू!
आज खुश तो
बहुत होते तुम
देख कर
कि तुम्हारा सफाई का संदेश
स्वच्छता के
नये मापदंड बना रहा है
हमने
तन मन और धन
तीनों को साफ करने की
योजना बना ली है
गंदगी अब दिखायी नहीं देती
होने के बाद भी
हमने गंदे नोट तक बदल दिये
हां लेकिन
तुम अब भी हो वहाँ
निश्छल मुस्कुराहट के साथ
तुम्हारे अपनों ने
इसी फोटो फ्रेम को
हर दफ्तर में लगा कर
भ्रष्टाचार को
गांधीवादी चेहरा दिया था
हमने ये स्वदेशी तस्वीर अब
निजी और विदेशी
कंपनियों की मदद से
चमका दी है
देश के चुनिंदा पूंजीपतियों को
अपने गांधीवाद का झंडा फहराने
विदेश तक भेज दिया है
नदियों का पानी
बैंकों की तिजोरियां
और
गरीब गुरबों के घरों के कोने तक
हमने साफ कर दिये हैं
आंकड़ों में
भरपूर
शौचालय दिये हैं
ये कहने में
हमें कोई संकोच नहीं
कि इस स्वच्छता की प्रेरणा
हमें
तुम्हारी तस्वीर से ही मिली।

बापू!
तुम सच की
कड़वाहट
और
हम सत्ता के
मोदक
तुम पथ के प्रदर्शक
तो
हम सफलता की मीनार
तुम सत्य के आग्रही
और
हम उसे रोज गढ़ने वाले
हमारा इंद्रजाल
अंतर्जाल के सहारे
सच को ही देशद्रोही
साबित करने में
जुटा है
तुम्हारा फिर से आना
सड़क पर
ले आयेगा हमें
इसी डर से
तुम्हारी आत्मा की शांति के लिये
रख दिये हैं कई रास्तों के
नाम
ताकि हम खादी पहन
छल सकें
और
गर्व से चल सकें
तुम्हारे पथ पर
बिना अपने किसी नुकसान के
हमने अपने इर्दगिर्द
बिखेर दी हैं तुम्हारी मुस्कुराती
तस्वीरें अनगिनत
कुछ सहेजने के लिये
तो कुछ
कुचले जाने के लिये
हम
तुम्हारे पुतलों पर हार
तब तक
चढ़ाते रहेंगे
जब तक तुम्हारे
फिर से
पैदा होने का डर
खत्म ना हो
जाये
या फिर ये दुनिया!

- भूपेश पंत

चौकीदार-3

(लघुकथा)

कम्बख्त आज फिर सुबह सुबह टकरा गया। मूड ठीक लग रहा था। हाथ माथे तक ले जा के बोला, साहब मेरी किसी बात का बुरा मत मानना लेकिन क्या करूं कभी कभी दिमाग घूम जाता है। वो क्या है न साहब ये देश की चौकीदारी के चक्कर में हमारा पेशा खामखां बदनाम हो रहा है। हमारे साथ के भी कई चौकीदार चोरों की मदद करते हैं और मोटा माल कमाते हैं। मैं भले ही उन्हें पसंद नहीं करता लेकिन उनमें एक खास बात ये है कि चोरों को चुनने में वो कोई भेदभाव नहीं करते। ऐसा नहीं करते कि ये चोर मेरे गाँव घर का है तो उसी के लिये काम करेंगे किसी और के लिये नहीं। जात बिरादरी नहीं देखते वो। मैंने महसूस किया कि अपने साथी चौकीदारों और चोरों की जुगलबंदी की इस खास बात को वो बड़े ही गर्व से बता रहा था। पता नहीं क्यों?

- भूपेश पंत

चौकीदार-2

 (लघुकथा)

बाज़ार जाने के लिये जैसे ही घर से निकला निगाह मेन गेट के पास ज़मीन पर बैठे चौकीदार पर गयी। माथे पर हाथ लगाये जैसे वो कुछ सोच रहा था। मैंने भी उसे नहीं टोका और कार की तरफ़ बढ़ गया। लेकिन उस नामुराद ने मुझे देखते ही सिर को झटका और छलांग मारता सामने खड़ा हो गया। मैंने उसके चेहरे पर सूचना, सवाल और सलाह तीनों एक साथ देखे। वो एक सांस में बोला, साहब जी ये जो हैं बड़े वाले, उन्होंने अपने सारे नाम च से ही रखे हैं। चाय वाला और चौकीदार। च से यही नाम मिले थे क्या? ये कोई ऐसा नाम क्यों नहीं ढूंढ लेते जिससे किसी को भी कोई दिक्कत महसूस न हो। मेरी नाराज़गी भांप कर उसने जाते जाते सफाई दी, साहब बहुत नाम होते हैं बाकी जैसी जिसकी सोच। मेरा इशारा किसी गलत शब्द की ओर नहीं है और न ही मैं अपनी पोस्ट तक पर किसी को गाली देने और मारपीट का समर्थन करता हूँ लेकिन बस वो चुनाव से पहले कोई नया नाम ढूँढ लें। बड़ी किरपा होगी।

- भूपेश पंत

चौकीदार-1

(लघुकथा) 
आज सुबह कॉलोनी के चौकीदार का उतरा सा चेहरा देखा तो पूछ ही लिया। लाठी टिका कर सलाम करने के बाद मुंह बना कर बोला, साहब बड़ा खराब लगता है। चौकीदारों की तो जैसे कोई इज्ज़त ही नहीं रह गयी है। कुछ आप जैसे भले लोग हैं लेकिन बाकी सब आते जाते ऐसे घूर कर देखते हैं जैसे हमने ही कोई चोरी या नोटबंदी की हो। अब भला सूट बूट वाले चौकीदार से हमारा क्या मुकाबला। जिसे देखो चौकीदार को गरिया रहा है। हम तो साहब ईमानदारी से दिन रात की ड्यूटी करते हैं पेट पालने के लिये। अब तो ये डर सताने लगा है कि किसी और की खुंदक में कोई हमें ही ना पीट दे। आप कुछ करो ना साहब। 

(भूपेश पंत)

भागते रहो!

(कार्टून/कविता)

वो
दिन रात
काम करता है
पूंजीपतियों के लिये
भेष बदल बदल कर
देश विदेश की गलियों में
उस चौकीदार की लाठी
की आवाज़ लगातार
गूंजती है
उनके कानों में
जैसे कह रही
हो
भागते रहो।

- भूपेश पंत

सब जानते हैं!

कितना कहता हूँ कहाँ मानते हैं
मुझे थोड़ा थोड़ा सब जानते हैं।

जो माल उन्होंने अंटी में दबाया
कहां से है पाया सब जानते हैं।

गज़ब ऐसी भक्ति कहां से लाया
झूठ का है साया सब जानते हैं।

जैसा जो करेगा वैसा ही भरेगा
कोई नहीं बचेगा सब जानते हैं।

जोड़ेगा, तोड़ेगा वो नहीं छोड़ेगा
कितना पसोड़ेगा सब जानते हैं।

बांटेगा, मनाएगा या धमकाएगा
लोकतंत्र लाएगा सब जानते हैं।

कर नोट पर चोट खरीदेगा वोट
नीयत में है खोट सब जानते हैं।

बीते पर दोष, वर्तमान खामोश
फैलेगा आक्रोश सब जानते हैं।

सजा कर वेश घूमने देश विदेश
क्यों उड़े खगेश सब जानते हैं।

पढ़ना किताब कितना है खराब
कौन देगा हिसाब सब जानते हैं।

जवान या किसान देश की शान
सस्ती होती जान सब जानते हैं।

गलियों में दंगा है सत्ता का पंगा
मरेगा भूखा नंगा सब जानते हैं।

ज़ुबानों पर ताला पेट पर लात
बदल रहे हालात सब जानते हैं।

अंधेरे ने की है घात देने को मात
जुगनू जलेंगे रात सब जानते हैं।

बेसब्र बारिश में उमड़ते जज़्बात
मौसमी है ये बात सब जानते हैं।

सूने होते पहाड़ सूखे हाड़ झाड़
किसने खायी बाड़ सब जानते हैं।

तेल की धार या महंगाई की मार
होगा कौन शिकार सब जानते हैं।

आभासी दरबार कुतर्कों के वार
दोधारी है तलवार सब जानते हैं।

वादों की पतीली सुलगते सवाल
गल नहीं रही दाल सब जानते हैं।

भेड़ों जैसी शक्ल खद्दर सी खाल
चुनावी है ये साल सब जानते हैं।

- भूपेश पंत

एक और चीरहरण!

हुआ शंखनाद
लोग सभागार में आने लगे
चौपड़ बिछ गयी
पासे फैंके जाने लगे
राजनीति युधिष्ठिर बनी
स्वार्थ दुर्योधन बन बैठा
राजनेता आँख मूंद सिंहासन पर विराजे
बुद्धिजीवी भीष्म बन कर बैठ गये
पहले ईमान दाँव पर लगा
राजनीति के हारते ही
वो बेईमान हो गया
आत्मबल हार कर
बाहुबल में बदल गया
धर्म भी सांप्रदायिकता में ढल गया
फिर
दाँव पर लगी
सभ्यता और संस्कृति
और
हार कर खो बैठी अपना अर्थ
अंत में दाँव पर लगी मानवता
पासा फिर हुआ व्यर्थ
दानवता के हाथों
केश पकड़ कर भरे दरबार में लायी गयी
सबने सिर झुका लिये
स्वार्थ का अट्टहास गूंजने लगा
चारों ओर
हाथ थपकी देने लगे जंघाओं पर
सब मौन थे उस क्षण
जब शुरू हुआ चीर हरण
वो चिल्लाती रही
हाथ जोड़ जोड़ कर बुलाया
पर कोई कृष्ण
पता नहीं क्यों लाज बचाने
इस बार नहीं आया।

- भूपेश पंत

अंतहीन!

कौन होंगे ये लोग, कहां से लाये जा रहे हैं
बसाने को शहर बस्तियां जलाये जा रहे हैं।

धर्म की धार से इंसानी गलों को रेतने वाले
ज़िंदगी का सलीका हमें सिखाये जा रहे हैं।

उन्होंने बेची हैं जम के जुमलों की किताबें
हर बार एक नया संस्करण लाये जा रहे हैं।

जब से खोल ली है उन्ने गालियों की दुकान
झोली भर भर के रोज वो कमाये जा रहे हैं।

शेर ये कहते हुए घुस गया फिर से मांद में
परिंदे उड़ उड़ के उसको सताये जा रहे हैं।

खून से सन गया है यों सियासत का वजूद
मुद्दों की लाशें शैतानी गिद्ध खाये जा रहे हैं।

रुंध आता है गला और उखड़ती है सांस भी
किरदार इंसानी वो बखूबी निभाए जा रहे हैं।

पूछा जो तीरंदाज़ से कि निशाना क्यों चूका
निशाना चूकने के फायदे गिनाए जा रहे हैं।

अकलियत का नहीं रहा है पोथियों से वास्ता
पढ़ लिख कर वो हमें यही बताये जा रहे हैं।

उनके शक के दायरे में आ चुका है हर कोई
इम्तिहान के लिये चिताएं जलाये जा रहे हैं।

खेल पुराना मदारी का वो आया है याद फिर
जुबान काट कर जमूरे की, डराये जा रहे हैं।

टूट के रह गये जब से अच्छे दिनों के ख़्वाब
बुरे दिनों के सपने अब दिखलाये जा रहे हैं।

सूरज को भी वो लाल सुर्ख सा होने नहीं देंगे
सुबह और शाम भी वक्त से हटाये जा रहे हैं।

सुना है जब से चढ़ाएंगे वो सच को सूली पर
कफन बांध के सिरफिरे भी आये जा रहे हैं।

- भूपेश पंत

अनकही!

