मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

जड़ों से जुड़ो अभियान

जड़ों से जुड़ो अभियान पर आपकी प्रतिक्रियाएं




एक जनांदोलन की मौत

भूपेश पंत

लड़ भिड़ कर उत्तराखंड के लोगों ने अलग राज्य की अपनी मांग मनवा ही ली। इस मांग को लेकर हुए जनांदोलन को इक्कीस साल बीत गये और राज्य मिले पंद्रह साल। यूपी के पर्वतीय इलाके की उपेक्षा और योजनाओं में पहाड़ की अनदेखी के आक्रोश से जन्मा था ये जनआंदोलन। हर क्षेत्र में पिछड़े इस पर्वतीय इलाके के लोगों का गुस्सा भड़काने का काम किया आरक्षण के मुद्दे ने। लोग आरक्षण के विरोधी नहीं थे लेकिन भौगोलिक आधार पर अपने पिछड़े होने के बावजूद जातीय आधार पर अवसरों में कटौती का अहसास उन्हें सड़कों पर उतार लाया और देखते देखते ये आंदोलन अलग राज्य की मांग में तब्दील हो गया। क्या छात्र, क्या महिलाएं, क्या कर्मचारी और क्या कारोबारी, अपने अस्तित्व को बचाने की इस जद्दोजहद में हर कोई भागीदार था। राजनीतिक दलों ने आंदोलन की आंच में सियासी रोटियां सेंकनी शुरू कीं लेकिन जनता के इस आंदोलन की कमान ना तो कोई सियासी दल अपने हाथ में ले पाया और ना ही कोई नेता। तत्कालीन यूपी सरकार का दमनचक्र भी चरम पर था। खटीमा, मसूरी, नैनीताल, मुजफ्फरनगर से लेकर दिल्ली तक खून के छींटे भी उड़े और आंदोलन की तपिश भी महसूस की गयी। सड़कों पर उतरा हर व्यक्ति अलग राज्य के निर्माण में अपनी भागीदारी निभा रहा था। भागीदार वो भी थे जो अपने घरों, मोहल्लों और गांवों में पुलिसिया गिरफ्त से बच कर पहुंचे अनजाने चेहरों को छत और खाना मुहैया करा रहे थे। भागीदार वो लोग भी थे जिन्होंने आंदोलन की कामयाबी की दुआएं मांगीं।

इस जन आंदोलन ने उत्तराखंड को बहुत कुछ दिया। अपमान, पीड़ा, शहादत, उत्पीड़न और बलात्कार की नींव पर उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ और साथ ही मिली आंदोलन से उभरे नेताओं की नयी फौज। ये वो लोग थे जिनमें उत्तराखंड राज्य को लेकर भावनाओं का ज्वार था, कुछ सपने थे और व्यवस्था के प्रति एक आक्रोश था। सियासत में अधपके ये लोग सियासी दलों के खांटी नेताओं के लिये बहुत बड़ा खतरा थे जो नये राज्य के निर्माण में अपने लिये नयी संभावनाएं तलाश रहे थे। जो नेता जन आंदोलन की अगुवाई तक नहीं कर पाये वही नये राज्य की सियासत के सबसे बड़े सूबेदार बन कर अगली पंक्ति में जा खड़े हुए। नेताओं और नौकरशाहों के चमकते चेहरे अपनी सियासी और माली हालत में सुधार की पूरी गुंजाइश देख रहे थे। खतरा था तो बस उन नौजवानों और जागरूक बुद्धिजीवियों से, जो अपने सपनों के नये राज्य में पहाड़ के सुलगते सवालों का हल तलाश रहे थे। बस यहीं से शुरू हुई आंदोलन में भागीदारी के रिटर्न गिफ्ट बांटने की सियासत। नवोदित पर्वतीय राज्य के सियासी आकाओं ने आंदोलन से जुड़े लोगों को सहूलियतों, रियायतों, प्रमाणपत्रों और नौकरियों का झुनझुना दिखाना शुरू किया। ये वो सियासी दांव था जो और किसी भी नवोदित राज्य में नहीं चला गया। लोगों को भी लगा कि अगर सरकार उनके त्याग और बलिदान की कीमत चुका रही है तो इसमें बुरा क्या है। आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण के नाम पर लोगों को खेमों में बांट दिया गया। अपने अपने लोगों को आंदोलनकारी घोषित करने की औपचारिकता शुरू हुई। आंदोलन के दौरान मारे गये शहीदों के नाम पर स्मारक बना कर औपचारिकता पूरी कर दी गयी। सोचा ये जाना था कि नये राज्य के पुराने मुद्दों का हल कैसे मिले, पहाड़ की दुश्वारियां कैसे दूर हों और विकास के सपनों को कैसे साकार किया जाये। लेकिन आंदोलन की कोख से जन्मे आंदोलनकारी अपनी ऊर्जा इस बात पर खर्च करने लगे कि आंदोलन में भागीदारी की ज्यादा से ज्यादा कीमत उन्हें कैसे मिले और दूसरों को कैसे नहीं। पहाड़ के वास्तविक मुद्दों को पेंशन की रकम, चिह्नीकरण में आ रही दिक्कत, सम्मान पाने की होड़ और रियायतों की झड़ी से ढक दिया गया। जुझारू लोगों को सुविधाभोगी बनाने की साजिश रची गयी। वो आंदोलनकारी जो नये राज्य के बेहतर निर्माण में नींव के पत्थर बन सकते थे उन्हें एक ऐसे ढांचे के कंगूरे बना कर सजा दिया गया जिसकी नींव में भ्रष्टाचार, ऐय्याशी, शराब माफिया, खनन माफिया, भू माफिया और अपराध जैसी दीमकें आज भी रेंग रही हैं। सियासी दलों को अपने इस दांव से राहत भी मिली और रोजगार भी। कुछ आंदोलनकारी आज भी राज्य के मुद्दों को लेकर छिटपुट लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन स्वार्थों की सियासत न तो उन्हें एकजुट होने दे रही है और न ही मजबूत। राज्य आंदोलनकारियों के नाम पर हो रही सियासत का ये एक ऐसा भद्दा चेहरा है जो लोगों के त्याग और कुर्बानियों को सरकारी पलड़े में तोल कर उसकी बोली लगा रहा है। हैरानी की बात तो ये है कि सियासत के इस मकड़जाल में फंसे लोग खुद आगे बढ़ चढ़ कर अपनी बोली लगा रहे हैं। जैसे कि वो आंदोलन में कूदे ही थे ये सब पाने के लिये। ये जनांदोलन और उससे जुड़े सपनों की मौत नहीं तो और क्या है?    


सियासत का 'स्थाई' दांव

सब तैयार, क्यों चुप सरकार

भूपेश पंत

(पहाड़ के नाम पर जम कर सुर्खियां बटोर रहे मुख्यमंत्री हरीश रावत गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने के मुद्दे पर खामोश हैं। उधर गैरसैंण और देहरादून में नयी विधानसभाएं बनाने का फैसला लोगों की उलझन और बढ़ा रहा है। गैरसैंण में विधानसभा सत्र चला कर उसे ग्रीष्मकालीन राजधानी के तौर पर स्थापित किया जा रहा है। लोग कह रहे हैं कि पर्वतीय राज्य में शीतकालीन राजधानी का औचित्य तो फिर भी समझ में आता है लेकिन सरकार जैसे कुछ समझने को तैयार नहीं है। मगर सियासत में जो होता है वो दिखता नहीं और जो नहीं दिखता वही होता है। ज़ाहिर है हरीश रावत भी ये कहावत जानते हैं कि बंद मुट्ठी लाख की, खुल गयी तो खाक की।)  
   
गैरसैंण पर घमासान जारी है। दनादन विधानसभा के सत्र गैरसैंण के लोगों को तोहफे में दिये जा रहे हैं। रावत सरकार अचानक पहाड़-पहाड़ चिल्लाने लगी है। कांग्रेस के भीतर से ही गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग मुखर हो चुकी है। फिलहाल ग्रीष्मकालीन राजधानी और विधानसभा सत्र के नाम पर वहां विधानसभा भवन और दूसरे स्थायी निर्माण कार्य चल रहे हैं। कांग्रेस पर राजनीति करने का आरोप लगा रही बीजेपी खुद गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की सियासत में जुटी है। सोशल मीडिया से लेकर संगठनों के बीच वैचारिक और राजनीतिक स्तर पर गैरसैंण का मुद्दा गरमाया हुआ है। उत्तराखंड के क्षेत्रीय दल यूकेडी ने इस मुद्दे पर गैरसैंण विधानसभा सत्र के घेराव का एलान कर दिया है। पूरा माहौल ऐसा बन गया है जैसे पहाड़ के पैरोकार गुफाओं से निकल निकल कर बाहर आ रहे हों। सेनाएं सज चुकी हैं। सैनिक टूट पड़ने को आतुर हैं लेकिन किस पर ये नहीं पता। जब सभी लोग गैरसैंण के पक्ष में खड़े हैं तो आखिर ये लोग लड़ेंगे भी किससे।
गैरसैंण को पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की स्थायी राजधानी बनाने का मुद्दा उत्तराखंड राज्य की मांग के समय से ही उठता आया है। खुद को राज्य और राजधानी की सियासत का झंडाबरदार मानने वाला यूकेडी इस मुद्दे पर अपना हक जताता आया है। लेकिन वक्त के साथ बिखर चुके इस क्षेत्रीय दल की खिसकती राजनीतिक ज़मीन ने इस मुद्दे को बीजेपी और कांग्रेस की सियासत का खिलौना बना कर रख दिया। राज्य निर्माण के साथ देहरादून को अस्थायी राजधानी बनाने के फैसले ने गैरसैंण को वो सियासी मोहरा बना दिया जिसका इस्तेमाल ये दोनों पार्टियां बारी बारी से करती आयी हैं और आज भी कर रही हैं। पहाड़ के वास्तविक मुद्दों को लेकर बहस छिड़ी नहीं कि गैरसैंण का जिन्न बोतल से बाहर निकाल दिया जाता है। रोजगार, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी, सड़क, विकास योजनाओं में नेताओं और नौकरशाहों की बंदरबांट जैसे मुद्दे गैरसैंण के बोझ तले दबा दिये जाते हैं। दरअसल राज्य गठन के बाद से ही स्थायी राजधानी के मुद्दे पर सियासी दल संजीदा नहीं रहे। बुनियादी ढांचे और सुविधाओं के नाम पर देहरादून को भले ही अस्थायी राजधानी का नाम दिया गया हो लेकिन यहां हुए स्थायी निर्माण कार्य नेताओं और नौकरशाहों की मंशा बताने के लिये काफी हैं। बीजेपी की स्वामी सरकार ने स्थायी राजधानी तय करने के लिये जिस दीक्षित आयोग का गठन किया, उसने भी देहरादून को ही स्थायी राजधानी के लिये सबसे उपयुक्त ठहरा दिया। आठ साल तक जो दीक्षित आयोग राजधानी तलाशने के नाम पर लोगों का पैसा फूंकता रहा उसकी रिपोर्ट इस आयोग के गठन के औचित्य पर ही सवाल खड़े करती है। साफ है कि आयोग ने जानते बूझते पहाड़ की जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया और गैरसैंण पर देहरादून को तवज्जो दी। इसके लिये कौशिक समिति की रिपोर्ट को भी खारिज कर दिया गया जो उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के साथ साथ गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने का सुझाव केंद्र की तत्कालीन बीजेपी सरकार को दे चुका था। केंद्र ने अलग पर्वतीय राज्य का गठन कर उसका श्रेय तो ले लिया लेकिन राजधानी का मुद्दा राज्य सरकार पर छोड़ कर एक नया सियासी खेल शुरू करवा दिया। पहाड़ के लोग पिछले पंद्रह सालों से उस मुद्दे पर उलझे हैं जिसका पहाड़ की वास्तविक समस्याओं से कोई लेना देना नहीं है। भला कौन इस बात को मानेगा कि सिर्फ़ गैरसैंण को स्थायी राजधानी बना देने से ये समस्याएं खत्म हो जाएंगी। उत्तराखंड की पहाड़ी जनता को राज्य के मुद्दे पर ठगने वालों में नेता ही नहीं नौकरशाह भी शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर लोग ना तो पहाड़ से जुड़ाव रखते हैं और ना ही पहाड़ चढ़ने में उनकी दिलचस्पी है। मैदानी इलाकों में कैंप कार्यालयों से चल रहा पहाड़ का शासन-प्रशासन इस बात का सबसे बड़ा सबूत है। नैनीताल हाई कोर्ट के सख्त रवैये के बावजूद नौकरशाहों की कार्यप्रणाली में कोई अंतर आया हो, ऐसा लगता तो नहीं है। इन चंद सुविधाभोगी नौकरशाहों ने पर्वतीय राज्य की मूल भावना को भटकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

