शनिवार, 29 दिसंबर 2018

चौकीदार-2

 (लघुकथा)

बाज़ार जाने के लिये जैसे ही घर से निकला निगाह मेन गेट के पास ज़मीन पर बैठे चौकीदार पर गयी। माथे पर हाथ लगाये जैसे वो कुछ सोच रहा था। मैंने भी उसे नहीं टोका और कार की तरफ़ बढ़ गया। लेकिन उस नामुराद ने मुझे देखते ही सिर को झटका और छलांग मारता सामने खड़ा हो गया। मैंने उसके चेहरे पर सूचना, सवाल और सलाह तीनों एक साथ देखे। वो एक सांस में बोला, साहब जी ये जो हैं बड़े वाले, उन्होंने अपने सारे नाम च से ही रखे हैं। चाय वाला और चौकीदार। च से यही नाम मिले थे क्या? ये कोई ऐसा नाम क्यों नहीं ढूंढ लेते जिससे किसी को भी कोई दिक्कत महसूस न हो। मेरी नाराज़गी भांप कर उसने जाते जाते सफाई दी, साहब बहुत नाम होते हैं बाकी जैसी जिसकी सोच। मेरा इशारा किसी गलत शब्द की ओर नहीं है और न ही मैं अपनी पोस्ट तक पर किसी को गाली देने और मारपीट का समर्थन करता हूँ लेकिन बस वो चुनाव से पहले कोई नया नाम ढूँढ लें। बड़ी किरपा होगी।

- भूपेश पंत

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