पता नहीं मौन है
क्यों
सह रहा है
वो शायद
भावनाओं के मुद्दों में
बह रहा है।

फिर आयेंगे
सालों बाद
साहब इस गाँव में
वो आजकल
सबसे
यही
कह रहा है।

घरों के डूबने का
अहसास
सबसे पहले उसे
होता है
जो अधमंजिला
झोपड़ी में
रह रहा है।

उसकी
बातों पे ही ध्यान
मत दो
ये भी सुनो वो
कब, कैसे,
क्यों
और कितना
कह रहा है।

नहीं
खड़े होना
बड़े दरख़्तों के नीचे
कौन जाने
बारिश में कौन
कब
ढह रहा है।

आँसू पोंछने
का
तुम अब
ये नाटक बंद करो
पूछो
रूह से उसकी
वो क्या
सह रहा है।

किसी की अंतिम
विदाई पर
बरस रहा है
आसमां
तो कितने पवित्र होंगे
वो इन्सां
जिनके शोक में
बादलों का सीना
फट रहा है।

इस मौसम में भी
सबसे
नुकसान में
है
इंसानियत की
नदी
जिसका पानी
लगातार
घट रहा है।

वायदों के बुलबुले
और
उम्मीदों के पर्चे
देखो
ख़ैरात में इन दिनों
क्या क्या
बंट रहा है।

चारों ओर
छाई है सुबह में
खून सी लाली
घेरे है
सूरज को
कोहरा
या
छंट रहा है।

टूटे खिलौनों की
मरम्मत में
लगा है
वो
बच्चा
सुबह से जाने उसे
क्या
सूझ रहा है।

बुझा दिये गये
हैं
अमन के दिये
सभी
अंधेरों को भी अब
रास्ता
बूझ रहा है।

देख लो उसने भी
अभी
हार नहीं मानी
लोगों की अकलियत
से
अब तक
जूझ रहा है।

बरगला कर उनको
अपनी जेब
इतनी भी ना भर
तू कहता है
जिसे कि
है
वो खुदा
देख रहा है।

जो बात तेरी
ज़ुबान से
निकल रही है आज
खुद भी रख
रहा है उसे
या
फेंक रहा है।

कोई मजबूरी ज़रूर
रही होगी
उसकी
चिता की सुलगती
आँच पर
रोटी
सेक रहा है।

पहली भेड़ बन कर
भेड़ों की भीड़
में
खेल
कौन नादान
बच्चा
खेल रहा है।

बरस के
खत्म हो जाएगा
तुम्हारी
आँख का पानी
उस बशर का क्या
जो ज़िंदगी भर का
ग़म
झेल रहा है।

- भूपेश पंत

सत्ता का फ़रमान!

तुम
जब बोलते हो
नफ़रत को मिटाओ
तब तुम
नफ़रत को जज़्बात
कर रहे होते हो।

तुम
जब टोकते हो
दंगे मत फैलाओ
तब तुम
धर्म पर घात
कर रहे होते हो।

तुम
जब चीखते हो
भूख से बचाओ
तब तुम
गरीबों को आंदोलित
कर रहे होते हो।

तुम
जब चिल्लाते हो
संसाधनों पर
अपने हक़ के लिये
तब तुम
मालिकों को उत्पीड़ित
कर रहे होते हो।

तुम
जब मुट्ठी लहराते हो
लोकतंत्र की रक्षा के लिये
तब तुम
सबसे बड़े लोकतंत्र पर
अनचाहे सवाल
खड़े
कर रहे होते हो।

तुम
जब हमला बोलते हो
भीड़ की हिंसा
पर
तब तुम
भीड़ का चेहरा
पहचानने की
कोशिश
कर रहे होते हो।

तुम
जब दूसरों की बेटियों के
इंसाफ़ के लिये
मोमबत्ती जलाते हो
तब तुम
कई बेटियों को
बड़ा होने से
डरा रहे होते हो।

तुम
जो साहित्य पढ़ते हो
उसमें
ग़रीबी, लाचारी, शोषण का ज़िक्र
होता है
सोने की चिड़िया नहीं होती
खेत, खलिहान, जंगल, ज़मीन
सब होते हैं
अफीम की पुड़िया नहीं होती
बाल मजदूरों को
मीठी नींद सुलाने वाली
लोरियां छोड़ो
बच्चों को बहलाने वाली
गुड़िया तक नहीं होती।

तुम
जो पढ़ते हो
कविताओं में भी
वही गढ़ते हो
इंसानी अधिकारों
की
बात करते हो
बंदूक नहीं उठाते
पर
शब्दों के हथियार से
जमकर लड़ते हो।

तुम
जब हालात बदलने की
बात करते हो
तब
तुम यकीनन
मुट्ठी भर तबके
के
विकास को
कोस रहे होते हो

तुम्हारे पास
मिले हैं
खूनी रंग में रंगे
दुनिया के सबसे खतरनाक
तर्कों के हथियार
जिनसे मार सकते हो तुम
निरंकुश
सत्ता का विचार
यानी
तुम वैचारिक तौर पर
हिंसक हो
बाग़ी हो
लेखक, विचारक
और
कवि भी

क्या इतने सबूत
काफ़ी नहीं
तुम्हारे
देशद्रोही होने के लिये।

- भूपेश पंत

बहुरुपिया!

वो
बहुत दुखी है
वक़्त के हाथों लाचार
कर रहा विचार
समय
बहुत कम है
लगने वाला है मजमा
जल्द ही
कैसे दिखा पायेगा तमाशा
कदम कदम पर
लड़खड़ा रही है आशा
कैसे भरेगी झोली
कैसे खुश होगा
परिवार
क्योंकि
बहुत संभाल कर रखा था
जो
टूट चुका है वो मुखौटा
इस बार
क्या करे वो
पुराने को सी ले
अस्थियों पर जी ले
या फिर बदल ले इस बार
हो सके जिससे
बेड़ा पार
उसे मुखौटे से
मोह नहीं है
लगता कोई बिछोह
नहीं है
जिससे जितना कमाता है
वो उसे
उतना ही भाता है
वो खरीद सकता है
मुखौटों की कायनात पूरी
करवा सकता है
उनसे
जी हजूरी
वो रावण की तरह दस दस मुखौटे
बदल सकता है
इतना शातिर है कि
गिरते गिरते भी संभल सकता है
न जाने इस बार
लोगों को
होना होगा किस मुखौटे से
दो चार
भ्रष्टाचार, आचार-विचार
समाज में बढ़ता व्यभिचार
या दिखेगा
देशप्रेम, धर्म संकट, जाति व्यवहार
या फिर सड़क में सांडों की तरह
डोलते संस्कार
वो पारंगत है हर मुखौटा ओढ़ लेने में
जो काम का नहीं
निर्दयता से तोड़ देने में
वो बेसब्र है, बेचैन है
अगली बार
फिर से
लोगों की उम्मीदों के
कब्रिस्तान पर
बने
किले की प्राचीर से
भरने को हुंकार
ताकि
दिखा सके वो
इस बार मेले में
नया तमाशा
नये
मुखौटों की सरकार।

- भूपेश पंत

साथियो!

कर चले वो फ़िदा जानोतन साथियो
करके किनके हवाले वतन साथियो

गाली देने के मौके बहुत हैं मगर
जान लेने की रुत रोज आती नहीं
वतनपरस्ती को भी तो रुसवा करे
वो जवानी जो खूं में नहाती नहीं

अच्छे इनके नहीं हैं करम साथियो
कर चले वो फ़िदा...

सांस थम सी गयी, नब्ज जम सी गयी
अपनी वहशत को हमने न रुकने दिया
कुचली कलियों का हमको तो कुछ ग़म नहीं
सर इंसानियत का हमने न उठने दिया

ये कहां ले के आया बांकपन साथियो
कर चले वो फ़िदा...

राह वोटों की ऐसे न वीरान हो
तुम घुमाते ही रहना नये काफिले
जीत का जश्न इस मौत के बाद है
आओ मिलके काटें आपस में गले

सच को मिलकर उढ़ाएं कफ़न साथियो
कर चले वो फ़िदा...

खेंच दो नफरतों की ज़मीं पर लकीर
बचने पाये न पार्टी का दुश्मन कोई
काट दो हाथ अगर हाथ उठने लगें
छूने पाये न सत्ता का दामन कोई

राम हो तुम और वो रहिमन साथियो
कर चले वो फ़िदा...

- भूपेश पंत

कितने कब्रिस्तान!

जलते हैं जब पेड़, पहाड़ और हमारे जंगल
कई जीवों के लिये ज़िंदा श्मशान बन जाते हैं।
जहाँ रहने की न हो इजाज़त ग़ैर मज़हबी को
वो फिर शहर नहीं रहते कब्रिस्तान बन जाते हैं।

जो लोग अपनों के किये पर नहीं साधते चुप्पी
एक दिन वे अपने मुहल्ले की शान बन जाते हैं।
मिटा देते हैं चलो आज से बैर भाव हम सभी
फिर से वही पुराना वाला हिंदुस्तान बन जाते हैं।

वतन को हम पहुँचा सकते हैं इस तरह से आगे
उसकी सफलताओं का एक सोपान बन जाते हैं।
मज़हबी मिल्कियतों के झगड़े सब सुलझ जाएंगे
राम या रहीम बनने से पहले इंसान बन जाते हैं।

- भूपेश पंत

बेवकूफ़ों की नंगई!

भूपेश पंत

बचपन से हम और आप एक कहानी अकसर सुनते आ रहे हैं। फिर भी संदर्भ के लिये ये कहानी सुनाता हूं, “ किसी राज्य में एक राजा था, जो अक्सर चापलूस और भ्रष्ट मंत्रियों व दरबारियों से घिरा रहता। एक बार राजा के दरबार में दो ठग पहुंचे। उन्होंने दावा किया कि वो राजा के लिये ऐसी सुंदर पोशाक तैयार करेंगे जैसी कि कोई सपने में भी नहीं सोच सकता। उसकी सबसे बड़ी खूबी ये होगी कि किसी मूर्ख, अयोग्य और भ्रष्ट व्यक्ति को वो पोशाक नज़र नहीं आयेगी। राजा समेत सभी को ये जानने की उत्सुकता हुई कि आखिर ये पोशाक कैसी होगी। ठगों को तुरंत पोशाक बनाने का आदेश दिया गया। राज्य से तमाम सुविधाएं हासिल करते हुए ठग अपने काम यानी मौजमस्ती में जुट गये। राजा ने कई बार अपने मंत्रियों को उनके काम की रफ्तार जानने भेजा और हर बार उसे बताया गया कि उन्होंने अपनी आंखों से वस्त्र देखे हैं जो बेहद खूबसूरत हैं। दरअसल मंत्रियों को वो पोशाक कभी दिखी नहीं लेकिन ये बात कह कर वो खुद को कैसे मूर्ख, अयोग्य और भ्रष्ट कहलाना पसंद करते।"

“राजा ने तय किया कि जिस दिन नयी पोशाक़ तैयार हो जायेगी, उस दिन एक भव्य समारोह होगा। राज्य भर में इसकी मुनादी करवा दी गयी कि राजा नयी पोशाक़ पहनकर नगर में निकलेगा। आखिरकार वो दिन आया जब ठग वो पोशाक लेकर दरबार में आये। ठगों ने राजा के सारे कपड़े उतरवा दिये। फिर वे देर तक उसे नये परिधान में सजाने-धजाने का अभिनय करते रहे। राजा को कुछ नज़र नहीं आया और ना ही उसके मंत्रियों और दरबारियों को। लेकिन ये बात वो भला बोलें भी तो कैसे। फिर वही हुआ जो होना था। सब एक स्वर में वाह वाह कर उठे। राजा के चापलूस मंत्रियों, दरबारियों और नौकर-चाकरों ने एक स्वर में उसकी तारीफ़ों के पुल बाँधने शुरू कर दिये क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि उन्हें मूर्ख, अयोग्य या भ्रष्ट घोषित कर दिया जाए। ठगों की अदृश्य पोशाक पहन कर राजा नंगा हो चुका था। लेकिन उसे नंगा कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी। नंगधड़ंग राजा भी सन्तुष्ट भाव से सिर हिलाते हुए बाहर चल पड़ा। रास्ते के दोनों तरफ़ खड़ी प्रजा भी मूर्ख कहलाना नहीं चाहती थी लिहाजा सबने राजा की नयी पोशाक़ की जमकर प्रशंसा की।लेकिन तभी एक बच्चा बड़ी मासूमियत से तालियां बजा बजा कर बोल पड़ा, “अरे देखो, राजा तो नंगा है!” एक क्षण में ही राजा के नंगेपन और लोगों की आँखों पर पड़ा झूठ का आवरण हट चुका था।"