गैरसैंण फिर सियासत का मोहरा बना मौजूदा कांग्रेस सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के कार्यकाल में। पार्टी की अंदरूनी सियासत और खेमेबाजी झेल रहे बहुगुणा ने तुरुप के इक्के की तरह विधानसभा का सत्र बुला कर गैरसैंण का सियासी इस्तेमाल शुरू किया। इसका मकसद खुद को पहाड़ का एकमात्र पैरौकार बना कर अपनी कुर्सी बचाना था। कुर्सी तो बची नहीं लेकिन जाते जाते मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत को एक सियासी हथियार ज़रूर पकड़ा गये। इस बार सूबे के मुखिया हरीश रावत गैरसैंण पर बड़ा दांव खेलने की तैयारी करते दिखायी दे रहे हैं। वैसे तो विधानसभा सत्र के संयुक्त अधिवेशन में महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण में गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का जिक्र हो चुका है। लेकिन लगता है कि सरकार अब गैरसैंण के फल को सड़ने की हद तक नहीं टाले रखना चाहती। पहाड़ को लेकर बड़ी बड़ी घोषणाएं कर रहे हरीश रावत फिलहाल सियासी नफा नुकसान का आकलन कर रहे हैं और अपने परिवार के राजनीतिक भविष्य की चिंता भी। दरअसल अब सारी लड़ाई पहाड़ की स्थायी राजधानी के बहाने पहाड़ियों की भावनाओं को भुनाने पर केंद्रित हो गयी है। रावत जी को मालूम है कि गैरसैंण राजधानी बनने के साथ ही उसके आसपास के इलाकों की ज़मीनें सोना उगलने लगेंगी। पहाड़ के लोगों को यही सब्जबाग दिखा कर उन्हें करोड़पति बनाने के सपने दिखाये जा रहे हैं। लेकिन लोग ये भूल रहे हैं कि करोड़ों कमाने के लिये उन्हें अपनी ज़मीनें बेचनी पड़ेंगी। यानी वो ना तो घर के रहेंगे और ना पहाड़ के। सरकार स्थायी निर्माण के नाम पर जो अधिग्रहण करेगी उसकी नीति अब तक तैयार नहीं है। कुल मिला कर गैरसैंण का मुद्दा गरमा कर सरकार विकास योजनाओं की ज़मीनी हकीकत से लोगों का ध्यान बंटा रही है और कुछ हद तक उसमें कामयाब भी होती दिख रही है। कांग्रेस नेताओं के लगातार आ रहे बयान इसे और हवा दे रहे हैं। पूर्व सांसद प्रदीप टम्टा पहले ही कह चुके हैं कि रावत गैरसैंण को स्थायी राजधानी बना कर इतिहास में अपना नाम दर्ज करा सकते हैं। प्रदेश कांग्रेस 2 नवंबर से शुरू हो रहे विधानसभा सत्र से पहले गैरसैंण में बैठक कर उसे स्थायी राजधानी बनाने का प्रस्ताव पास कराने की सोच रही है। सियासी मजबूरी के चलते सरकार गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की दिशा में कदम तो बढ़ा रही है लेकिन फूंक फूंक कर। फैसले के लिये उसे सही मौके का इंतज़ार है जिसमें एक महीना भी लग सकता है और एक साल भी। लेकिन पार्टियों और जन संगठनों में इसका श्रेय लेने की होड़ अभी से शुरू हो चुकी है।



पहाड़ की पाती


(अजय ढौंडियाल का विशेष लेख)

मेरे प्यारे बच्चो,
           मैं तुम्हारी मां, पहाड़। ये पाती लिखते हुए मेरे आंखें भरी हुई हैं। तुम्हारी ये बहदाल मां तुम्हारी खुशी और सलामती की दुआ कर रही है। 15 साल हो चुके हैं उस परिवार (उत्तर प्रदेश) से अलग हुए, जहां तुम्हारे और मेरे साथ हमेशा सौतेला व्यवहार होता था। तब सब भरपेट भोजन करते थे और मैं तुम्हें आधे पेट सुलाती थी। वहां से अलग होते वक्त मैं बहुत खुश थी। कितनी लड़ाई लड़ी थी तुमने मेरे खातिर। अपने कई बच्चे मैंने उस लड़ाई में खो दिए। आज सोचती हूं कि आखिर क्या मिला? सपना देखा था कि तुम्हें एक छोटे से घर में खुशहाल रखूंगी, दो जून की रोटी तुम्हें घर में दूंगी, तुम्हें अब कभी भटकना नहीं पड़ेगा। लेकिन सारे सपने टूटे कांच की तरह बिखर गए। उस सौतेले कुनबे से अलग होने और हक की लड़ाई लड़ने में सफेद कुर्ते और टोपी पहने तुम्हारे जो कुछ भाई तुम्हारे पीछे चल रहे थे वो आज मुझे ही सौतेला मानने लगे हैं। बिल्कुल अलग-थलग छोड़ दिया है उन्होंने मुझे और तुम्हारे दूसरे भाई-बहनों को। वो सब आज नेता बन गए हैं। ठीक उसी तरह के नेता जैसे तुम्हारे पुराने घर (उत्तर प्रदेश) में हुआ करते थे। अपनों के ही दुश्मन, सिर्फ स्वार्थी। अपने ही घर में सौतेली बना दी गई हूं मैं। मेरे दूध का कर्ज चुकाने की बजाए ये मेरी ही छाती में सियासत की रोटियां सेंक रहे हैं। मेरे खेत हथियाकर इन्होंने परदेस के धन्ना सेठों को बेच डाले हैं। जिस आंगन में तुम खेला करते थे, उन पर बिल्डरों का कब्जा हो रहा है। गांव के नीचे वाले गधेरे याद हैं ना, वहां आज खनन माफिया का राज है। ऐसा कभी न होता अगर तुम मेरे पास होते।
नेता बन चुके तुम्हारे इन सौतेले भाइयों ने तुम्हारे ही सामने ढेरों वादे किए थे मुझसे। वादा घर-आंगन के विकास का, वादा मेरे नाती-पोतों की अच्छी परवरिश और तालीम का, उन्हें घर-गांव में ही रोजगार दिलाने का, तुम्हारी बीमार मां और भाई-बहनों के इलाज का। 15 साल हो गए हैं। सौतेलेपन से तंग आकर तुम्हारे कई और भाई-बहन गांव छोड़कर चले गए हैं। कूड़ी-पुंगड़ियां लगातार बंजर हो रही हैं। मल्या खोळा, तल्लि बाखळि में बस दो-तीन भाई-बंधु बचे हैं तुम्हारे। जितना हो पाता है वे करते हैं। 8-10 पुंगड़ियों में कोदा-झंगोरा बो पाते हैं, बाकी सब बंजर। अब इन बांजी पुंगड़ियों पर भू-माफिया की गिद्ध नजर टिकी हुई है। सफेद गाड़ियों में दनदनाते हुए आते रहते हैं। मल्या और पल्या गांव में तो इन्हीं में से कुछ ने पॉलीफॉर्म बना दिए हैं। पार गांव के तुम्हारे गिंदी दादा ने अपने सभी सेरे बेच दिए हैं तल्ले मुलुक के एक बनिए को। वो अब सेरों में ऑर्गेनिक फार्मिंग कर रहा है। सल्ट में तुम्हारे रणु भाई ने तल्ली सारी के सभी खेतों में फूल उगाने शुरू कर दिए हैं। महीने में 5 लाख तक कमाता है बल। दिल्ली से एक भल्ला जी आए थे रानीखेत। उन्होंने तो जरा से रुपये देकर गांव वालों से 500 नाली जमीन खरीद ली और अब वहां मेडिसिनल प्लांट लगा रहे हैं। बोल रहे थे कि लाखों का माल पैदा करेंगे महीने में। अमेरिका से पढ़कर लौट आया है सकणीधार (पौड़ी) का एकलव्य रावत। वही रावत जी का लड़का जो दिल्ली में डायरेक्टर हैं। सकणीधार में उसने अपनी बांजी पुंगड़ियों में लिंबा के पेड़ लगा दिए हैं। 250 पेड़ लिंबों से गज्ज भरे हुए हैं। नजीबावाद मंडी से दिल्ली मंडी तक बेच रहा है वो लिंबा। दिल्ली की कंपनी में काम करने वाला जखमोला जी का जेठा लड़का भी कुमाल्डी गांव लौट आया परार। उसने मुर्गी और बकरी पालन का काम शुरू किया था। 10 बकरी ली थी पहले, अब 200 हो गई हैं।
मेरे बच्चो, आओ लौट आओ। मेरी खातिर न सही, अपने खुद के लिए आओ। परदेस में रहने वाले दूसरे लोग तुम्हारी पुंगड़ियां हथिया कर अच्छी-खासी आमदनी कर रहे हैं। तुम परदेस में दिनरात मेहनत कर रहे हो, मेरे नाती पोतों के लिए भी वक्त नहीं मिलता तुमको वहां। बीमारियों के अलग शिकार हो रहे हो। यहां देखो, क्या नहीं है हमारे पास। तुम तो हमेशा से मेहनती हो, फिर सोना उगा सकते हो। आओ, आबाद करो दोबारा अपनी धरती को। मेरी ये पाती पाते ही जवाब जरूर देना। अपनी मजबूरी लिखना, अपनी पीड़ा लिखना, मेरी नाती-पोतों के बारे में भी लिखना। तुमको मेरे पास आने से कौन रोकता है ये जरूर बताना....