आज के वक़्त में इस कहानी के किरदार सिर के बल उलट चुके हैं। मौजूदा लोकतंत्र में जनता का ही राज माना जाता है और वही वोट देकर राजकाज चलाने के लिये अपने सेवकों या प्रतिनिधियों को चुनती है। लेकिन नेता, प्रशासक और कारोबारी के रूप में ठगों का अपवित्र गठजोड़ लोकतंत्र के नाम पर ठगतंत्र चला रहा है। विकास के नाम पर ये ठग हर चुनाव में जनता रूपी राजा को ऐसी ही खूबसूरत पोशाक पहनाने का वादा करते हैं जो केवल बेवकूफों को नज़र नहीं आती। यानी जिसने भी विकास के उनके दावों को चुनौती दी वो खुद ही सार्वजनिक तौर पर बेवकूफ घोषित हो जाता है। जनता अपने ही जन प्रतिनिधियों के हाथों अपने कपड़े उतरवाने और विकास की अदृश्य पोशाक पहन कर नंगधड़ंग घूमने के लिये मजबूर की जाती रही है। उन्हें नंगा कर ये ठग अपनी जेबें भर रहे हैं जबकि राजा कहलाने वाली आम जनता हर बार चुनाव में छली जाती रही है। लोग जानते बूझते भी ये स्वीकारने को तैयार नहीं कि उन्हें विकास की जो पोशाक पहनायी जा रही है वो असल में है ही नहीं। खुद को बेवकूफ कहलाने की शर्मिंदगी से बचने के लिये वो लगातार ठगे जाने पर मजबूर हैं।

पिछली कहानी में जिस मासूम बच्चे ने राजा को नंगा कहने का साहस किया था उसे एक लिहाज़ से आज का मीडिया मानें तो मौजूदा दौर में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाला ये बच्चा अपनी मासूमियत खो चुका है। उसमें ये कहने का बालसुलभ साहस बचा ही नहीं है कि विकास की बाट जोह रहा लोकतंत्र के अंतिम छोर पर खड़ा आदमी आज भी शर्मनाक तरीके से नंगा है। मौजूदा दौर में ये हिम्मत जुटा पाना मुश्किल ज़रूर लगता है लेकिन नामुमकिन नहीं। ये तभी होगा जब मीडिया अपने निहित स्वार्थ और दलीय प्रभावों से मुक्त होगा। जिनमें ये कर्तव्य बोध बचा भी है, सत्ताधारी ठगों के इर्दगिर्द मंडराने वाले दरबारी अपनी मूर्खता छुपाने के लिये उन्हें ही बेवकूफ़ साबित करने पर तुले हैं ताकि ऐसे ठगों का सच सामने न आ सके जो विकास का पैमाना अपने वोट बैंक और तिजोरियों के फैलाव से तय करते हैं। लोगों को विकास की असली पोशाक पहननी है तो उन्हें पहले ये खुद स्वीकारना होगा कि वोट के दम पर सत्ता को बदलने की ताकत रखने वाला राजा आज भी नंगा है। और ये भी कि नंगेपन और बेवकूफ़ी का मेल ही इस दौर की सबसे बड़ी सच्चाई है।

त्राहिमाम् त्राहिमाम्

कट रहा इंसान लहू सड़कों पर बह चला है
इस कदर ये किसने इंसानियत को छला है।
लाशों का कारवां, केवल यही रह जाएगा
न हम होंगे न तुम, ये विश्व धरा रह जाएगा।
देशों की सीमाओं में, मानवता को न बांधो
हथियारों के गर्जन से स्वार्थ अपने न साधो।
युद्ध के अंधियारे में हाथ न कुछ भी आएगा
प्रेम की इक बोली से जग सारा मिल जाएगा।
स्वार्थ की शतरंज में इंसां को मोहरा न बनाओ
घर के चिराग़ो, न अपने घर में आग लगाओ।

(खाड़ी युद्ध के समय लिखी एक कविता)

-भूपेश पंत

शोक संदेश

अस्पताल में
अति विशिष्ट व्यक्ति के
गिरते स्वास्थ्य से
चिंतित भीड़
इंतज़ार कर रही थी
एक ख़बर का
जो उसे निश्चित ही बताती
कि
आज जश्न मनाना है
या शोक

सफेद वस्त्र पहने
धीर गंभीर चेहरा लिये
वो बाहर आये
कई सफ़ेदपोश कदम
कुछ आगे बढ़े
जो
आतुर थे, आकुल थे
बेसब्र थे, व्याकुल थे
कुछ मज़लूम भी थे
भीड़ में
जो मुश्किल से खड़े हो पाये
उस मुश्किल घड़ी में

वो
तकनीकी आधार पर बोले
दुःखद है ये
हम सब के लिये
क्योंकि
हमारे जननायक
अपनी
सोचने, समझने
देखने भालने
जानने पहचानने
और सुनने बोलने
की
ताकत खो चुके हैं
और
हम उन्हें

ये सुन कर
भीड़ में शामिल
मुफ़लिसी के मारे
शख्स ने
आँखों में आँसू भर कर
आसमान की ओर देखा
गहरी सांस ली
और कहा
वो तो ये सब
पहले ही खो चुके थे
आज तो
हमने उनको खोया है
हे ईश्वर! उनकी आत्मा को शांति देना
बाकी सब ने कहा
आमीन।

- भूपेश पंत

चलो, कुछ करते हैं...

ऐसा चलो हम तुम कई बार करते हैं
इंसानों का बाग़ीचा गुलज़ार करते हैं।

जिसके पीछे चला करता था कारवाँ
फिर उस फकीर का इंतज़ार करते हैं।

ज़ुल्म की आग से थे जिनके घर जले
उनकी भी मजारों का दीदार करते हैं।

जानो क्या इशारा है लबों की ये चुप्पी
कह दो ग़ुलाम होने से इन्कार करते हैं।

वो बदल न डालें अब हर्फ़ ए वफा भी
अपने गुस्से का चलो इजहार करते हैं।

कोहरा कुछ ज़्यादा घना हुआ जाता है
हमलों के लिये बेटी को तैयार करते हैं।

मेरे इश्क़ तेरे मुश्क से सब बिगड़ गया
वतनपरस्त साबित ख़ुदमुख़्तार करते हैं।

शहीदों की चिताओं पे मेलों से क्या होगा
बुझी हुई खाक को कभी अंगार करते हैं।

मज़हब है जो तेरा वहशत नहीं सिखाता
मेरे धर्म में भी ना ही अत्याचार करते हैं।

महफूज होकर बैठे हैं संगीनों के दायरे में
यही हैं जो अपने वतन को प्यार करते हैं।

बदल पाते हैं वही अपने दौर का तरीका
जो वो नहीं करते हैं जो सरकार करते हैं।

बिगाड़ते हैं बच्चे ज्यूं तक़दीर की इबारत
यही गलती हम भी तो बार बार करते हैं।

अपने कोई चेहरे कहां होते हैं भला उनके
इंसानियत को जो लोग शर्मसार करते हैं।

मां जिसको पिला दे उनके हिस्से का दूध
बंदर के बच्चे फिर भी न तकरार करते हैं।

सियासत में ज़रूरी है ग़ुमराह भीड़ होना
जो धोखा नहीं देते वो चमत्कार करते हैं।

- भूपेश पंत

नींव के पत्थरों पर ‘पत्थरदिल’ सियासत!

(स्वतंत्रता आन्दोलन के नामचीन महानायकों और अनाम तथा उपेक्षित सेनानियों को शत शत नमन. उत्तराखंड में गांधीवाद आंदोलन की अलख जगाने वाले पिथौरागढ़ के सर्वप्रथम सेनानी स्व प्रयाग दत्त पंत और उनके छोटे भाई स्व बन्शीधर पंत को इस खेद के साथ नमन कि स्वतंत्रता आंदोलन में उनके ऐतिहासिक योगदान को आज तक उत्तराखंड का शासन प्रशासन उचित सम्मान तक नहीँ दे पाया. जिस राज्य में नैनीताल जिले के बांसी गांव निवासी 94 वर्षीय गोधन सिंह को घोषित स्वतंत्रता सेनानी होने के बावजूद जीतेजी उनका सम्मान दिलाने के लिये तीन पीढ़ियां खप गयी हों, वहां की सरकारों से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है? 
दुर्भाग्य ही है कि जिन सेनानियों ने धर्म, जाति और क्षेत्र से ऊपर उठ कर देश की आजादी में अपना योगदान दिया हो, उन्हें आज के राजनीतिक आका भाषा, धर्म, जाति और क्षेत्र के ही आधार पर इतिहास के पन्नों से गुम करने की साजिश रच रहे हैं। अगर ऐसा होता रहा तो बहुत जल्द इतिहास में उन्हीं लोगों का नाम रह जाएगा जिनकी पीठ पर या तो राजनीतिक सत्ता का हाथ हो या फिर जिनके नाम में किसी खास जाति के वोटबैंक को लुभाने की कुव्वत होगी। इससे ये भी साफ होता है कि जो सरकारें अपने पुरखों के बलिदान को राजनीतिक नफा नुकसान के चश्मे से देख रही हैं उन्होंने उत्तराखंड राज्य के लिये वास्तविक तौर पर संघर्ष करने वाले बलिदानियों और आंदोलनकारियों के साथ कितना न्याय किया होगा।
पंत भाइयों के सम्मान और सरकारी अपमान की इस जंग को लड़ रहे पंत परिवार के उत्तराधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता जनार्दन पंत Janardan Pant (हाल निवासी हल्द्वानी मो. 9410184624) 78 वर्ष की उम्र में आज भी इस मुद्दे पर वैचारिक और अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं और जन समुदाय से समर्थन की अपेक्षा रखते हैं. उम्मीद है कि स्वतंत्रता सेनानियों के उत्तराधिकारियों के नाम पर बना प्रदेश व्यापी संगठन भी इस गंभीर मामले का संज्ञान लेगा।)

भूपेश पंत

साफ दर्ज है कि पिथौरागढ़ में ही नहीं बल्कि उत्तराखंड की धरती पर गांधी आंदोलन को शुरू करने का श्रेय स्व. प्रयाग दत्त पंत को ही जाता है. उन्होंने इलाहाबाद में बीए की डिग्री स्वर्ण पदक के साथ हासिल की और जनपद का पहला स्नातक होने का गौरव भी हासिल किया…
इस लेख की शुरुआत में फिर से अपनी बात दोहराना चाहूंगा कि जो समाज अपने इतिहास के नायकों का सम्मान नहीं करता उसकी कोख से सिर्फ खलनायक ही जन्म लेते हैं. इस बात में छिपी टीस देश की आजादी की लड़ाई से जुड़ी मेरी पारिवारिक विरासत तक सीमित नहीं है बल्कि जात-पांत और क्षेत्रवाद के दायरों में उलझे समाज और संवेदनहीन सियासत का आईना भी है. उपेक्षा, अपमान और तिरस्कार से भरी ये सच्चाई है पिथौरागढ़ जनपद के पहले स्वतंत्रता सेनानी स्व. प्रयागदत्त पंत और उनके भाई स्व. बंशीधर पंत की. सबकुछ खो देने की मंशा से आजादी के आंदोलन में कूदे इन सेनानियों ने जिस देश के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर किया उसे हमारी सरकारें उचित सम्मान तक ना दे सकीं. इतना ही नहीं, स्व. प्रयागदत्त पंत के योगदान को राजनीतिक साजिश का शिकार बनाकर गुमनामी के अंधेरे में गुम कर दिया गया है. इस सेनानी का इससे बड़ा तिरस्कार क्या होगा कि पिथौरागढ़ जिले में उन्होंने आजादी की जो अलख जगायी, उससे प्रेरित होकर स्वतंत्रता आंदोलन में कूदे सेनानी के नाम पर वही कॉलेज समर्पित कर दिया गया जिसका नाम स्व. प्रयागदत्त पंत के नाम पर रखे जाने की मांग सालों से की जा रही थी.
कुछ सियासी नुमाइंदों की शह पर सूबे का शासन और प्रशासन इतिहास के पन्नों को बदलने की आपराधिक साजिश में भी शामिल रहा जिसका खुलासा सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी सूचनाओं से हुआ…
पिथौरागढ़ पीजी कॉलेज को स्व. प्रयागदत्त पंत के नाम से जोड़ने की स्वतंत्रता सेनानियों और जनता की बेहद पुरानी मांग को ठुकरा कर कांग्रेस की एनडी तिवारी सरकार ने जिन स्व. लक्ष्मण सिंह महर के नाम से उसे जोड़ा वो पिथौरागढ़ में स्व. प्रयागदत्त पंत के आजादी की अलख जगाने के बाद ही स्वतंत्रता संग्राम में आये थे. साफ है कि तिवारी सरकार का ये फैसला जाति विशेष के वोट बैंक और संकीर्ण सोच पर आधारित था और तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के दबाव में लिया गया था. स्व. प्रयागदत्त पंत के साथ साथ यही उपेक्षा उनके भाई और स्वतंत्रता सेनानी स्व बंशीधर पंत को भी मिली. दोनों पंत भाई कांग्रेस पार्टी के पदाधिकारी भी रहे लेकिन ये कांग्रेस का ही नहीं देश का भी दुर्भाग्य है कि सम्मान देना तो दूर सूबे की सरकारों ने उनका एक तरह से तिरस्कार ही किया है. इतना ही नहीं पिछली हरीश रावत सरकार में कुछ सियासी नुमाइंदों की शह पर सूबे का शासन और प्रशासन इतिहास के पन्नों को बदलने की आपराधिक साजिश में भी शामिल रहा, जिसका खुलासा स्वतंत्रता सेनानी पंत परिवार के सदस्य और वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता जनार्दन पंत के सामने सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी सूचनाओं से हुआ. पेशे से वकील जनार्दन पंत स्वतंत्रता सेनानी स्व. प्रयागदत्त पंत के छोटे भाई स्वतंत्रता सेनानी स्व. बंशीधर पंत के पुत्र हैं. वो पिछले कई सालों से अपने ताऊजी (स्व. प्रयागदत्त पंत) और पिता (स्व. बंशीधर पंत) को उनकी गरिमा के अनुरूप सम्मान दिलाने की जद्दोजहद में लगे हैं लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. उनकी बड़ी बहिन और स्व. बंशीधर पंत की पुत्री स्व. कलावती जोशी ने भी इस बाबत लंबे समय तक हर चौखट खटखटायी लेकिन जीते जी उन्हें भी निराशा ही हाथ लगी.
स्वतंत्रता सेनानी फर्जीवाड़े पर विरोध दर्ज कराते जनार्दन पंत (पिथौरागढ़)

बनाया फर्जी स्वतंत्रता सेनानी!
स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े लोगों की फेहरिस्त में न तो इस नाम के किसी व्यक्ति का रिकॉर्ड है और ना ही उनके नाम पर इस मद में कभी कोई पेंशन जारी की गयी है…
सूचना के अधिकार के तहत जनार्दन पंत को ये चौंकाने वाली जानकारी मिली कि पिथौरागढ़ ज़िले में जिन स्व. रुद्र सिंह बसेड़ा को स्वतंत्रता सेनानी बताकर राजकीय इंटर कॉलेज रोड़ीपाली का नामकरण किया गया, उनका नाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं है. जबकि पिथौरागढ़ के तत्कालीन कांग्रेसी विधायक मयूख महर ने उनके नाम के शिलापट का आनावरण करते हुए कहा था कि क्षेत्र के स्वतंत्रता सेनानियों के नाम को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये उनकी विधानसभा क्षेत्र के नौ शैक्षणिक संस्थानों के नाम स्व. रुद्र सिंह बसेड़ा जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर रखे गये हैं. इस मौके पर विधायक जी ने स्व. रुद्र सिंह बसेड़ा की ओर से इलाके में विद्यालय बनाने के लिये कई नाली जमीन दान पर देने का जिक्र किया था. लेकिन जब जनार्दन पंत ने स्व. बसेड़ा के स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेखनीय योगदान की पड़ताल करनी चाही तो पता लगा कि स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े लोगों की फेहरिस्त में न तो इस नाम के किसी व्यक्ति का रिकॉर्ड है और ना ही उनके नाम पर इस मद में कभी कोई पेंशन जारी की गयी है.
बंशीधर पंत ने पिथौरागढ़ के सिमलगैर में खादी और सिंगर सिलाई मशीन के पुर्जों की दुकान खोली. उन्होंने अपनी दुकान में तिरंगा झंडा लगा रखा था जिसे हटवाने के लिये अंग्रेज प्रशासन ने उनके पूरे परिवार को प्रताड़ित किया…
राज्य में फर्जी स्वतंत्रता सेनानी बनाने का ये मामला सामने लाने और दोषियों पर कानूनी कार्रवाई शुरू करवाने के लिये कागजी कार्यवाही कर रहे जनार्दन पंत आरोप लगाते हैं कि उत्तराखंड की पिछली हरीश रावत सरकार का ये रवैया क्षुद्र राजनीति, जातीय समीकरण और क्षेत्रवाद से प्रेरित था. पंत परिवार की ऐतिहासिक विरासत को लेकर राज्य सरकारों की उपेक्षा से क्षुब्ध जनार्दन पंत वजह जानना चाहते हैं कि आज़ादी के 70 साल बाद भी इन दोनों सेनानियों के नाम पर इनके अपने गृह जनपद पिथौरागढ़ में आजतक एक भी सार्वजनिक संस्थान क्यों नहीं है? क्या वजह है कि उत्तराखंड में आये दिन घोषित-अघोषित स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर शिक्षण संस्थाएं, सड़कें और दूसरे सार्वजनिक संस्थान बांटने वाली पिछली रावत सरकार इन दोनों पंत भाइयों के नाम पर चुप्पी साधे रही? पंत कहते हैं कि पिथौरागढ़ में स्व. रुद्र सिंह बसेड़ा को स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्थापित करना और दो घोषित स्वतंत्रता सेनानियों की उपेक्षा करना इस बात का प्रमाण है कि पिछली हरीश रावत सरकार इस बाबत लिये गये अपने फैसलों में किसी छिपे एजेंडे के तहत काम कर रही थी. ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ की जा रही इस तरह की छेड़छाड़ सरकार के उच्च पदस्थ लोगों की मिलीभगत या शह के बिना मुमकिन नहीं है, लिहाजा इस खुलासे से निवर्तमान कांग्रेस सरकार के दूसरे फैसलों पर भी संदेह किये जाने के वाजिब कारण हैं. स्वतंत्रता सेनानी को लेकर हुए फर्जीवाड़े को लेकर जनार्दन पंत ने पिछले साल महामहिम राज्यपाल को भेजे ज्ञापन में स्व. बसेड़ा को स्वतंत्रता सेनानी घोषित करने की कार्यवाही में लिप्त साजिशकर्ताओं और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को लेकर तत्कालीन कांग्रेस सरकार के सभी फैसलों की सीबीआई या किसी उच्च स्तरीय संस्था से जांच कराने की मांग की थी ताकि सरकार और प्रशासन में उच्च पदों पर बैठे जन प्रतिनिधियों और अधिकारियों की कारगुजारियां बेनकाब हो सकें. साथ ही उन्होंने स्व. प्रयागदत्त पंत और स्व. बंशीधर पंत का नाम उनकी गरिमा के अनुरूप पिथौरागढ़ जनपद के नाम या बड़ी शैक्षणिक संस्था से जोड़ने और स्व. प्रयागदत्त पंत की जीवनी को स्कूलों के पाठ्यक्रम में जगह देने की मांग भी दोहराई. जनार्दन पंत ने उत्तराखंड के काबीना मंत्री और क्षेत्रीय बीजेपी विधायक प्रकाश पंत से इस गंभीर मुद्दे पर उचित कार्रवाई करने और पंत भाइयों के त्याग को उचित सम्मान दिलाने की मांग की है.
 क्या किया पंत भाइयों ने!
बंशीधर पंत को अगस्त 1942 में जेल भेज दिया गया. परिवार दाने दाने को मोहताज था और दो बच्चे मृत्युशैया पर पड़े थे….. कुछ दिन पश्चात उनका एक पुत्र चल बसा.
बीडी पांडे लिखित कुमाऊं के इतिहास पर नज़र डालें तो स्व. प्रयाग दत्त पंत को पिथौरागढ़ जनपद (तत्कालीन अल्मोड़ा जनपद की सीमान्त तहसील) के पहले स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जाना जाता है. आज़ादी की लड़ाई में पं. गोविंद बल्लभ पंत, पं हरगोविंद पंत और बी. डी. पांडे के समकक्ष रहे प्रयागदत्त पंत को पिथौरागढ़ जिले में गांधीवादी आंदोलन का सूत्रधार माना जाता है. इतना ही नहीं उत्तराखंड की सिविल सेवाओं की परीक्षा हेतु राज्य के समग्र अध्ययन के लिये बौद्धिक प्रकाशन से प्रकाशित केशरी नंदन त्रिपाठी की सामान्य अध्ययन पुस्तिका में साफ दर्ज है कि पिथौरागढ़ में ही नहीं बल्कि उत्तराखंड की धरती पर गांधी आंदोलन को शुरू करने का श्रेय स्व. प्रयाग दत्त पंत को ही जाता है. उन्होंने इलाहाबाद में बीए की डिग्री स्वर्ण पदक के साथ हासिल की और जनपद का पहला स्नातक होने का गौरव भी हासिल किया. गांधीजी के असहयोग आंदोलन के संदेश को अपने ओजस्वी विचारों के ज़रिये कुमाऊं के दूरदराज इलाकों के पिछड़े इलाकों में फैलाने वाले प्रयागदत्त पंत 1921 में बागेश्वर में आयोजित कुली-बेगार उन्मूलन आंदोलन में पिथौरागढ़ का प्रतिनिधित्व करने वाले एकमात्र व्यक्ति थे. उनकी अकाल मृत्यु के बाद देश की आजादी के उनके अधूरे सपने को पूरा करने का बीड़ा उनके छोटे भाई स्व. बंशीधर पंत ने उठाया. बर्मा में जापानी हमले के बाद 1940 में पिथौरागढ़ आये बंशीधर पंत ने पिथौरागढ़ के सिमलगैर में खादी और सिंगर सिलाई मशीन के पुर्जों की दुकान खोली. उन्होंने अपनी दुकान में तिरंगा झंडा लगा रखा था जिसे हटवाने के लिये अंग्रेज प्रशासन ने उनके पूरे परिवार को प्रताड़ित किया. पिथौरागढ़ तहसील के कांग्रेस संगठन मंत्री की हैसियत से बंशीधर पंत को अगस्त 1942 में जेल भेज दिया गया. परिवार दाने दाने को मोहताज था और दो बच्चे मृत्युशैया पर पड़े थे. उन्हें इस शर्त पर छोड़ा गया कि सत्याग्रह करने पर सरकार को सूचित करना होगा और हाज़िरी लगानी होगी. कुछ दिन पश्चात उनका एक पुत्र चल बसा. 1946 तक बंशीधर पंत ने किसान संगठन का काम किया जिसमें छत्रसिंह आजाद, जगत सिंह चौहान, हरिदत्त शास्त्री और धर्म सिंह जैसे सेनानियों का उन्हें पूरा सहयोग मिला. बंशीधर पंत ने रजवारशाही के खिलाफ किसानों के उल्लेखनीय अहिंसात्मक संघर्ष का नेतृत्व करते हुए ज़मींदारों की बंदूकें छीन कर मालखाने में जमा करवाईं और भूमिहीनों के हक हकूक के लिये संघर्ष किया.
  08/07/2017

मुद्दे

वो मुद्दे बनाते हैं
बर्फ के गोलों की तरह
और
उछाल देते हैं
चारों तरफ़ फैल जाते हैं
उन्हीं के मुद्दे
और
उनके बीच खो जाते हैं
कुछ के
जीने के अधिकार
कुछ के
बोलने के अधिकार
कुछ के
सोचने के अधिकार
और लोग
आपस में ही लड़ मरते हैं
सत्ता को
सही और गलत ठहराने में
वो
विजेता की तरह
डोलती है
उसका अट्टहास
सुन्न कर देता है दिमाग़ों को
पीछे धकेल देता है
इस सच को
कि
सत्ता का होना
तभी सार्थक है
जब
उसके दूरंदेश हाथों में हों
हमारे मुद्दे
कि
एक दिन
ये निगल जाएगी
हर अपने पराये को
क्योंकि
सत्ता की भूख
लगातार बढ़ रही है।

- भूपेश पंत

अक्ल पर पाला!