तुम्हारी मां  



जड़ों से जु़ड़ो

मेरा गांव, मेरा पहाड़
(भूपेश पंत)


पहाड़ का शांत जीवन, स्वच्छ हवा, नैसर्गिक सुंदरता, सीढ़ीदार खेत, जीवन की रफ्तार को नियंत्रित करते सर्पीले मोड़ और दूर किसी रेडियो में गूंजता पहाड़ी गीत। इन सब को छोड़ कर भला कौन शहरों की आपाधापी से भरी ज़िंदगी जीना चाहेगा। रोजगार और सुविधाओं की तलाश में पलायन एक ज़रूरत बन कर सामने आता है। बड़े शहरों और महानगरों की भीड़ में खोकर पहाड़ के लोग धीरे-धीरे अपनी जड़ों से कट जाते हैं। कभी-कभी तो इतना कि ना तो उन्हें अपने गांव का पता मालूम रहता है और ना ही वहां रहने वाले रिश्तेदारों के नाम। पहाड़ की जिस खूबसूरती को महसूस करने देश विदेश से सैलानी यहां आते हैं, वो अपने भीतर एक गहरी उदासी पाले हुए है। पहाड़ आने वालों में अपनों के चेहरे की तलाश मायूसी को और बढ़ा देती है। हर सुबह सूनी आंखों से रास्ता देखते गांव शाम होते होते थक कर सो जाते हैं। पहाड़ के कई लोग अपनी जड़ों से दूर देश विदेश जाकर काबिल हो गये हैं। गांवों को इंतज़ार है कि उनके ये काबिल लोग अपनी जेबों में विकास की किरणें भर कर लौटेंगे तो पहाड़ के चेहरे पर कुछ रौनक लौट पाएगी। सूनी गलियां खिलखिला उठेंगी और मन आत्मविश्वास से भर उठेगा।
कल ही एक मित्र के ज़रिये पहाड़ के एक नौजवान से मुलाकात हुई। मन सुखद आश्चर्य से भर उठा। अपनी सारी पढ़ाई यूएस और दूसरे देशों में करने वाला ये युवक विदेशों में नौकरी ढूंढने की बजाय गांव लौट चुका है। पहाड़ में बागवानी और रोजगार के दूसरे विकल्पों को लेकर अपनी सोच के साथ। पहाड़ में ऐसे दर्जनों उदाहरण मिल जाएंगे। अपनी ज़िंदगी का लंबा हिस्सा पहाड़ के बाहर बिता चुके लोग वापस आने के नाम पर भले ही तराई से आगे ना बढ़ पाए हों, लेकिन कई नौजवान आज भी अपनी जड़ों से जुड़ने की कशमकश में लगे हैं। राजसत्ता एक्सप्रेस से जुड़ी टीम अपने आप में इसका सबसे बड़ा सुबूत है। हमारी टीम ने जड़ों से जुड़ो अभियान के ज़रिये प्रवासी उत्तराखंडियों को सामाजिक, आर्थिक और वैचारिक तौर पर पहाड़ से जोड़ने की मुहिम शुरू की है। राजसत्ता एक्सप्रेस इस अभियान के ज़रिये ना केवल पहाड़ का संदेश बाहर जा बसे अपने लोगों तक पहुंचाएगा बल्कि पहाड़ के विकास के लिये बनायी जा रही सरकारी नीतियों में उनके सार्थक हस्तक्षेप का वाहक भी बनेगा। हमारी कोशिश होगी आपके विचारों, समस्याओं और व्यावहारिक सुझावों के आधार पर सरकार को आईना दिखाने की। ताकि पहाड़ की सड़कें आपको डरायें नहीं, आधी अधूरी बुनियादी सुविधाएं मुंह चिढ़ाएं नहीं।
हमें और आपको मिल कर इस पर्वतीय राज्य को अपने सपनों का उत्तराखंड बनाना है। कब तक हम सरकारी उपेक्षा का रोना रोते रहेंगे। निराशा और विकल्पहीनता की स्थिति से ऊपर उठ कर पहाड़ के विकास को सियासी एजेंडे में सबसे ऊपर लाना है। इसके लिये सभी पर्वतीय लोगों को एकजुट होना होगा। धर्म, जाति और क्षेत्र की दीवारें तोड़नी होंगी और अपना अहं भी छोड़ना होगा। खेती, बागवानी, पशुपालन, पर्यटन, सौर ऊर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे तमाम क्षेत्रों में करने को बहुत कुछ किया जा सकता है। हम चाहते हैं कि सरकार पर्वतीय मूल के नौजवानों का पलायन रोकने और बाहर जा चुके युवाओं को वापस लाने के लिये प्रोत्साहन नीति बनाये। हमारे जो लोग बाहर अच्छा काम कर रहे हैं वो अपने गांवों तक कुछ आर्थिक मदद पहुंचाएं। कई गैर सरकारी संगठन और उत्तराखंड के प्रवासियों के बीच काम कर रहे मंच इस दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। हमारी अपील है कि वे लोग और संगठन आगे आयें, हमारी इस मुहिम का हिस्सा बनें और सोशल मीडिया तथा ई मेल के ज़रिये इस संबंध में अपने विचारों से हमें ज़रूर अवगत कराएं। हमें उम्मीद है कि फेसबुक पर हमारे अभियान के पेज जड़ों से जुड़ो के ज़रिये आप अपनी बात आसानी से हम तक पहुंचा पाएंगे।
आपके प्यार और सहयोग का आकांक्षी

राजसत्ता एक्सप्रेस परिवार



मजबूर नहीं मजबूत विपक्ष चाहिये


(भूपेश पंत)

उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों में डेढ़ साल का समय बचा है लेकिन सूबे की सरकार के कामकाज को लेकर विपक्षी बीजेपी के हमलों में धार अब भी नहीं आ रही है। राज्य की कांग्रेस सरकार शिक्षकों और चिकित्सकों को पहाड़ चढ़ाने में नाकाम रही है। आपदा के ढाई साल बाद भी कई जगहों पर मरम्मत का काम धरातल पर दिखायी नहीं दे रहा है। सरकार विकास योजनाओं की गठरी पीठ पर लादे पहाड़ की ओर मुंह कर एक ही जगह पर खड़ी दौड़ लगा रही है, लेकिन जो इन विकास कार्यों को गांवों तक पहुंचाने का दबाव बना सके ऐसा विपक्ष सीन से ही नदारद है। बीजेपी पहाड़ की वास्तविक समस्याओं को आंदोलन का रूप देने में नाकाम रही है। लगता है कि या तो बीजेपी में इस बार अपनी सरकार को लेकर हद से ज्यादा भरोसा है और वो पहाड़ के बेकार मुद्दों में उलझना नहीं चाहती, या फिर उसके पास इन समस्याओं का समाधान है ही नहीं। दूसरी बात ज्यादा तर्क संगत लगती है क्योंकि राज्य में वो पहले दो बार सरकार बना चुकी है और उस दौरान भी पहाड़ को लेकर कोई ठोस कार्ययोजना बनती नज़र नहीं आयी। मुख्यमंत्री के बहिष्कार, कुछ धरने प्रदर्शनों और ज्ञापनों के ज़रिये महज़ विरोध की औपचारिकता निभा रही बीजेपी का ये रवैया पहाड़ का अहित कर रहा है।
विपक्ष का काम सरकार पर जनहित के कार्यों के लिये दबाव बनाना, लोगों की समस्याओं और मुद्दों को हल करवाना और प्रक्रियागत खामियों पर सरकार का ध्यान खींचना होता है। लेकिन सूबे की मौजूदा सरकार की घोषणाएं बयां करती हैं कि उस पर कम से कम विपक्ष का दबाव तो नहीं है। अलबत्ता सरकार छोटे छोटे जन संगठनों की ओर से उठायी जा रही पहाड़ी गांवों के विकास की मांग से ज़रूर प्रभावित नज़र आ रही है। सरकार मंत्रियों, विधायकों और नौकरशाहों को गांवों की पथरीली ज़मीन पर उतारने जा रही है। इसके अलावा खेती और संस्कृति को बचाने के झुनझुने भी बजाये जा रहे हैं। पहाड़ के विकास की योजनाएं कितनी ईमानदारी से धरातल पर उतर पाएंगी इसे देखने की ज़िम्मेदारी राज्य की एकमात्र विपक्षी पार्टी के कंधों पर है लेकिन लगता है कि केंद्र की मोदीमय सत्ता की हवा ने उसे मदहोश कर दिया है। पार्टी बीजेपी विधायकों के साथ दुर्व्यवहार को लेकर रावत सरकार पर लोकतंत्र की हत्या करने का आरोप लगा रही है। लेकिन बतौर विपक्ष खुद लोकतंत्र को मजबूत करने में कितनी कामयाब रही है बीजेपी को ये भी पर्वतीय राज्य की जनता को बताना चाहिये। पार्टी ने सीडी कांड की सीबीआई जांच, आबकारी घोटाला, आपदा घोटाला और खनन घोटाले जैसे मुद्दे उठाए तो ज़रूर लेकिन ना तो वो इन पर सरकार को घेर पायी और ना ही पहाड़ के बुनियादी सवालों को हल करवा पायी। कांग्रेस सरकार के पूरे कार्यकाल में विपक्ष घोटाले ही घोटाले तलाशता रहा लेकिन उसकी आक्रामकता मुद्दों के हल से कहीं ज्यादा लूट में हिस्सा ना बंटा पाने की खिसियाहट में तब्दील होती ही नज़र आयी। मौजूदा सरकार के मुखिया हरीश रावत ने विधानसभा में जब धमकी भरे अंदाज में सबकी पोल खोलने का दांव फेंका तो न जाने क्यों विपक्ष से एक भी आवाज़ इस चुनौती को कबूल करने के लिये नहीं उठी। मुख्यमंत्री का ये बयान लोकतंत्र का कितना बड़ा उपहास था, ये बात ना तो विपक्ष को समझ में आयी और ना ही राज्य के तथाकथित जन संगठनों को। जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को लेकर सरकार और विपक्ष कितना संजीदा है ये घटना उसे बयान करने के लिये काफी है।    
ऐसा नहीं है कि सरकार ने विपक्ष को मुद्दे थमाने में कोई कोताही बरती हो। कभी मुख्यमंत्री नौकरशाहों की मनमर्जी का रोना रोते नज़र आते हैं तो कभी गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का मुद्दा गरमाते हैं। पलायन के कारण वीरान होते गांव हों या आपदा राहत के नाम पर चल रही बंदरबांट, शिक्षा  स्वास्थ्य और पेयजल से जुड़े मसले हों या पहाड़ से जुड़ी लोकलुभावन घोषणाएं, विपक्ष के पास व्यावहारिकता और भ्रष्टाचार को लेकर सरकार को टोकने का मौका हमेशा रहता है। लेकिन राष्ट्रीय पार्टी होने के अलावा और कौन सी ऐसी सियासी मजबूरी है जिसने बीजेपी के पर्वतीय जनप्रतिनिधियों को मुखर होने से रोक रखा है। नेता प्रतिपक्ष भले ही इन आरोपों से इंकार करें लेकिन सच तो ये है कि बीजेपी ने सदन के भीतर और बाहर जिन कुछ मुद्दों पर सरकार को घेरा भी उनका जन सरोकारों से कोई सीधा रिश्ता है ही नहीं। किसी भी राज्य के लिये विधानसभा सत्र बेहद अहम होता है जबकि विधायक अपने अपने क्षेत्रों की समस्याओं को उठा पाते हैं। लेकिन हर बार सदन के पटल पर रखे गये सवाल हंगामे की भेंट चढ़ जाते हैं। विपक्ष की कमजोर रणनीति हर बार सरकार को बच निकलने का मौका ही देती रही है।
पहाड़ की जनता को इस मामले में उत्तराखंड क्रांति दल से भी निराश ही हाथ लगी है। पार्टी के एकमात्र विधायक कैबिनेट मंत्री के रूप में कांग्रेस की गोद में जा बैठे हैं और संगठन के पांव तले जैसे ज़मीन ही गायब है। गुटों में बंट कर अपनी पहचान खो चुकी यूकेडी अगर पहाड़ की जनता के मुद्दों को आक्रामकता से उठाती तो शायद उनके दिलों में कुछ जगह भी बना पाती। लेकिन खुद को बचाने की कशमकश में ही उलझी ये क्षेत्रीय पार्टी कभी इन मुद्दों की तरफ लौट भी पाएगी ऐसी उम्मीद करना फिलहाल बेमानी लगता है। पहाड़ की अस्मिता के संघर्ष में जुटे छोटे छोटे राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठन स्थानीय स्तर पर इन समस्याओं के लिये संघर्ष कर रहे हैं लेकिन उन्हें एक सूत्र में पिरो सके ऐसी कोई राजनीतिक शक्ति उभर पाएगी इसे लेकर भी संदेह बना हुआ है। पहाड़ के इस तरह बंटे होने का सियासी लाभ हमेशा की तरह कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी उठाती आयी हैं, इसलिये सत्ता और विपक्ष के बीच की सियासत नूराकुश्ती से ज्यादा नहीं रह गयी है। 