खफ़ा होकर बैठे हैं वह इस पाले में
क्यूंकर गये कुछ लोग उस पाले में।

रहना है अगरचे उन्हें किसी पाले में
तो क्यों नहीं आ जाते इसी पाले में।

सत्ता की भूख नचाती है उनको ऐसे
कभी इस पाले में कभी उस पाले में।

सियासियों ने बांट दिया है इस कदर
जो नहीं इस पाले में वो उस पाले में।

उनके होने का कोई मायना नहीं होगा
जो न इस पाले में और न उस पाले में।

हाकिम रख रहे हैं सबका हिसाब देखो
कौन कौन है यहां किस किस पाले में।

बिछ गयी है यों खुदगर्जी की बिसात
इंसानों की जगह नहीं किसी पाले में।

अकलियत के दुश्मन हर जगह ही हैं
कुछ उस पाले में तो कुछ इस पाले में।

वहशत के डर से जो हो गयी है बेघर
मुहब्बत अब जा रहेगी किस पाले में।

- भूपेश पंत

आदम जात!

ये
आदम
नहीं
कुत्ते की जात है
जिसके लिये
मादा का
जिस्म
दूध भात है
या फिर
हड्डियों पर चिपका
गर्म गोश्त
चल
जात बदल लें
मेरे दोस्त!

- भूपेश पंत

अक्सर!

हाकिम इस तरह इंतिख़ाब को अंजाम देंगे
काट कर गले इसे, जम्हूरियत का नाम देंगे।

अक्ल की पुड़िया बना कर रख लो जेब में
बहके हुओं को अब वो कोई बड़ा काम देंगे।

हर बात पर करते हो, तुम इत्ते शिकवे गिले
ढूंढ कर तुम्हें इक दिन ज़िहनी आराम देंगे।

बेच कर खा जाएंगे कफ़न भी शहीदों का
उन्मादियों को वतन परस्ती का ईनाम देंगे।

आवाम जो ठान ले सच को सुनने की ज़िद
झूठ की शराब का कब तलक वो जाम देंगे।

बात मत करना उनकी सियासी सोच की
मां बहन की गालियां, गद्दारी इल्ज़ाम देंगे।

जिनके भरोसे बैठे हो सुबह के इंतज़ार में
सूरज को छिपा कर नफ़रत भरी शाम देंगे।

सज गयी सरेआम ईमान फ़रोशों की मंडी
ज़मीर की लाश लाना, वो अच्छे दाम देंगे।

- भूपेश पंत

लोग देखते हैं..

पेट की आग पे ख़ुदगर्जी की रोटी सेंकते हैं
बहलाने के लिए कुछ टुकड़े रोज फेंकते हैं।
लुटी अस्मतों का दर्द वो जानेंगे भी तो कैसे
इनसे ही हैं जो वहशियत का राग छेड़ते हैं।
तुम कहां उलझ गये तकनीक के जमाने में
जनाब मशीनों से नहीं दिमाग़ों से खेलते हैं।
भूख से तड़प तड़प कर मरते हैं जब बच्चे
हुक्मरान तब कैमरों के सामने दंड पेलते हैं।
रोग, ग़रीबी, लाचारी चुनावी बातें हैं तुम्हारी
कुछ उनसे पूछो जो ये मसले रोज झेलते हैं।
नाइत्तफ़ाकी को दबा कर होगा क्या हासिल
अरे जो ये नहीं देखते वो कुछ और देखते हैं।
ठान लिया बनना जबसे सियासत के काबिल
हम खुद से ही ग़िरेबान को अपना उधेड़ते हैं।
माफ़ भी कर दे तू अब उनकी नादानियों को
अपनी ज़ुबान से खुद अपना राज़ खोलते हैं।
न खत्म होने देंगे वह हमारे दिलों की गिरह
नफ़रत के तराज़ू में रख जो इंसान तोलते हैं।
बहक न जाना तुम उनकी आकाशवाणी से
इन्सां भी नहीं खुद को जो भगवान बोलते हैं।

- भूपेश पंत

सत्ता की साँप-सीढ़ी

सच
एक साँप की तरह है
जो
अपना फन उठा कर
रोक सकता है
तुम्हारे अहंकार का राजपथ
कभी भी
वो
तुम्हारे पड़ाव को
तब्दील कर सकता है
मंज़िल में
उसकी एक फुंकार
पड़ सकती है
तुम्हारी बदनीयती पर भारी
उसका शांत हलाहल
किसी दिन
उतार सकता है
बददिमाग भीड़ पर
उड़ेला गया
तुम्हारा गर्म और ख़ूनी नशा
उसका डर 
निकाल सकता है
किसी दिन
तुम्हारे ख़ौफ़ की चीख़
वो तुम्हारे
पैरों पर लिपट कर
दे सकता है
वही
गिजगिजाता अहसास
जो
व्यवस्था के अंधकार में
दबोच ली गयीं
मासूम बच्चियों के
शरीर से लेकर
अंतर्मन तक बेशर्म हुआ होगा
वो एक दिन
तुम्हारे मुंह से निकले
झाग की तरह
खुद को ला सकता है
सब के सामने
तुम्हारे ही भीतर से
इस सर्प का कड़ुवा दंश
तुम्हारे
आस्थायुक्त दांतों से
कहीं ज़्यादा
गहरा है
तो
सत्ताधीशो
तुम समझ चुके हो
कि
सच का होना
वाज़िब नहीं है तुम्हारी दुनिया में
समय रहते
इस सांप को कुचलने
पर ही
टिका है, तुम्हारा वजूद

- भूपेश पंत

पानी

पानी का भी एक रंग होता है
इतना काफ़ी है
कि
बेरंग होता है
तुम अपनी अय्याशियों के लिये
ढाल दो
चाहे किसी भी रंग में
लेकिन जब हलक
सूख कर
तालू से चिपक जाती है
ज़ुबान
और मौत क़रीब दीखती है
तो
यही पानी
बन जाता है जीने की ज़रूरत
क्योंकि
ये मौत के सामने भी
अपना
रंग नहीं छोड़ता
बना रहता है बेरंग

- भूपेश पंत

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

ग़ुम राह !

भूपेश पंत

एक था अच्छाई का रास्ता। एक वक़्त था जब ये रास्ता गुलज़ार रहा करता था। सुबह से शाम तक लोगों की चहलकदमी से। कोई रास्ते की मज़ार पर चादर चढ़ाने जाता तो कोई भगवान की चौखट पर माथा टेकने। एक प्राइमरी स्कूल भी इसी रास्ते पर था। चहकते बच्चों का कलरव माहौल में हंसी और खुशी घोल देता था। लेकिन अब इस रास्ते की सूरत और किस्मत दोनों बदल चुकी हैं। लोगों की आमद बहुत कम हो चुकी है।  हालांकि कुछ पुराने लोग अब भी कभी कभार इस रास्ते पर उग आये झाड़ झंखाड़ के बीच रास्ता बना कर मंदिर और मज़ार तक हो ही आते हैं। लेकिन वो बात अब रही नहीं।स्कूल की जीर्ण शीर्ण हालत ने बच्चों के मन से पढ़ाई की ललक छीन ली है लिहाज़ा वो अब बंद है। रास्ते के किनारे फैल चुकी बेतरतीब झाड़ियों ने अच्छाई के इस रास्ते को घेर कर संकरा और चुनौतीपूर्ण बना दिया है।

दोराहे पर इसी रास्ते को अलग ही दिशा में ले जाने वाला एक और रास्ता है, बुराई का रास्ता। बीते कुछ सालों में ही ये रास्ता पगडंडी से राजमार्ग बनने का सफ़र तय कर चुका है। इस रास्ते पर एक शराब का ठेका खुल चुका है। आगे बढ़ कर एक श्मशान और कब्रिस्तान तो काफ़ी समय से हैं। कभी लोग इस पगडंडी की दिशा में जाने से भी कतराते थे। मजबूरी में यहां की झाड़ियां दिशा मैदान के ही काम आती थीं। लेकिन अब ये रास्ता अपने पूरे शबाब पर है। शराब के ठेके और आसपास के ढाबों में अलमस्त  भीड़ अक्सर रहती है। ऊपर से लोग अब मरने भी ज़्यादा लगे हैं। यानी सुबह को मौत का जुलूस और शाम को मौत का जश्न इस रास्ते की सबसे बड़ी खासियत है।

"और भाई अच्छाई, तुझ पर क्यों मुर्दानी सी छाई," बुराई के रास्ते ने अकड़ते हुए शायराना अंदाज़ में बदहाल पड़े अच्छाई के रास्ते से पूछा।

"क्या कहूं भाई, अच्छाई के क़द्रदान ही नहीं रहे। सब समय का फ़ेर है।" सुबकते हुए अच्छाई के रास्ते ने जवाब दिया।

बुराई के रास्ते ने उलाहना दी, "और चलो नेकी और भाईचारे की राह, देख लिया नतीजा। अरे ये लोग बेवकूफ़ी की हद तक भावुक हैं और आँख मूंद कर बात मान लेते हैं। बस इन्हें बरगलाने का तरीका आना चाहिये। मुझे देखो, मैंने भी तो यही किया।"

"मैंने तो जीवन भर लोगों को अच्छाई से जोड़ कर रखने की कोशिश की। बच्चों को शिक्षा से जोड़ा, लोगों को मज़हबी दोस्ती का पैगाम दिया और फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि लोगों ने मुझ पर चलना छोड़ दिया और तुम्हारी तरफ मुड़ गये।" अच्छाई के रास्ते ने बुराई के रास्ते से पूछ ही लिया।

बुराई के रास्ते का चेहरा आत्ममुग्धता से भरा हुआ था। विद्रूप सी हंसी के साथ वो फुसफुसाया,  "तुम तो धर्म की राह पर चलने वालों का इंतज़ार करते रह गये लेकिन मैंने खुद एक धर्म गढ़ लिया, नफ़रत का धर्म। मैंने लोगों को इसके जहर से मदहोश कर दिया। लोग आपस में लड़ने लगे और मेरे रास्ते पर श्मशान और कब्रिस्तान की भीड़ बढ़ने लगी। बेवकूफ़ों को ये नशा रास आने लगा। और फिर आज के दौर में सेल्फ मार्केटिंग कितनी ज़रूरी है और उसके लिये मीडिया का किस तरह इस्तेमाल करना है ये तुम क्या जानो। मैंने अपने ऊपर एक बड़ा सा बोर्ड लगा लिया, 'धर्म और मोक्ष का रास्ता' और फिर उसकी फोटो को सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया।"

बातचीत के दौरान रात गहरा चुकी थी और अच्छाई का रास्ता नयी सुबह के इंतज़ार में नींद के आगोश में जा चुका था। बुराई कुटिलता से मुस्कुरायी और राजपथ पर पसर गयी।

सच में!

जीत कर जो लोग संसार जाते हैं
वो कई पीढ़ियों को देश की तार जाते हैं।
भीड़ के मज़हबी उन्माद के आगे
कुछ वो हार जाते हैं कुछ हम हार जाते हैं।
ये शख्स अकेला क़ातिल नहीं होगा
जाना होगा वहां तक जहाँ ये तार जाते हैं।
नफ़रत की यही सीढ़ियाँ चढ़ कर
कुछ इस पार आते हैं, कुछ उस पार जाते हैं।
मत छेड़ तू इन भेड़ों की भीड़ को
ये अपने खुरों से अक़लियतों को मार जाते हैं।
चलो बना लेते हैं मचान यहीं पर
हर रोज यहां से, ग़रीबों के मददगार जाते हैं।
गढ़ ली गयी है अब इंसान की मूरत
अजायबघर में देखने चलो एक बार जाते हैं।
शहीदों की चिताओं पर ये तो देखो
वो काट कर उंगली बजरिये तलवार जाते हैं।
उसने रच लिया है तिलिस्म ऐसा
फूल बरसते हैं, जहां से भी सरकार जाते हैं।
ज़म्हूरियत का मजा बहल जाने में है
सोचने वाले तो इस दर से भी लाचार जाते हैं।

- भूपेश पंत

जिसे देश से प्यार है...

ज़िंदगी को ज़िंदगी की दरक़ार है
आँखों में आंसू हैं और चीत्कार है
मत उलझ इन मज़हबी बहसों में
कह भी दे कि तुझे देश से प्यार है।

गिरा डाल नफ़रतों की यह दीवार
फेंक दे हैवानियत के हर हथियार
तेरा धर्म इंसानियत की पुकार है
कह भी दे कि तुझे देश से प्यार है।

बांटने वालों पर तू ना ध्यान धर
तू इनके मंसूबों की पहचान कर
यही वक्त की सबसे बड़ी हुंकार है
कह भी दे कि तुझे देश से प्यार है।

सत्ता है क्या सब कुर्सी का खेल है
सच पर फंदा झूठ की रेलमपेल है
इनके झांसे में आने से इनकार है
कह भी दे कि तुझे देश से प्यार है।

उड़ रहे जो ये विकास के परिंदे हैं
आंकड़े नहीं हैं ये झूठ के पुलिंदे हैं
जिनमें टूटते सपनों की झनकार है
कह भी दे कि तुझे देश से प्यार है।

अन्नदाता ही जहां अन्न नहीं खाता
मर के भी जो कर्ज़ चुका नहीं पाता
तेरा जीवन उसका भी कर्ज़दार है
कह भी दे कि तुझे देश से प्यार है।

जो सीमा पर अपनी जां लुटाते हैं
तेरे लिये तिरंगा लपेट कर आते हैं
उन पर भी सियासत, धिक्कार है
कह भी दे कि तुझे देश से प्यार है।

अदालत के डंडे से ही चल रही है
अच्छे दिनों की आस, छल रही है
इसके लिये तो तू भी ज़िम्मेदार है
कह भी दे कि तुझे देश से प्यार है।

सरहदों से केवल बनता देश नहीं
लोग नहीं फिर कुछ भी शेष नहीं
आपस में ही क्यों मची तकरार है
कह भी दे कि तुझे देश से प्यार है।

जो बन बैठी है धूर्त, अहंकारी है
वही व्यवस्था है वही सरकारी है
तेरी नादानी का तुझही पर भार है
कह भी दे कि तुझे देश से प्यार है।

हां मुझे देश से प्यार है।

- भूपेश पंत

एक दिमाग़ की मौत!

(ब्रेन डेड सोसायटी)
भूपेश पंत

कहते हैं कि भीड़ का अपना दिमाग नहीं होता लेकिन ये भी सच है कि हर तरह की भीड़ के पीछे कोई न कोई दिमाग़ ज़रूर होता है। वो दिमाग़ कैसा और किसका होगा ये जानने की उत्सुकता एक रात मुझे आधी रात को शहर के उस अंधेरे कोने में ले आयी। अंधेरे को चीरती उल्लू की आवाज़ और फड़फड़ाते चमगादड़ों के बीच खँडहर में काले लिबास पहनी भीड़ जमा थी। इस तरह चीखती चिल्लाती मानो मौत का समारोह मन रहा हो। मैंने देखा कि भीड़ का दिमाग़ और चेहरा दोनों ही नहीं थे। मुझे देखते ही भीड़ ने मुझे किसी शिकार की तरह घेर लिया। मुझसे मेरी पहचान पूछी गयी और पूरी तसल्ली के लिये कई ऐसे फेसबुकिये कुतर्क किये गये ताकि जाना जा सके कि कहीं मैं दिमाग़ का इस्तेमाल तो नहीं करता हूँ। लेकिन मैं जानता था कि मेरी जरा सी भी होशियारी भीड़ को मुझ पर टूट पड़ने का मौका दे देगी। लिहाज़ा मेैंने उनके हर कुतर्क पर मौन साध लिया और भीड़ का हिस्सा बन गया। मुझे पता था कि शहर के किसी काले अंधेरे हिस्से में इस भीड़ को चलाने वाला कोई दिमाग़ और चेहरा ज़रूर होगा जिसे देखने को मैं उत्सुक था। भीड़ का उन्माद पूरे शहर पर पसरता गया। भीड़ भी बढ़ती गयी और मरने वाले भी। एक दिन ऐसा आया जब भीड़ का उन्माद अर्श पर था लेकिन उसका शिकार होने वाला कोई बचा नहीं। भीड़ लाशों के बीच किसी ज़िंदा शिकार को ढूँढ रही थी कि कहीं से आवाज़ आयी कि चलो अब बहुत हो गया, खत्म करो। मुझे भी लगा कि चलो ये भीड़ छटे तो वो चेहरा और दिमाग़ साफ दिखने लगेगा जो अभी नेपथ्य में गुम है। मैं बेसाख्ता बोल पड़ा कि हां, यही ठीक रहेगा। मेरी आवाज़ निकलते ही भीड़ ने मुझे घेर लिया और फिर मुझ पर टूट पड़ी। मौत को इस तरह अपनी ओर आते देख मुझे अहसास हो गया कि मैंने खुद को शैतानों के बाड़े में फैंक दिया है। भीड़ ये जान चुकी थी कि उनमें और मुझ में समझ का फ़र्क है। अपनी आख़िरी सांसें गिनते हुए अचानक मेरी अधखुली आंखों के सामने एक चेहरा नमूदार हुआ। वो चेहरा था सत्ता का। नफ़रत के दागों से भरा उसी की तरह सपाट और संवेदनहीन। और फिर जो मैंने देखा वो हैरान करने वाला था। सत्ता के बड़े बड़े नाखूनों वाले दोनों पंजों के बीच भीड़ में शामिल हर शख्स का दिमाग़ था लेकिन मेरा नहीं। शायद यही वजह थी मेरे मारे जाने की।

मुखौटा!

चुनावी जलसों में वही थे जहां भी हम गये
सबसे बड़े थे जो वो चेहरे मुखौटा बन गये।
एक टीस सी उठती है अब तो इस मन में
ओ हिंद की संतानो क्या थे, क्या बन गये।
जिन्हें इल्म था वो चिल्ला कर बोलने लगे
मंज़ूर था सब उन्हें तभी होंठों को सी गये।
मैं उनसे यूं ही शक्कर की तरै मिलता रहा
वो जाने कब मुझे चाय में घोल के पी गये।
जाहिलो अब कुछ अपने वजूद की सोचो
उन्हें मत कोसो जो अपना जीवन जी गये।
शेर उस रोज जब निकल आया पिंजरे से
शहर के कुत्ते सारे अपनी अपनी गली गये।
सोच कर किया था क़ातिल ने भी इंतज़ाम
मालूम था जैसे ही उससे नज़र मिली, गये।
- भूपेश पंत

सियासी दावत और पहाड़ी आम!


भूपेश पंत

पहाड़ों के आसमान पर इस साल फिर काले काले बादल घिर आए हैं. इसके साथ ही पहाड़ों के बाशिंदों के चेहरों पर भी आपदा की आशंका का खौफ पसर गया है. दुर्गम पहाड़ी रास्तों में ठूंस ठूंस कर भरे गए बसों के मुसाफिर मंजिल तक सुरक्षित पहुंचने की जद्दोजहद में लगातार जाप कर रहे हैं. मौसम के खराब सिस्टम ने पहाड़ की लोक संस्कृति को बचाने की राह में अड़ंगा डाल दिया है. उधर इन सबके बीच पहाड़ों के आम रागदरबारी गाते हुए अस्थाई राजधानी की ओर पलायन कर गए हैं. क्यों नहीं, आखिर दिग्गजों के दरबार से बुलावा जो आया है. इस दरबार में आम की बेहद खास जगह है. यहां बड़े-बड़े खास लोग जमा होकर आम चूसेंगे. आखिर आम की नियति भी यही है. जो आम पहाड़ में बच गए हैं वह बाकी जिंदगी अपनी किस्मत को कोसते हुए निकाल देंगे. यह तो पहाड़ से नीचे उतरे इन आमों का सौभाग्य है कि सियासी हाथों के चंगुल में फंस कर उनकी मौत एक खिलखिलाता समारोह बन जाएगी. इन आमों के बीच में बैठकर दावत उड़ाने वाले लोग खुद के खास होने का एहसास भी पूरे लुत्फ के साथ कर पाएंगे.
फलों के राजा होने के घमंड में फूले यह आम जब लोकतंत्र के असली राजाओं के दरबार में पेश होंगे तो उनसे यह नहीं पूछा जाएगा कि बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए. बस हाथ में लेकर चूस लिया जाएगा और थोड़ी ही देर में यह आम गुठली में तब्दील होकर मुआवजे के इंतजार में किसी कोने में पड़े होंगे. जितनी ज्यादा गुठलियां उतना ही बड़ा जश्न. अपने अपने समय के हाकिम यह बखूबी जानते हैं कि सियासत में आम के आम और गुठलियों के दाम की कितनी अहमियत है. सियासत में यह भी जरूरी है कि जब राजधानी में आम की दावत उड़ाई जा रही हो तो पहाड़ की जनता अपनी समस्याओं के पेड़ गिनने में व्यस्त रहे. दरअसल यही लोकतंत्र का असली पर्व है जहां राजनीति के दोनों छोर मिल जुलकर आम का भोग करने के लिए एक और पार्टी का गठन करते हैं. मूर्खो इसे ही सियासी जुबान में आम पार्टी कहते हैं.
Posted by: News Trust of India 09/07/2018

और लगाओ दरबार !