कामचोरों को मोहलत

लहरें गिनते नाकारा नौकरशाह

(भूपेश पंत)

कहा जाता है कि नेता कभी रिटायर नहीं होता, लेकिन उत्तराखंड के संदर्भ में ये कहावत नौकरशाहों पर अधिक फिट बैठ रही है। केंद्र की मोदी सरकार भले ही नाकारा अफसरों पर सख्ती बरतने जा रही हो लेकिन उत्तराखंड की सरकार अपने अफसरों पर मेहरबान है। ऐसे अफसरों को सेवा विस्तार या फिर सेवानिवृत्ति के बाद सलाहकार जैसे पदों पर फिर से नियुक्ति दी जा रही है जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप तक लग चुके हैं। ये अफसर आपदा राहत के नाम पर पहाड़ की छाती पर चढ़ कर मौज मनाते हैं। लोकल पर्चेज के नाम पर इनकी मुफ्तखोरी की दास्तानें भी सरेआम हैं। कई-कई विभाग संभाले बैठे इन अफसरों की सेवा में हर विभाग से एक गाड़ी है। अब ये इन अफसरों की मर्जी पर निर्भर करता है कि इन गाड़ियों का इस्तेमाल वो किस तरह से करें। ताज़्जुब की बात है कि सरकार कोई भी हो इन अफसरों पर सियासी दलों की कृपा लगातार बरसती रहती है। मौजूदा कांग्रेस सरकार भी इसमें पीछे नहीं है। ये दयानतदारी तब है जबकि कई मौकों पर मुख्यमंत्री हरीश रावत और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय खुल कर नौकरशाही के रवैये पर अपनी नाराजगी जता चुके हैं। 
   नौकरशाहों के खर्च में अंकुश लगाने के बाद केंद्र सरकार तीस साल नौकरी कर चुके या 50 साल की उम्र पार कर चुके अफसरों के प्रदर्शन की समीक्षा करने जा रही है। इसी सालाना अप्रेजल के आधार पर उनका प्रमोशन या छुट्टी तय होगी। हालांकि इस कार्रवाई की जद में वही अधिकारी आएंगे जिन पर भ्रष्टाचार और अप्रभावी रहने के गंभीर आरोप हैं। केंद्र के कड़े रुख से हालत ये हो गयी है कि प्रतिनियुक्ति पर गये कई अफसर अपने अपने कैडर में लौटने की राह तलाश रहे हैं। दूसरी ओर नाकारा नौकरशाहों के लिये उत्तराखंड अब भी स्वर्ग बना हुआ है। अधिकारियों की कमी का रोना रोने के नाम पर सूबे की अब तक की सरकारें कई अधिकारियों को सेवा विस्तार या सेवानिवृत्ति के बाद दूसरे दायित्वों से नवाज़ती रही हैं। हरीश रावत सरकार भी उसी राह पर चल रही है। आपदा राहत घोटाले को क्लीन चिट दे चुके निवर्तमान मुख्य सचिव एन रविशंकर का नाम नये मुख्य सूचना आयुक्त की दौड़ में सबसे आगे है। राज्य के एक बहुचर्चित वरिष्ठ नौकरशाह को भी सेवा विस्तार दिये जाने की चर्चा जोरों पर है। ये वही नौकरशाह हैं जिनको शासन के सबसे अहम पद पर बैठाने को लेकर कुछ पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और विपक्ष ने कुछ दिन तो काफी होहल्ला मचाया, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से अब सबकुछ शांत है। कोई कुछ कहे ना कहे लेकिन राज्य की जनता इस चुप्पी के भी अपने मायने निकाल रही है।
   ऐसा लगता है कि उत्तराखंड को लूटने में जुटे कतिपय नेता और नौकरशाह अब बेशर्मी की सभी हदें पार कर चुके हैं। गरीब की जोरू सबकी भौजाई की तर्ज पर पहाड़ की बर्बादी की पटकथा लिखी जा रही है। ज़ाहिर है भला जब भ्रष्टाचार की गंगा इतनी तेजी से बह रही हो तो कौन बेवकूफ किनारे खड़े होकर देखना चाहेगा। मुख्य धारा में नहा चुके ऐसे अफसरों को सरकार लहरें गिनने के काम में लगा देती है ताकि सबको उनकी सेवाओं का प्रसाद बंटता रहे। मजे की बात है कि इन नौकरशाहों को अलग अलग विभागों में सलाहकार जैसे पदों पर अच्छी तनख्वाह के साथ एडजस्ट किया जाता है। सरकार में ऐसे दर्जनों विभाग हैं जहां सेवानिवृत्ति के बाद अधिकारी उसी विभाग में सलाहकार का अपना पद सुरक्षित कर लेते हैं। नए पद और यहां तक कि नए विभाग भी उनके लिए गठित कर लिए जाते हैं। दर्जनभर से ज्यादा सेवानिवृत्त अफसरों को यहां की सरकारें उनकी मनचाहे विभाग और ओहदों पर बिठा चुकी हैं। सरकार के पास नयी भर्ती और पहाड़ के विकास कार्यों पर खर्च करने को पर्याप्त पैसे नहीं हैं जबकि जनता के खून पसीने की कमाई सत्ता के चहेते रिटायर्ड अफसरों को पालने पर झोंकी जा रही है। लेकिन इन पदों पर उनके होने का औचित्य और उनके योगदान पर कोई सवाल नहीं उठाता। विपक्ष इसे मुद्दा कैसे बनाए जबकि उसकी सरकारों का खुद का दामन इस मसले पर पाक साफ नहीं है।
राज्य में इस वक्त भी कई बड़े नौकरशाह रिटायर होने के बाद विभागों, निगमों और आयोगों में उच्च पदों पर आसीन हैं। ये सिलसिला राज्य गठन के बाद से ही चला आ रहा है। साल 2006 से लेकर 2014 तक राज्य में दो दर्जन से ज्यादा आईएएस, आईपीएस  और पीसीएस अफसर पुनर्नियुक्ति पा चुके हैं जिनमें से कई आज भी पुनर्वास के मजे लूट रहे हैं। राज्य के मुख्य सचिव आरएस टोलिया ने सेवानिवृत्ति के बाद राज्य के पहले मुख्य सूचना आयुक्त का पद संभाला। इसके बाद से तो सेवानिवृत्ति के बाद अधिकारियों के पुनर्वास का सिलसिला ही चल पड़ा। मुख्य सचिव से सेवानिवृत्त हुए दूसरे अधिकारी एनएस नपल्च्याल को भी मुख्य सूचना आयुक्त बनाया गया। इससे पहले मुख्य सचिव से ही रिटायर हुए एस के दास को लोकसेवा आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था। पूर्व मुख्य सचिव इंदु कुमार पाण्डे सेवानिवृत्ति के बाद पहले उत्तराखण्ड बहुउद्देशीय वित्त विकास निगम में अध्यक्ष के पद पर बिठाये गये और फिर वो मुख्यमंत्री के सलाहकार हो गए। इसी तरह पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार को सेवानिवृत्ति के बाद विद्युत नियामक आयोग का अध्यक्ष पद सौंपा गया है। पूर्व मुख्य सचिव आलोक कुमार  जैन को सेवा का अधिकार आयोग का ज़िम्मा सौंपा गया। सुरेंद्र सिंह रावत को सेवानिवृत्ति के बाद राज्य सूचना आयुक्त बनाया गया। कुणाल शर्मा को सेवानिवृत्ति के बाद राज्य खाद्य आयोग में पुनर्नियुक्ति मिली। इसी तरह बीसी चंदोला सेवानिवृत्ति के बाद उत्तराखण्ड प्रशासनिक सेवा अधिकरण में सदस्य बने और बाद में उत्तराखण्ड राज्य निर्वाचन आयुक्त के पद पर तैनात हो गए। विद्युत नियामक आयोग में उपनिदेशक रहे बीसी त्रिपाठी सेवानिवृत्ति के एक माह बाद ही वहां सलाहकार के पद पर विराज दिये गये। सोहन लाल, टी एन सिंह, डी के कोटिया, एन एस नेगी, हरीश चंद्र जोशी, ये फेहरिस्त काफी लंबी है।
आईएएस के अलावा न्यायिक सेवाओं में भी यह परंपरा पैर जमा चुकी है। कई सेवानिवृत्त न्यायाधीश प्रदेश के विभिन्न आयोगों में सर्वेसर्वा बने हुए हैं और कई बनने की तैयारी में हैं। ये घोटालों के जांच आयोगों के अध्यक्ष बनते तो हैं लेकिन सरकारी सेवाओं के इस्तेमाल  के बाद भी उनकी रिपोर्ट सामने नहीं आ पाती और अगर आती भी हैं तो सरकार खुद उन्हें ठंडे बस्ते में डाल देती है। सरकारें तर्क देती हैं कि नौकरशाहों के लंबे अनुभव का लाभ उठाने के मकसद से ही ऐसा किया जाता है। एक लिहाज से ये तर्क वाजिब भी लगता है, लेकिन ये कौन तय करेगा कि सेवा विस्तार या पुनर्वास पा चुके सभी नौकरशाह इस खांचे में फिट होते हैं। पिछले पंद्रह सालों में उत्तराखंड और खासतौर पर पहाड़ की जनता जिन नौकरशाहों के नाकारापन, लापरवाही और ग़ैर जिम्मेदारी का खामियाज़ा भुगत रही है उनके किस अनुभव का लाभ सरकार उठाना चाहती है ये कभी साफ नहीं हो पाता। ऐसे में परंपरा का रूप ले चुका पुनर्नियुक्ति का ये खेल संदेह तो पैदा करता ही है। ये बात भी स्पष्ट है कि कुछ का पुनर्वास राजनीतिक रसूख और सत्ता से नजदीकियों के सहारे होता है। कुछ ओहदे पर रहते हुए सरकार के भ्रष्टाचार और नाकामियों से आंखें मूंदे रहने या फिर उसमें शामिल होने का ईनाम पाते हैं। इस सिलसिले में सरकार पर आईएएस लॉबी का ज्यादा दबाव नज़र आता है जबकि आईपीएस और पीसीएस अधिकारियों को पुनर्नियुक्ति के मौके कम ही मिल पाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कई ऐसे अधिकारियों को भी पुनर्वास का मौका मिला होता जिनकी कार्यशैली सरकार भले ही पचा ना पायी हो लेकिन उससे पहाड़ का कुछ भला हुआ हो। राज्य के डीजीपी रह चुके सत्यव्रत बंसल का तो सेवा विस्तार का प्रस्ताव ही बहुगुणा सरकार ने आगे नहीं बढ़ाया। बंसल ने ही आपदा के बाद केदारघाटी में सर्च ऑपरेशन चला कर सैकड़ों शवों को खोजा था। मामले में हुई फजीहत के बाद तत्कालीन सरकार ने बंसल को ना तो सेवा विस्तार दिया और ना ही पुनर्नियुक्ति। जबकि उसी कांग्रेस सरकार ने पुलिस महानिदेशक पद से जे एस पांडे की विदाई के साथ ही पुलिस सुधार आयोग का गठन कर उन्हें इसका जिम्मा सौंपने में देर नहीं की। सचिव आरसी पाठक काफी मशक्कत के बाद भी चुनाव आयोग में पुनर्नियुक्ति नहीं पा सके जबकि सुवर्द्धन को मुख्य चुनाव आयुक्त बना दिया गया।   
राज्य के चुनिंदा कर्मठ अफसरों पर सरकारों की ये मेहरबानी अपनी कहानी खुद बयां करती है। साफ है कि इस खेल में अपनी कार्यशैली से सरकार को परेशान करने वालों के पर कतरे जाते हैं और वफादारों को ईनाम दिया जाता है। जो लोग अपने सेवाकाल में प्रदेश का भला नहीं कर पाए, उनकी सलाह की दरकार भला किसी को क्यों होने लगी। लेकिन लगता है सरकार ऐसे अफसरों के भीतर छिपी किसी खास प्रतिभा को पहचान लेती है और जब तक हो सके, उनके हुनर का लाभ उठाने के लिये प्रतिबद्ध नज़र आती है। राज्य पर आर्थिक बोझ बढ़ाने के अलावा इनकी उपयोगिता कहां साबित होती है ये तो सरकार के नुमाइंदे ही बेहतर बता सकते हैं। अब तो रिटायर होने के बाद राजनीति में उतरने वाले अफसरों की तादाद भी बढ़ रही है। बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों ही इन्हें हाथों हाथ लेती हैं। जाहिर है ऐसे में पदों पर बैठे ज्यादातर अफसरों से लोकसेवक की भूमिका का ईमानदारी से निर्वाह करने की उम्मीद पालना बेमानी हो गया है। उनकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी तन-मन-धन से अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने की होती है ताकि सेवानिवृत्ति के बाद दूसरी पारी खेलने का रास्ता साफ हो सके।



विरासत के पन्ने फाड़ रही कांग्रेस


अजय ढौंडियाल का लेख

(उत्तराखंड की हरीश रावत सरकार स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर दनादन घोषणाएं कर अपनी पीठ कितनी ही थपथपा लें, लेकिन सेनानियों की इस फेहरिस्त को जातीय चश्मे और राजनीतिक समीकरणों के आधार पर बुना गया है। जिस राज्य में नैनीताल जिले के बांसी गांव निवासी 94 वर्षीय गोधन सिंह को घोषित स्वतंत्रता सेनानी होने के बावजूद जीतेजी उनका सम्मान दिलाने के लिये तीन पीढ़ियां खप गयी हों, वहां की कांग्रेस सरकार से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है? क्या कांग्रेस अपनी ही राजनीतिक विरासत के उन पन्नों को फाड़ देना चाहती है जिनका कोई सियासी वजूद नहीं है या जो उसके जातीय खांचे में फिट नहीं होते? पिथौरागढ़ जनपद के दो स्वतंत्रता सेनानी पंत भाइयों को लेकर सरकार का रवैया तो कुछ ऐसा ही दिखता है। सम्मान और अपमान की इस जंग को लड़ रहे सेनानी परिवार से जुड़े और वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता जनार्दन पंत से संपादक अजय ढौंडियाल की बातचीत पर आधारित।)       