भूपेश पंत

जनता की समस्याओं को सुनने के लिये राजा ने दरबार लगाने की मुनादी क्या करवाई, अनपढ़, गंवार और लाचार लोगों ने तो जैसे लोकतंत्र की स्थापना का जश्न ही मनाना शुरू कर दिया। वो ये भूल गयी कि राजा आज भी राजा ही है। समय समय पर लोगों के लिये दरबार लगाना दरअसल उसकी इसी प्रभुसत्ता को सार्वजनिक रूप से स्थापित करने की सतत प्रक्रिया है। राजा अगर खुश हुआ तो फ़रियादी पर ईनामों की झड़ी लगा दे और अगर कोई उसकी सत्ता को चुनौती देने का दुस्साहस करे तो भरे दरबार में उसका सिर भी कलम करा सकता है। इससे पूरे राज्य को ये संदेश और बेहतर तरीके से जाता है कि राजा से बगावत करने वालों का यही अंजाम होगा।
राज्य के विकास की बाट जोह रही प्रजा को इतनी समझ कहां कि वो अपनी लक्ष्मण रेखा के भीतर रह सके। वो तो राजतंत्र के भीतर लोकतंत्र के प्रस्फुटित होने का जश्न मनाने में जुटी है। इस जोश में कोई लाचार फ़रियादी अपनी मर्यादा ही भूल जाये तो इसमें राजा का क्या दोष। आखिर वो राजा है जो कभी भी गुस्से में आ सकता है क्योंकि उसके लिये मर्यादा की सीमा रेखा वही है जो उसने अपने लिये तय की है। लेकिन फ़रियादी को ये नहीं भूलना चाहिये कि वो राजा के दरबार में जा रहा है और वहां के कुछ नियम कायदे होते हैं। फ़रियादी कितना भी क्षुब्ध क्यों ना हो उसे राजा के सामने तेज आवाज में बात करने की इजाज़त नहीं है। रीढ़ की हड्डी को दोहरा किये बिना राजा से आंखें मिला कर बात करना बग़ावत की श्रेणी में आता है।
राजा फ़रियादी की समस्या का समाधान करने का आश्वासन दे या न दे, उसे झुक कर और मुस्कराते हुए उल्टे पाँव राजा को इस तरह दुआएं देते हुए जाना होगा कि राजा के दर्शन कर पाना ही उसके लिये सौभाग्य की बात है। राज्य के अधिकारियों के भ्रष्टाचार की कोई शिकायत सहन नहीं की जायेगी और इसे सामने लाने वाले किसी भी मामले में राजा जीरो टॉलरेंस अपनाते हुए तत्काल फ़रियादी की गिरफ़्तारी का हुक्म दे सकता है। जो फ़रियादी किसी वजह से दरबार में अपनी बात ना कह पाये उसे राजा की मुस्कुराहट को ही सत्ता का आशीर्वाद समझ कर धन्य हो लेना चाहिए। और खबरदार जो किसी फ़रियादी ने दरबार में अपनी जान लेने की कोशिश भी की तो, क्योंकि प्रजा की जान पर राजा का हक है और उसे निकालने के लिये उसकी अपनी व्यवस्था है। फ़रियादी के इस दुस्साहस को राजा के इस सिस्टम के नाकारेपन के तौर पर लिया जा सकता है लिहाजा ये राजद्रोह माना जाएगा।
गार्ड ऑफ ऑनर दे दे कर जिन जनसेवकों को मौन साधे जन प्रतिनिधि और जननायक बनाए जा रहे हो और लोकतंत्र को दरबार तंत्र बनाने पर तुले हो तो फिर झेलो ना दरबार के नियम कायदे भी। बात करते हैं….।
Posted by: News Trust of India 30/06/2018

लोकतंत्र हमारा, मीडिया तुम्हारा!


भूपेश पंत

देश में अगले आम चुनाव के लिये सियासी ऊंट करवटें लेने की तैयारी कर रहा है और लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी मीडिया ने हर दल का अपने अपने तरीके से सियासी मूल्यांकन करना भी शुरू कर दिया है। उनकी गिद्ध दृष्टि केंद्र और विपक्ष के सियासी नफा नुकसान के लिहाज़ से ज़मीन पर रेंग रहे मुद्दों पर झपट्टा मारने के लिये बेताब है। लेकिन मुझे कोई ये बताये कि ये कैसा लोकतंत्र है जहां किसी संभावित गठबंधन की आलोचना मीडिया के एक हिस्से में इस बात के लिये हो रही है कि उसका नेता अभी तय क्यों नहीं है। भारतीय लोकतंत्र किसी भी राजनीतिक पद के लिये सबको समान अवसर की भावना को स्थापित करता है लेकिन सच तो ये है कि देश की ज्यादातर पार्टियों का आंतरिक लोकतंत्र इस भावना से कोसों दूर नजर आता है। कहीं पार्टी के उच्च पदों पर एक ही परिवार का कब्जा है तो कहीं एक परिवार से जुड़े व्यक्ति पर ही पूरी पार्टी की चुनावी नैया पार लगाने का दारोमदार है।
ऐसे में राजनीतिक पार्टियों की इस लोकतंत्र विरोधी मानसिकता का समान रूप से विरोध करने की बजाय जब मीडिया का एक तबका सियासी हाथों में खेलते हुए एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर ही सवाल उठाने लगता है तो हैरानी होती है। आखिर क्यों आज ही ये तय हो जाना चाहिये कि अमुक गठबंधन के जीतने पर कौन किस पद पर आसीन होगा। मीडिया को ये जानने में क्यों दिलचस्पी है कि भानुमती के कुनबे की भानुमती कौन होगी। आखिर इसके जरिये देश के मतदाताओं को मीडिया का ये तबका कौन सा संदेश देने की कोशिश कर रहा है। क्या वो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिये चुनाव से पहले किसी मुद्दे को स्थापित करने की फिराक में हैं भले ही इसके लिये लोकतांत्रिक व्यवस्था को ताक पर क्यों ना रखा जाये या फिर किसी के सियासी फायदे के लिये खुद को हथियार बनाने की कोशिश है। नफा नुकसान के भंवर में फंसे मीडिया का ये तबका शायद कामयाबी के शॉर्टकट का सफ़र तय कर रहा है लेकिन ऐसा करके क्या वो कहीं ना कहीं देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को खोखला नहीं कर रहा है।
कोई भी सियासी दल किसी भी चुनाव में अपने विरोधियों पर तरह तरह के राजनीतिक आरोप लगाता है जो कभी साबित नहीं होते। सियासी जंग में जुमलों का इस्तेमाल भी अब कोई नयी बात तो नहीं है। लेकिन चुनावी राजनीति में कोई भी दल अपनी संवैधानिक और लोकतांत्रिक मर्यादा को पार ना करे ये तय करने की जिम्मेदारी मीडिया की भी है। ऐसे में अगर मीडिया का कोई हिस्सा जाने अनजाने इस लोकतंत्र विरोधी सियासी मुद्दे को चटखारे ले लेकर आगे बढ़ाता है तो वो पत्रकारिता के ही नहीं लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन में भी बराबर का हिस्सेदार है।
मेरा मानना है कि निष्पक्ष होना बेहद मुश्किल है। इस प्रक्रिया में अकसर खून के आंसू रोने पड़ते हैं और जहर के घूँट पीने पड़ते हैं। कभी कभी तो अंतरात्मा की आवाज़ को भी अनसुना करना पड़ता है। ज़ाहिर है ऐसे में निष्पक्षता का दावा करने वाले तथाकथित मीडिया को किस दर्द से गुजरना पड़ता होगा ये मैं कुछ हद तक समझ सकता हूँ। लेकिन इस दर्द से आराम पाना चाहें तो वो इस देश के संविधान, लोकतांत्रिक सिद्धांतों, जनता के हितों और सच के पक्ष में खड़े होकर पा सकते हैं। वर्ना हो सकता है उनकी वजह से पूरी मीडिया बिरादरी ही आने वाले समय में ये विकल्प पूरी तरह से खो दे।
Posted by: News Trust of India 22/06/2018

पिक्चर अभी बाकी है….!




भूपेश पंत

अगले साल होने वाले आम चुनाव के लिए बीजेपी की ओर से बिसात बिछनी शुरू हो गई है। मेरा मानना है कि जम्मू कश्मीर में सरकार को गिराने का यह फैसला दोनों दलों की नूरा कुश्ती से अधिक कुछ नहीं है और इससे होने वाला राजनीतिक ध्रुवीकरण अगले आम चुनाव और जम्मू कश्मीर के विधानसभा चुनाव में दोनों दलों के लिए काफी अहम साबित होगा।
बीजेपी की साफ मंशा अगले 1 साल में राज्यपाल शासन के दौरान आतंकवाद और इसके जरिए राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाकर अगला आम चुनाव लड़ने की है। राज्य में हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि कोई भी दूसरा राजनीतिक दल नई गठबंधन सरकार के गठन के जरिए राज्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखने और उससे होने वाले राजनीतिक नुकसान का जोखिम नहीं लेना चाहता। लिहाजा जम्मू कश्मीर में हर राजनीतिक दल इस वक्त गवर्नर के शासन को एक मात्र विकल्प मान रहा है। बीजेपी भी यही चाहती थी कि गवर्नर के शासन के जरिए राज्य की कमान केंद्र के हाथों में आ जाए। बीजेपी ने जिस तरह महबूबा मुफ्ती की पीडीपी के साथ इस तलाक को अंजाम दिया उसकी नाटकीयता पर्दे के पीछे के किसी खेल को उजागर करने की हिमायत जरूर करती है।
फैसले के वक्त को देखें तो जम्मू कश्मीर की आवाम के लोकतांत्रिक हितों को ताक पर रख कर लिया गया यह फैसला राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित लगता है। क्या कारण है कि रमजान में सीजफायर के जिस फैसले को इसकी एक अहम वजह बताया जा रहा है उसे लेने से पहले ही सरकार से अलग होने का फैसला नहीं लिया गया। सोशल मीडिया में सरकार के इस फैसले की काफी आलोचना हो रही थी। लेकिन अगर यह फैसला तब ले लिया गया होता तो बीजेपी पर पूरी तरह से मुस्लिम विरोध का ठप्पा लग जाता। उसने जहां एक और इस एक महीने के मौके को बढ़ती पत्थरबाजी और आतंकवादी घटनाओं के जरिए अपने वोट बैंक में राष्ट्रवाद को उत्प्रेरित करने के लिए इस्तेमाल किया वही मुस्लिम वोट बैंक को भी लुभाने की कोशिश की।
इस एक महीने के अंतराल ने दोनों दलों को यह मानने के लिये तैयार कर दिया कि इस वक्त साथ छोड़ना सियासी तौर पर सबसे मुफीद होगा। यही वजह है कि इस फैसले के बाद बीजेपी ने सरकार में शामिल रहने के बावजूद इसका ठीकरा पीडीपी पर फोड़ा तो दूसरी ओर महबूबा मुफ्ती ने भी धारा 370 को बरकरार रखने समेत अपनी पार्टी की सरकार की उपलब्धियां गिनाने में देर नहीं की।
जाहिर है बीजेपी को लगता है कि जम्मू कश्मीर के मौजूदा और आने वाले घटनाक्रमों का लाभ अगले आम चुनाव में पूरे देश में उसे मिल सकता है जबकि पीडीपी खुद को सीजफायर और जम्मू कश्मीर की आवाम की हिमायती बताते हुए अगले आम चुनाव में बहुमत की अपील के साथ इसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश करेगी। यानी इस एक राजनीतिक दांव से दोनों ही दलों ने अपने पाप धोने की कोशिश की है। सियासी शतरंज पर इस बिसात को उसी दिन बिछा दिया गया था जब यह बेमेल गठबंधन सामने आया था। आज इस नाटक का अंत हो गया। लेकिन पर्दा अभी गिरा नहीं है… पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त।
Posted by: News Trust of India 19/06/2018

चौकीदार!

चौकीदार ने कहा चौकीदार क्यों हो
लुटे घर के तुम, पहरेदार क्यों हो।
पांच साल पर जिसे ले लिया मैंने
तुम आज भी उसके ठेकेदार क्यों हो।
जो खेल भीड़ का चल रहा है आज
चौरासी से उसके जिम्मेदार क्यों हो।
परिवार छोड़ कर भी परिवार का हूं
तुम एक परिवार की सरकार क्यों हो।
चुनाव में अब न चलेगी तुम्हारी पसंद
पसंद को लेकर तुम्हीं गद्दार क्यों हो।
चार साल में मैं बना पेड़ बबूल का
तुम आज भी इतने हवादार क्यों हो।
मैं जीत के भी क्यों भुला दिया गया
तुम हार के भी बने यादगार क्यूं हो।
मेरी फ़ितरत है जो वो छोड़ूंगा नहीं
गले मिलने को तुम तैयार क्यों हो।
मैंने चुका दिये थे तेरे कर्ज तो सभी
तुम आज भी मेरे कर्जदार क्यों हो।
काश देख पाते मेरे हाथों का कमाल
आंख की हरकत पर शर्मसार क्यों हो।
कुत्ते ने कहा आज सरेआम मुझसे
तुम किसी और के वफादार क्यों हो।

- भूपेश पंत 

लोकतांत्रिक रामराज्य!