जिस देश में गांधी को दिलों में नहीं नोटों पर छापा जाता हो और जहां अंबेडकर जैसे जन नेताओं को जाति के चश्मे से देखा जाये वहां उन लोगों की क्या बिसात जिनके नाम आज़ादी के इतिहास के पन्नों से कभी बाहर ही न निकल पाये हों। राष्ट्रपिता गांधी जी को लेकर संघ और बीजेपी का दृष्टिकोण सब जानते हैं लेकिन ताज़्जुब तब होता है जब आजादी के आंदोलन को अपने अतीत का सुनहरा पन्ना बना कर आज तक सहेजने वाली कांग्रेस के ही नेता उन स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान करने में भी न हिचकिचाएं जिन्होंने कांग्रेस के चरखे तले देश के दूरदराज इलाकों में आजादी की अलख जगाई। देश के लिये अपनी जान तक कुरबान करने का जज़्बा रखने वाले इन सेनानियों को जातीय संकीर्णता के चश्मे से देखना और उनके योगदान को भावी पीढ़ी तक पहुंचने से रोकना ना सिर्फ उनकी शहादत का अपमान है बल्कि देश का अपमान है और शायद देशद्रोह भी। 
उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार भी ऐसा ही एक अपराध कर रही है। देश को आज़ाद हुए भले ही 68 साल बीत गये हों लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज स्वतंत्रता सेनानी परिवार से जुड़े दो स्वतंत्रता सेनानी आज तक खुद की आज़ादी का इंतज़ार कर रहे हैं। आज़ादी क्षेत्रवाद से, आज़ादी जातिवाद से और आज़ादी वोटबैंक की राजनीति से। ये दो सेनानी हैं उत्तराखंड में कुमाऊं क्षेत्र के पिथौरागढ़ जनपद से स्व. प्रयाग दत्त पंत और उनके छोटे भाई स्व. बंशीधर पंत। बीडी पांडे लिखित कुमाऊं के इतिहास पर नज़र डालें तो स्व. प्रयाग दत्त पंत को पिथौरागढ़ जनपद (तत्कालीन अल्मोड़ा जनपद की सीमान्त तहसील) के पहले स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जाना जाता है। आज़ादी की लड़ाई में पं. गोविंद बल्लभ पंत, पं हरगोविंद पंत और बी. डी. पांडे के समकक्ष रहे प्रयागदत्त पंत को पिथौरागढ़ जिले में गांधीवादी आंदोलन का सूत्रधार माना जाता है। 1898 में ग्राम हल्पाटी में जन्मे प्रयाग दत्त पंत जन्मजात प्रतिभा के धनी थे और यही बात गरीब परिवार में जन्मे प्रयाग को प्रयागराज तक ले गयी। उन्होंने इलाहाबाद में बीए की डिग्री स्वर्ण पदक के साथ हासिल की और जनपद का पहला स्नातक होने का गौरव हासिल किया। इस दौरान राष्ट्रीय नेताओं के संपर्क में आये प्रयाग दत्त पंत ने 1919 में रॉलेट एक्ट के विरोध में हुए आंदोलन से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी ना करने और स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने का निश्चय किया। उन्होंने 1921 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन के संदेश को अपने ओजस्वी विचारों के ज़रिये कुमाऊं के दूरदराज इलाकों के पिछड़े इलाकों में फैलाने का काम किया। 1921 में बागेश्वर में आयोजित कुली-बेगार उन्मूलन आंदोलन में पिथौरागढ़ का प्रतिनिधित्व करने वाले एकमात्र व्यक्ति थे प्रयाग दत्त पंत। लगान बंदी, कर बंदी और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये लोगों को प्रेरित करने के अपराध में ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया। 1922 के अंत में जेल से छूटने के बाद प्रयाग दत्त पंत ने अल्मोड़ा जिला अंतरिम परिषद के सदस्य के नाते शिक्षा दीक्षा में पिछड़े इलाकों को अपनी अमूल्य सेवाएं दीं। उन्होंने 1929 तक अपने समकालीन सहयोगियों के साथ कांग्रेस संगठन का काम किया। देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना पूरा जीवन झोंक देने वाले इस सेनानी का स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता गया और आज़ादी की सुबह देखे बगैर 1940 में उन्होंने अल्पायु में अपने प्राण त्याग दिये।
प्रयागदत्त पंत जी की असमय मौत के बाद भी सेनानी परिवार का रिश्ता स्वतंत्रता आंदोलन से नहीं टूटा। उनके छोटे भाई बंशीधर पंत बर्मा में जापानी हमले के बाद 1940 में पिथौरागढ़ आ गये और पिथौरागढ़ के सिमलगैर में खादी और सिंगर सिलाई मशीन के पुर्जों की दुकान खोली। उन्होंने अपनी दुकान में तिरंगा झंडा लगा रखा था जिसे हटवाने के लिये अंग्रेज प्रशासन ने उनके पूरे परिवार को प्रताड़ित किया। पिथौरागढ़ तहसील के कांग्रेस संगठन मंत्री की हैसियत से बंशीधर पंत को अगस्त 1942 में जेल भेज दिया गया। परिवार दाने दाने को मोहताज था और दो बच्चे मृत्युशैया पर पड़े थे। उन्हें इस शर्त पर छोड़ा गया कि सत्याग्रह करने पर सरकार को सूचित करना होगा और हाज़िरी लगानी होगी। कुछ दिन पश्चात उनका एक पुत्र चल बसा। 1946 तक बंशीधर पंत ने किसान संगठन का काम किया जिसमें छत्रसिंह आजाद, जगत सिंह चौहान, हरिदत्त शास्त्री और धर्म सिंह जैसे सेनानियों का उन्हें पूरा सहयोग मिला। बंशीधर पंत ने रजवारशाही के खिलाफ किसानों के उल्लेखनीय अहिंसात्मक संघर्ष का नेतृत्व किया और ज़मींदारों की बंदूकें छीन कर मालखाने में जमा करवाईं और भूमिहीनों के हक हकूक के लिये संघर्ष किया।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि आजादी के इन दोनों परवानों को अपने बलिदानों के एवज़ में पहले यूपी और अब उत्तराखंड की सरकारों से उपेक्षा और तिरस्कार ही मिला है। क्या वजह है कि आज़ादी के 68 साल बाद भी इन दोनों सेनानियों के नाम पर इनके अपने गृह जनपद पिथौरागढ़ में आजतक एक भी सार्वजनिक संस्थान नहीं है ? क्या वजह है कि उत्तराखंड में आये दिन स्वतंत्रता सेनानियों को शिक्षण संस्थाएं, सड़कें और दूसरे सार्वजनिक संस्थान बांट रही हरीश रावत सरकार इन दोनों पंत भाइयों के नाम पर चुप्पी साधे हुए है ? स्व. बंशीधर पंत के सबसे छोटे बेटे और कुमाऊं में सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर विख्यात जनार्दन पंत तल्ख लहजे में ये सवाल उठाते हैं। भ्रष्टाचार, मजदूरों के शोषण और कई स्थानीय मुद्दों को लेकर आंदोलन छेड़ चुके जनार्दन पंत इसे सीधे सीधे क्षुद्र राजनीति, जातीय समीकरणों और अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ के बीच क्षेत्रवाद से जोड़ कर देखते हैं। पिथौरागढ़ पीजी कॉलेज को स्व. प्रयागदत्त पंत के नाम से जोड़ने की स्वतंत्रता सेनानियों और जनता की बेहद पुरानी मांग को ठुकरा कर एनडी तिवारी सरकार ने जिन स्व. लक्ष्मण सिंह महर के नाम से उसे जोड़ा वो स्व. प्रयागदत्त पंत के आजादी की अलख जगाने के बाद ही स्वतंत्रता संग्राम में आये थे। साफ है कि तिवारी सरकार का ये फैसला जाति विशेष के वोट बैंक और संकीर्ण सोच पर आधारित था और कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत के दबाव में लिया गया था। सेनानी परिवार अब पिथौरागढ़ जिले के नाम को स्व. प्रयागदत्त पंत के नाम पर करने और स्व. बंशीधर पंत के नाम पर गौरंगचौड़ इंटर कॉलेज का नामकरण करने की मांग कर रहा है। जनार्दन पंत बताते हैं कि परिवार के दोनों स्वतंत्रता सेनानियों को उनकी गरिमा के अनुरूप सम्मान दिलाने के लिये वो और उनकी बड़ी बहिन कलावती जोशी लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं और सरकार को भेजे पत्रों और मीडिया के ज़रिये लगातार अपनी मांग रख रहे हैं लेकिन सरकार बीजेपी की हो या कांग्रेस की, किसी ने भी उनकी इन मांगों को गंभीरता से नहीं लिया। जिन सेनानियों के संघर्ष ने आजाद भारत में इन नेताओं को लोकतंत्र की सीढ़ियां चढ़ कर सत्ता का सुख भोगने लायक बनाया, उन्हीं नेताओं की ओर से मिल रही उपेक्षा और उपहास की हद तक तिरस्कार ने सेनानी परिवारों के देशभक्ति के जज्बे को ही चोट नहीं पहुंचायी है बल्कि सियासत के नंगे सच को भी उधेड़ कर रख दिया है। स्व. बंशीधर पंत की बड़ी बेटी कलावती जोशी ने सेनानी परिवार के खोये सम्मान को वापस दिलाने के लिये राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार की चौखट तक खटखटायी लेकिन दुर्भाग्य से वो जीते जी अपने इस संघर्ष में कामयाब नहीं हो सकीं। 75 साल पूरे कर चुके और अस्वस्थता के शिकार जनार्दन पंत रोष व्यक्त करते हुए कहते हैं कि क्या स्वतंत्रता सेनानियों की अगली पीढ़ी के जीते जी उन्हें ये सम्मान नहीं मिलेगा और क्या सरकार उन्हें इसी तरह अपमानित करती रहेगी। इस पूरे मामले में पिथौरागढ़ जनपद के जनप्रतिनिधियों, बुद्धिजीवियों, सेनानी परिवारों और पत्रकारों की चुप्पी भी उन्हें खलती है। वो कहते हैं कि ये चुप्पी उनके जातीय प्रवंचनाओं में जकड़े होने का प्रमाण है। यही वजह है कि उन्होंने राष्ट्रपति महोदय तक अपनी बात पहुंचाते हुए इस संबंध में ठोस कार्रवाई करने या फिर उन्हें इस अपमान के खिलाफ इच्छा मृत्यु की मंजूरी देने की गुहार लगाई है।

दुर्भाग्य ही है कि जिन सेनानियों ने धर्म, जाति और क्षेत्र से ऊपर उठ कर देश की आजादी में अपना योगदान दिया हो, उन्हें आज के राजनीतिक आका भाषा, धर्म, जाति और क्षेत्र के ही आधार पर इतिहास के पन्नों से गुम करने की साजिश रच रहे हैं। अगर ऐसा होता रहा तो बहुत जल्द इतिहास में उन्हीं लोगों का नाम रह जाएगा जिनकी पीठ पर या तो राजनीतिक सत्ता का हाथ हो या फिर जिनके नाम में किसी खास जाति के वोटबैंक को लुभाने की कुव्वत होगी। इससे ये भी साफ होता है कि जो सरकारें अपने पुरखों के बलिदान को राजनीतिक नफा नुकसान के चश्मे से देख रही हैं उन्होंने उत्तराखंड राज्य के लिये वास्तविक तौर पर संघर्ष करने वाले बलिदानियों और आंदोलनकारियों के साथ कितना न्याय किया होगा।  

        

लोकतंत्र के पर्व में करोड़ों का दांव !

(भूपेश पंत)

बिहार विधानसभा चुनाव के बहाने एक बार फिर चुनावों में होने वाले अंधाधुंध खर्च का मुद्दा गरम है। चुनाव आयोग भले ही विधायकों और सांसदों के चुनावी खर्च की सीमा तय करता हो लेकिन राजनीतिक पार्टियां इस संवैधानिक संस्था के कायदे कानूनों को ठेंगा दिखाने में कभी गुरेज नहीं करतीं। लोकतंत्र में चुनावों को भले ही सरकारों से जनता की अपेक्षाओं और उनके आकलन का अवसर माना जाता हो, लेकिन अब ये चुनाव बड़े पैमाने पर कालेधन को ठिकाने लगाने का ज़रिया बन गये हैं। बिहार में सत्तारूढ़ जेडीयू ने बीजेपी पर चुनाव प्रचार में तीस हजार करोड़ रुपये खर्च करने का आरोप लगाया है जबकि बीजेपी पहले ही जेडीयू पर तीन सौ करोड़ रुपये झोंकने का आरोप लगा चुकी है। कोई इन आंकड़ों पर भरोसा ना भी करे तो भी कई चुनाव देख चुकी देश की आम जनता को ये अप्रत्याशित नहीं लगता। सब जानते हैं कि चुनाव आयोग को दिये गये राजनीतिक दलों के चुनावी खर्च के आंकड़े असलियत के कितने करीब होते हैं।     
पिछले लोकसभा चुनाव और उसके साथ कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में सियासी दलों के प्रचार पर अरबों रुपये का खर्च चुनाव आयोग में दर्ज है। प्रचार में रुपये खर्च करने में बीजेपी नंबर एक पर रही जबकि कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही। बीजेपी ने कुल 714 करोड़ रुपये खर्च करने का आंकड़ा पेश किया है तो कांग्रेस ने 516 करोड़ रुपये खर्च करने की बात मानी है। आंकड़ों को ही मानें तो एनसीपी ने इन चुनावों पर 51 करोड़ रुपये झोंके जबकि बीएसपी तीस करोड़ और सीपीआई (एम) 19 करोड़ से ज्यादा खर्च नहीं कर पायीं। लेकिन राजनीतिक दलों के इन आंकड़ों पर भरोसा करने की कोई वजह दिखायी नहीं देती। बड़े पैमाने पर काले धन का इस्तेमाल होने के कारण चुनावी खर्च का वास्तविक ब्यौरा मिलना नामुमकिन लगता है। चुनाव में काला धन लगाने का एक अहम ज़रिया बना हुआ है, चुनावी चंदा।
पंचायत चुनावों से लेकर विधानसभाओं और लोकसभा के चुनावों में तय सीमा से कई सौ गुना ज्यादा खर्च होता है, इस बात से कोई इंकार कर ही नहीं सकता। महंगाई बढ़ने के साथ साथ इस खर्च में भी बढ़ोत्तरी होती है। आखिर इतना पैसा सियासी दलों के पास आता कहां से है... जाहिर है चुनावी चंदे से। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की ओर से जारी चुनावी चंदों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो यूपीए सरकार के दौरान अप्रैल 2004 से मार्च 2011 तक सात सालों में कांग्रेस पार्टी ने करीब 2009 करोड़ रुपये कमाये। इनमें से साढ़े तेरह फीसदी यानी 272 करोड़ रुपये उसे चंदे से मिले। घोषित तौर पर बीस हज़ार रुपये से ज्यादा का चंदा देने वाले नौ फीसदी से भी कम रहे। बीजेपी ने इन सात सालों में करीब 995 करोड़ रुपये कमाये जिसमें से 820 करोड़ रुपये चंदे के नाम पर जुटाये गये। हैरानी की बात है कि यहां भी बीस हज़ार रुपये से ज्यादा का चंदा देने वाले इनमें से केवल 15 फीसदी रहे। दरअसल बीस हज़ार रुपये से ज्यादा चंदा देने वालों का नाम घोषित करना कानूनन अनिवार्य है और सियासी दल इसी कानून का जम कर दुरुपयोग कर रहे हैं। इन चंदों का एक बड़ा हिस्सा श्वेत-श्याम रूप में उद्योगपतियों और बड़े बड़े ग्रुपों से मिलने वाले राजनीतिक चंदे से आता है। ऐसे में ट्रस्टों के ज़रिये पार्टियों को दिये जाने वाले इस चंदे की घोषित रकम भी उतनी बड़ी नहीं होती जिससे असली चुनावी खर्च को आंका जा सके। कई नेता चुनाव आयोग की ओर से तय सीमा को व्यावहारिक ना मान कर अपने बढ़ते चुनावी खर्च को नैतिकता का जामा पहनाना चाहते हैं।
उत्तराखंड में डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों के लिये भी राजनीतिक पार्टियां कमर कसने लगी हैं। एक ओर सदस्यता अभियान के ज़रिये चंदा जुटाया जा रहा है तो वहीं अपनी अपनी जीत के दावे करके सियासी पार्टियां राजनीतिक चंदों की उगाही के लिये छोटी-बड़ी कंपनियों पर डोरे डाल रही हैं। सूत्रों की मानें तो मोदी लहर के चलते अपनी जीत को लेकर आश्वस्त बीजेपी इस बार राज्य में करोड़ों का दांव खेलने जा रही है। खबर है कि 70 विधानसभा क्षेत्रों से प्रत्येक पर पार्टी कम से कम डेढ़ करोड़ रुपये चुनाव प्रचार पर खर्च करेगी। केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस का चुनावी खर्च काफी हद तक राज्य की कांग्रेस सरकार के आर्थिक कौशल पर निर्भर करेगा। हैरानी की बात है कि जो राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिये करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाने को तैयार रहती हैं, वो सत्ता में आने के बाद इससे कई गुना अधिक तो वसूल करती ही होंगी। साफ है कि लोकतंत्र के इन लगातार महंगे हो रहे चुनावी पर्वों की कीमत तो विकास के खोखले दावों से जूझ रही आम जनता ही चुकाती है।

इस कीमत को चुका कर भी जनता जिन सियासी पार्टियों को भरोसे से सत्ता सौंपती हैं उसी जनता के सामने ये पार्टियां झूठ बोलने से बाज नहीं आतीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में चुनावी खर्च को लेकर इनका झूठ हाल ही में तब सामने आया जब एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म ने 14 राजनीतिक दलों के खर्च का ब्यौरा निकाला। उसमें लगभग सभी पार्टियों और सांसदों की ओर से दी गयी जानकारियों में काफी अंतर मिला। उत्तराखंड के टिहरी से बीजेपी सांसद माला राज्यलक्ष्मी शाह कहती हैं कि पार्टी से उन्हें कुछ नहीं मिला तो बीजेपी उन्हें 15 लाख रुपये देने का दावा कर रही है। बीजेपी के ऐसे 35 सांसदों ने पार्टी के घोषित आंकड़ों से कहीं ज्यादा चुनावी खर्च जाहिर किया है। वैसे बीजेपी के हिसाब से उसने अपने 159 सांसदों को 48.25 करोड़ दिये, जबकि उसके ही 229 सांसद पार्टी से चुनाव खर्च मिलने की बात कह रहे हैं। उधर कांग्रेस के मुताबिक 44 में से सात सांसदों को 2.70 करोड़ रुपये दिये गये जबकि एफिडेविट में उसके 18 सांसद पार्टी फंड से पैसा मिलने का दावा कर रहे हैं। जाहिर है कि सियासत के इस हमाम में सभी नंगे हैं। ये तो सिर्फ़ एक बानगी है जो ये बताने के लिये काफी है कि खुद को हमारा जनप्रतिनिधि बताने वाले  सांसद और विधायक किस तरह हमारी ही जेब काट कर सियासत के ऐश लूट रहे हैं और वो भी बिना शर्मिंदगी के। जनता के पैसे को पार्टी और अपने विकास के लिये पानी की तरह बहाया जा रहा है और लोग बुनियादी सुविधाओं के लिये तरस रहे हैं। कालेधन के मुद्दे पर खुद को संजीदा दिखा रही बीजेपी जितना पैसा चुनाव प्रचार में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से खर्च करेगी, उसका दोगलापन उतना ही ज़ाहिर होता जाएगा। पार्टियों की ओर से प्रचार पर होने वाले खर्च के बंटवारे में मीडिया का भी एक हिस्सा होता है इसलिये बेहतर होगा कि लोग खुद ही विचार करें कि उसे लोकतंत्र की इतनी महंगी कीमत चुकाते रहना है या फिर बढ़ते चुनावी खर्च पर अंकुश लगाने की मुहिम में अपनी भागीदारी निभानी है।           



उत्तराखंड में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ !

उत्तराखंड पहुंचे अडानी

भूपेश पंत


(पीएम के खासमखास कारोबारी अडानी अब उत्तराखंड में अपने कारोबार का विस्तार करेंगे। अडानी ग्रुप पिछले एक दशक में देश का सबसे तेजी से बढ़ने वाला समूह है। विकास की दौड़ में मोदी के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहे अडानी समूह को मोदी की ईस्ट इंडिया कंपनी कहना गलत नहीं होगा। विधानसभा चुनाव से पहले उत्तराखंड पहुंची ये कंपनी कई राज्यों में घोटालों की आरोपी है। अपने कारोबारी हितों को सुरक्षित करने के लिये कंपनी ज़रूर चाहेगी कि राज्य में अगली सरकार बीजेपी की बने। फिर कांग्रेस की मौजूदा सरकार इतनी खुश क्यों है?)