भूपेश पंत

देश की मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था रामराज्य की ओर बढ़ रही है। रामायण कालीन कई दृश्य आंखों के आगे साकार होकर इस बात का भरोसा दिला रहे हैं कि देश सही हाथों में है। एक ओर जहां देश को पाप मुक्त बनाने के लिये चल रहे अश्वमेघ का घोड़ा निर्बाध दौड़ कर राजतंत्र की पुनर्स्थापना के लिये आतुर है तो वहीं मामा मारीच स्वर्ण मृग की झलक दिखा कर माता सीता को सम्मोहित करने में लगे हैं। ये वही मृग मरीचिका है जिसका आनंद देश की जनता पिछले कई सालों से ले रही है। श्री राम अब मामा मारीच के भ्रमजाल में फंस चुके हैं और स्वर्ण मृग को पाने की अभिलाषा उन्हें लोकतंत्र रूपी माता सीता से दूर ले आयी है। मारीच के कपट भरे जुमले से भ्रमित लक्ष्मण सुरक्षा रेखा खींच कर मौके पर रिपोर्टिंग के लिये जा चुके हैं। माता सीता घने वन के बीच अपनी कुटिया में नितांत अकेली हैं। अब इंतज़ार है तो बस संन्यासी के रूप में रावण के आने का.....

बिहार: सत्ता की प्यास और सिद्धांतों की लाश!

भूपेश पंत

देश की सियासत के मौजूदा दौर में बिहार का ताज़ा राजनीतिक उलटफेर अप्रत्याशित नहीं लेकिन जेडीयू नेता और सीएम नीतीश कुमार ने सत्ता की चाह में जो राह पकड़ी है उसकी उम्मीद कई राजनीतिक विश्लेषकों ने नहीं की थी. भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सिद्धांतों से समझौता ना करते हुए नीतीश कुमार ने जिस तरह अपने कई मूल्यों, विरोधों और सिद्धांतों की बलि चढ़ा दी, उसकी परिणति उनके छठी बार बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के रूप में हुई. फर्क है तो इतना कि इस बार बिहार में महागठबंधन की नहीं विकास के नाम पर बीजेपी की बैसाखियों पर चलने वाली नीतीश-मोदी की गठबंधन सरकार बनी है. आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव अब भले ही नीतीश को लेकर सार्वजनिक तौैर पर कुनमुनाते रहें लेकिन इस तथाकथित पूर्वनियोजित स्क्रिप्ट को अंजाम तक पहुंचाने में उनका योगदान भी कम नहीं है.

लालू यादव ने कहा कि नीतीश ने छल किया है, क्योंकि तेजस्वी के खिलाफ हुई सीबीआई की कार्रवाई के पीछे उन्हीं का हाथ है. उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री पद से नीतीश का इस्तीफा एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ है. सबकुछ फिक्स था, कब कार्रवाई करनी है और कब तेजस्वी से इस्तीफा मांगना है.

वैसे देखा जाये तो बिहार में लालू परिवार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों और खासतौर पर उपमुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव के इस्तीफे की मांग को लेकर नीतीश के अलग राह पकड़ने के कयास लगने लगे थे. तेजस्वी के इस्तीफे को लेकर आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव का अड़ियल रुख नीतीश की राह को और भी आसान बना रहा था. नीतीश के पास भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के अपने सिद्धांत से समझौता करने के अलावा दो ही विकल्प थे. पहला कि वो महागठबंधन को तोड़ कर विधानसभा भंग करने की सिफारिश करते और नयी सरकार के लिये चुनावों का रास्ता साफ करते. इससे जहां उनकी सुशासन बाबू की छवि में ईमानदार और सिद्धांतवादी राजनेता होने का तड़का लगता वहीं बीजेपी से दूरी बनाकर वो अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को भी बरकरार रख पाते. लेकिन नोटबंदी समेत केंद्र की मोदी सरकार के कई फैसलों के लिये उनकी तारीफ कर चुके नीतीश को मोदी लहर पर सवार होना सियासी तौर पर शायद ज्यादा आसान लगा. जाहिर है नीतीश ने बीजेपी के सहयोग से सरकार बनाने का दूसरा विकल्प चुना. राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार को समर्थन देकर नीतीश ने अपनी राजनीतिक बिसात बिछाने में देर नहीं की. बीजेपी की ओर से सुशील कुमार मोदी पहले ही खुले तौर पर नीतीश को समर्थन का भरोसा दे चुके थे. जाहिर है बिहार का ये सियासी उलटफेर आने वाले दिनों में राज्य की सियासत की एक नयी इबारत गढ़ेगा जिसमें जेडीयू को अपनी साख के रूप में एक बड़ी कीमत अदा करनी होगी.

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने नीतीश कुमार पर तीखा हमला बोला है. राहुल गांधी ने कहा कि सत्ता के लिए व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, कोई नियम नहीं है.

नीतीश कुमार को अपने पाले में खींच करके पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने एक तीर से कई शिकार किये हैं. जहां एक ओर मिशन बिहार की कामयाबी से बीजेपी ने राज्य की सरकार में शामिल होकर विपक्ष मुक्त भारत के अपने एजेंडे को विस्तार दिया है वहीं, राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एकजुट होने की कोशिश कर रहे विपक्ष की कमर तोड़ कर रख दी है. दूसरी ओर गुजरात दंगों को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना करने वाले और बिहार के डीएनए को मुद्दा बना चुके नीतीश को विपक्ष से मौकापरस्त होने का तमगा मिलने से भी बीजेपी को ही सबसे अधिक फायदा है. सरकार में हिस्सादारी करके अगले चुनावों तक अपनी स्थिति और मजबूत बनाने के लिये बीजेपी के पास पूरे तीन साल हैं. बशर्ते इन सालों में नीतीश-मोदी सरकार के आड़ेे कोई और सिद्धांत न आये. सूबे की सियासत में उछले भ्रष्टाचार के मुद्दे को भुनाने में इस बार भी कांग्रेस कमजोर कड़ी बन कर उभरी. राहुल-नीतीश मुलाकातों से ऐसा कोई फार्मूला सामने नहीं आया जो महागठबंधन में बिखराव को रोक पाता. आरजेडी अध्यक्ष लालू यादव और उनके परिवार के दूसरे सदस्यों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों पर सीबीआई और ईडी की कार्रवाई के बीच कांग्रेस अब तक अपना स्टैंड साफ नहीं कर पायी है. उधर नीतीश को निशाना बना कर लालू यादव के बयानों में उनकी ये खीज ही सामने आ रही है कि नीतीश को धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर राजनीतिक रूप से ब्लैकमेल कर पाने की उनकी उम्मीद धरी की धरी रह गयी.

Congratulations to @NitishKumarji & @SushilModi ji. Looking forward to working together for Bihar’s progress & prosperity. — Narendra Modi (@narendramodi) July 27, 2017

देश में जहां एक ओर आम लोगों के बुनियादी मुद्दे कभी नोटबंदी, कभी जीएसटी तो कभी देशभक्ति के तूफान में कम से कम हाशिये पर टिके रहने की जद्दोजहद कर रहे हैं, वहीं येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने की बीजेपी की मुहिम रंग लाती दिख रही है. मीडिया से लेकर सियासत तक अपने वर्चस्व को कायम रखने की ये कोशिश कभी देश में एकछत्र राज कर चुकी कांग्रेस की याद दिलाती है. और ये भी याद दिलाती है कि सत्तारूढ़ दल की नीयत ही उसकी नियति का निर्धारण करती है. लोकतंत्र, संविधान और राजधर्म की रक्षा के लिये देश में एक मजबूत विपक्ष का होना आज भी उतना ही ज़रूरी है जितना आपातकाल के दौरान था. विपक्ष अगर बीजेपी के इस वार से जल्द उबर नहीं पाया तो देश आने वाले समय में एक और निरंकुश सरकार के निजाम का गवाह बन सकता है. सच है कि आसमान की ओर फैंका जाने वाला पत्थर उतनी ही तेजी से नीचे भी आता है. कांग्रेस के इतिहास से सबक लें तो लगता है कि गुरुत्वाकर्षण का ये वैज्ञानिक नियम सियासी दलों पर भी लागू होता है. और एक सच ये भी है कि लोकतंत्र में जनता का वोट ही इस गुरुत्वाकर्षण बल की तीव्रता का पैमाना होता है, जिसे कई बार बेवकूफ बनाया जा सकता है लेकिन सबको नहीं और हर बार नहीं.
Posted by: News Trust of India 27/07/2017

चीन पर निगाहें, नेहरु पर निशाना!

"जो समाज अपने इतिहास के नायकों का सम्मान नहीं करता उसकी कोख से सिर्फ खलनायक ही जन्म लेते हैं."
भूपेश पंत

सोशल मीडिया पर इन दिनों चीन को लेकर एक अलग तरह का आक्रोश देखने को मिल रहा है. दिलचस्प बात ये है कि आभासी दुनिया के देशभक्त रणबांकुरे चीन के मौज़ूदा आक्रामक तेवरों को देश के पहले प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरु की चीन नीति और 1962 के युद्ध में मिली हार से जोड़ते हुए उनके मान मर्दन से भी परहेज़ नहीं करते. वे लोग भूल रहे हैं कि इतिहास की स्वस्थ समीक्षा के लिये उस दौर से जुड़े हर पहलू पर ध्यान देने की जरूरत होती है. पूर्वाग्रह और संकीर्ण मानासिकता से की गयी आलोचना आने वाली पीढ़ियों के सामने इतिहास का केवल एकांगी और विकृत चेहरा ही पेश करेगी

स्वस्थ आलोचना करना हमारा लोकतान्त्रिक अधिकार है लेकिन किसी की मृत्यु के बाद उसकी कुछ (सामूहिक) विफलताओं की आड़ लेकर उसके महत्वपूर्ण योगदान को नकारना भारतीय संस्कार नहीँ है और ना ही देशभक्ति का परिचायक. जो समाज अपने इतिहास के नायकों का सम्मान नहीं करता उसकी कोख से सिर्फ खलनायक ही जन्म लेते हैं. नेहरु, गाँधी या देश की आज़ादी से लेकर उसके विकास में शामिल लोगों से कई मामलों में इत्तफ़ाक न रखने के बावजूद मैं उनकी सकारात्मक भूमिका को नकार नहीं सकता. मेरा मानना है कि बुतों को तोड़ना तालिबानी कृत्य है और बुत केवल हथौड़े से नहीँ तोड़े जाते.

चलते चलते एक कहानी….

एक बार प्रधानमंत्री पंडित नेहरू दौरे पर एक गाँव में पहुंचे. वहां लोगों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया और वो उनसे उनकी समस्याएं सुनने लगे. तभी अचानक भीड़ से एक बूढ़ी महिला सामने आयी और पंडित नेहरू का गिरेबान पकड़ कर गुस्से से बोली कि मैंने देश की आज़ादी की लड़ाई में अपने दोनों बच्चे खो दिए और बदले में मुझे क्या मिला? पंडित नेहरू उसके हाथों को अपने हाथ में लेकर शांत स्वर में बोले माताजी आपको ये अधिकार मिला है कि आप अपने प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर उससे ये सवाल पूछ सकती हो.

आइये पंडित नेहरू और आज़ादी की लड़ाई में शहीद हुए तमाम जाने अनजाने लोगों को याद करें और लोकतंत्र के इस सबसे बड़े अधिकार को भी जिसे हमें हर हाल में सुरक्षित रखना है. जय हिंद .

Posted by: News Trust of India 07/07/2017