पीएम नरेंद्र मोदी के प्रबल समर्थक माने जाने वाले अडानी औद्योगिक समूह ने अब उत्तराखंड में दस्तक दी है। देश विदेश में कारोबारी विस्तार कर चुके अडानी ग्रुप का उत्तराखंड पहुंचना कोई हैरान करने वाली बात नहीं लेकिन कई तरह के विवादों में घिरी इस कंपनी की कार्यशैली कुछ सियासी सवालों को जन्म ज़रूर दे रही है। उत्तराखंड के सीएम हरीश रावत इसे प्रदेश के लिये बेहतर मान कर समूह का स्वागत कर रहे हैं तो वहीं विपक्षी बीजेपी भी मोदी की इस ईस्ट इंडिया कंपनी के आगे नतमस्तक हो रही है। अडानी ग्रुप के साथ हो रही डील नौकरशाहों के साथ साथ बीजेपी को भी रास आ रही है क्योंकि कारोबार के ज़रिये सियासी खेल को बदलने की मोदी की क्षमता पर उन्हें तनिक भी संदेह नहीं है। खबर है कि अडानी ग्रुप राज्य में पांच हज़ार करोड़ का निवेश करने जा रहा है जिनमें से हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के लिये तीन हज़ार करोड़ तक का निवेश किया जा सकता है। इसके अलावा सोलर प्लांट और पावर में ट्रांसमिशन के क्षेत्रों में भी समूह की कंपनी के निवेश पर सहमति बनी है। केंद्र में जब से बहुमत की मोदी सरकार आयी है कुछ बड़े कारोबारियों के अच्छे दिन आ गये हैं। अडानी ग्रुप भी उनमें से एक है। और फिर क्यों ना आयें अच्छे दिन, आखिर सरकारें कोई भी रहें, मुनाफाखोरों की तो हमेशा ही मौज होती है, बस कुछ चेहरे बदल जाते हैं।
ये महज संयोग नहीं है कि देश के सबसे अमीर कारोबारियों में से एक गौतम अडानी के कारोबार का टर्न ओवर 2002 में 76.50 करोड़ डॉलर से बढ़कर करीब 10 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है। पिछले एक साल में अडानी समूह ने 48 फीसदी मुनाफा कमाया है। ये वो दौर है जब केंद्र में मोदी की अगुवाई वाली मजबूत सरकार सत्ता में आयी। वैसे मोदी से अडानी के रिश्ते काफी पुराने हैं। इन संबंधों की गहराई सबसे पहले तब सामने आयी जब 2002 के गुजरात दंगों के बाद सीआईआई से जुड़े प्रमुख कारोबारियों ने हालात से निपटने को लेकर मोदी की आलोचना की। इस दौरान अडानी ने आगे बढ़ कर  कारोबार जगत में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में माहौल बनाया और फिर सियासत में मोदी की मजबूती के साथ ही अडानी के कारोबार में भी तेजी आती गयी। पिछले लोकसभा चुनावों में गौतम अडानी ने मोदी के प्रचार में पैसा पानी की तरह बहाया था और पीएम पद की शपथ लेने के लिये मोदी अडानी के हैलीकॉप्टर से ही आये थे। मोदी ने अडानी से कितनी मदद ली और वो इसे किस रूप में चुका रहे हैं, ये सवाल तो अहम हैं ही लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में किसी खास कंपनी का ऐसा विस्तार और पूंजी का केंद्रीकरण पूंजीपतियों के साथ सियासी गठजोड़ के औचित्य पर भी गंभीर सवाल उठाता है। सवाल ये कि क्या अडानी समूह मोदी के लिये ईस्ट इंडिया कंपनी की तर्ज़ पर काम कर रहा है? क्या उसके कारोबार का विस्तार बीजेपी के लिये सियासी नफे का सौदा साबित हो रहा है? क्या इसे कानूनों की आड़ में चुनावी फंडिंग के ज़रिये भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का सटीक उदाहरण माना जा सकता है? क्या उत्तराखंड में अडानी की दस्तक राज्य में चुनावी खर्च के बढ़ने और बीजेपी की सत्ता में वापसी के संकेत दे रही है?
52 वर्षीय गौतम अडानी का बढ़ता मुनाफा और तेजी से फैलता समूह क्या सरकारी तंत्र के साथ किसी बड़े गठजोड़ का संकेत है, ये जांच का विषय है। फिलहाल तो अपने राजनीतिक रसूख और मोदी से कथित करीबी रिश्तों के कारण अडानी की कंपनी के खिलाफ आर्थिक अनियमितताओं के आरोपों की जांच ठंडे बस्ते में है। अडानी ग्लोबल के खिलाफ 2000 करोड़ की अनियमितता के आरोप हैं लेकिन घोटाले की इस कथा को सामने लाने में जांच अधिकारी बेबस नज़र आ रहे हैं। पिछले साल जुलाई में सीबीआई ने जिस कंपनी पर 2300 करोड़ की धोखाधड़ी का केस दर्ज़ किया हो उसे नवंबर में सरकारी बैंक 6000 करोड़ का कर्ज़ दे दे ये बात गले नहीं उतरती। एसबीआई और अडानी के बीच हुआ ये समझौता बानगी है कि आम आदमी का पैसा किस तरह से एक कारोबारी को राहत देने के लिये लुटाया जा रहा है।
वैसे अडानी से जुड़े घोटालों की फेहरिस्त लंबी है। ऐसे खुलासे हो चुके हैं कि कई राज्यों की सरकारों ने अडानी की कंपनियों को पांव पसारने में सीमाओं से आगे जाकर मदद की। ये भी कोई छिपी हुई बात नहीं कि कई पूर्व नौकरशाहों को बड़े पदों पर बैठा कर अडानी समूह सरकार और विभागों से उनके व्यक्तिगत सम्बन्धों का इस्तेमाल कारोबारी हितों के लिये करता रहा है। मोदी की गुजरात सरकार पर अडानी समूह को देश के सबसे बड़े बंदरगाह मुंदड़ा के लिए कौड़ियों के भाव ज़मीन देने का आरोप लगा था। पिछले साल मई में बिजली बनाने के उपकरणों के आयात की क़ीमत बढ़ाकर दिखाने के लिए अडानी की कंपनी को नोटिस जारी किया गया था। अडानी ग्रुप के प्रबंध निदेशक और गौतम अडानी के भाई राजेश अडानी को कथित तौर पर कस्टम ड्यूटी चोरी के मामले में 2010 में गिरफ़्तार भी किया गया था। झारखंड के परसा कोल ब्लॉक को 2006 में कोयला खनन के लिये अडानी समूह को सौंपे जाने के लिये की गयी पूरी कवायद सवालों के घेरे में रही है। बीजेपी की रमन सरकार के साथ हुए इस सौदे में अडानी को तो जम कर मुनाफा हुआ जबकि कैग की रिपोर्ट के अनुसार सरकार डेढ़ हज़ार करोड़ से ज्यादा गंवा बैठी। छत्तीसगढ़ में अडानी इंटरप्राइजेज ज्वाइंट वेंचर के तहत कोयला खनन कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने कोयला घोटाले के बाद सारे कोल ब्लॉक अवैध घोषित कर दिये लेकिन अडानी का खेल बदस्तूर जारी है। उत्तर प्रदेश की पिछली बीएसपी सरकार ने बिजली संकट को बहाना बनाते हुए प्राइवेट कंपनी से बिजली खरीदने का फैसला किया तो उसे भी अडानी ग्रुप ही नज़र आया। ऊर्जा विभाग के ज़रिये अडानी से बिजली खरीदने के फैसले ने लोगों को बिजली कटौती से कुछ राहत तो दी लेकिन आंकड़े बताते हैं कि इस काम में हजारों करोड़ रुपयों की बंदरबांट भी हुई। अडानी ग्रुप ने यूपी को उस वक्त 4 .35 रुपये प्रति यूनिट बिजली दी जबकि हरियाणा को वही बिजली 3 .10 रुपये प्रति यूनिट पर दी जा रही थी। यानी यूपी की तत्कालीन बीएसपी सरकार प्रति यूनिट सवा रुपये ज्यादा चुका रही थी। ज़ाहिर है अडानी को फायदा पहुंचाने के लिये नियमों और बिजली नियामक बोर्ड की आपत्तियों को ताक पर रख दिया गया। इतना ही नहीं, अडानी से जुड़े विवाद पिछले दिनों देश की सीमा पार कर ऑस्ट्रेलिया तक जा पहुंचे थे।
साफ है कि एक सधे हुए कारोबारी की तरह अडानी ग्रुप की निगाह मुनाफे पर टिकी हुई है और ये मकसद हासिल करने के लिये उसका गठजोड़ किसी खास राजनीतिक पार्टी तक सीमित नहीं रहा है। तो क्या अब उत्तराखंड की रावत सरकार भी अडानी की आवक को ऐसे ही किसी मौके के तौर पर देख रही है। राज्य में विपक्षी बीजेपी तो अडानी के साथ सरकार के किसी समझौते पर सवाल उठाने की स्थिति में ही नहीं है क्योंकि चुनावी फंडिंग ने उसका मुंह बंद कर रखा है। वो बस सरकार को इतनी नसीहत दे रही है कि सरकारी नीतियों में अडानी की सुविधा का ध्यान रखा जाये। ऐसे में राज्य के भ्रष्ट नौकरशाहों के लिये ये बहती गंगा में हाथ धोने सरीखा मौका हो सकता है।



उत्तराखंड में हार्दिक !

मिल गया उत्तराखंड का हार्दिक!


(भूपेश पंत)

(उत्तराखंड के दूरदराज पहाड़ी इलाकों के लोगों को आज भी उस सुबह का इंतज़ार है जब उसकी सारी तकलीफें मिट जाएं। अलग राज्य बनने के 15 साल बाद भी पहाड़ के जीवन की दुरूहता खत्म नहीं हो सकी है। हालात बताने के लिये ये चंद शब्द ही काफी हैं कि मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। आने वाले चुनाव एक मौका होंगे राज्य में ऐसी सरकार बनाने का जो पहाड़ को उसका हक दिला सके। क्या इस बार विकल्पहीनता की स्थिति से उबर पाएगा पहाड़ी समाज और उत्तराखंड में भी गुजरात की तर्ज़ पर दस्तक देगा हार्दिक जैसा कोई नौजवान.। हमने किया पहाड़ की उम्मीदों के हार्दिक से एक स्वप्निल साक्षात्कार) 

आज सुबह जब मैं काम पर निकला तो सड़क पर अचानक सामने से आते शख्स को देकर ठिठक पड़ा। उसका चेहरा मुझे कुछ जाना पहचाना सा लगा। शायद टीवी पर देखा था। मैं सोचने लगा तो मेरी याददाश्त ने भी मेरा पूरा साथ दिया.... हार्दिक और देहरादून में। मैं चौंक पड़ा कि उस नौजवान की शक्ल गुजरात में पटेलों को आरक्षण की मांग कर रहे हार्दिक से मिलती जुलती थी। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उस चिरपरिचित से लगने वाले नौजवान को टोक ही दिया। “आप हार्दिक ही हो ना... वो गुजरात वाले.... ?” मैंने उससे पूछा। अचानक हुए इस सवाल से पहले तो वो नौजवान थोड़ा सकपकाया, लेकिन फिर मुस्कुराते हुए बोला.... “नहीं भाई साहब, मैं गुजरात का नहीं उत्तराखंड का हार्दिक हूं।” अब मेरी फिर से चौंकने की बारी थी.... मैंने पूछा, “उत्तराखंड का हार्दिक, यहां के लोगों को भला क्यों किसी हार्दिक की ज़रूरत पड़ने लगी..?” उसने फिर मुस्कुरा कर जवाब में एक सवाल मुझ ही पर दाग दिया, “क्या नहीं है ज़रूरत, आप ही बताओ?”

उसकी बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया और पत्रकार होने के नाते खुद को उत्तराखंड का हार्दिक बताने वाले इस शख्स से कुछ और जानने की इच्छा होने लगी। मैंने उसके सवाल को दरकिनार करते हुए पूछा, “अच्छा अगर तुम खुद को यहां का हार्दिक बतलाते हो तो आरक्षण पर कुछ विचार तो होंगे ही तुम्हारे।” उस नौजवान ने मुस्कुराते हुए मेरा हाथ पकड़ा और घंटाघर के नजदीक वाले पार्क की दिशा में चल पड़ा। “आइये आराम से बैठ कर बातें करते हैं.... पार्क की बैंच पर बैठते ही वो नौजवान सीधा मुद्दे की बात पर आ गया। “देखिये मैं आरक्षण का विरोधी नहीं हूं.... मेरा मानना है कि उत्तराखंड के दुर्गम पर्वतीय इलाके अपनी भौगोलिक विषमता के कारण शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से आज तक महरूम हैं। यानि आज भी उन इलाकों के लोग विकास की दौड़ में पिछड़े हुए हैं। ऐसे इलाकों के मूल निवासियों को ओबीसी आरक्षण मिलना चाहिये। हमारे पहाड़ के लिये तो ये अलग राज्य बनने से भी बड़ा सवाल है जिसे सत्ता की चाह ने बरसों पहले निगल लिया।”

“मूल निवासियों से तुम्हारा मतलब... क्या तुम पहाड़वाद फैलाना चाहते हो...?” मैंने सवाल दागा।

“एक पर्वतीय राज्य में अगर पहाड़ के लोगों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाये तो कौन सा वाद हमें बचाने आयेगा? ये किसी वाद का नहीं पहाड़ के अस्तित्व का सवाल है जिसे बचाने के लिये मैं पहाड़ के लोगों को झकझोरना चाहता हूं। पिछले पंद्रह सालों में राष्ट्रीय दलों ने हमें सिर्फ ठगा है और पहाड़ के लोग इससे आजिज आ चुके हैं। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे सूबे के कई सियासतदां और नौकरशाह इस राज्य का कोई भला नहीं करने वाले। आज भी अगर पहाड़ के लोग नहीं चेते तो अगले पंद्रह सालों में भी विकास की शक्ल नहीं देख पाएंगे। मैं इस राज्य को पहाड़ और मैदान की सीमा में नहीं ईमानदार और भ्रष्टाचार की सीमा में बांधने का पक्षधर हूं।” उसकी आवाज़ थोड़ी तेज हुई।

“इस पर्वतीय राज्य में आपदा और उसके प्रबंधन को लेकर तुम क्या सोचते हो...?” मैंने पूछा।

“देखिये मैं न तो आंकड़ों में जाना चाहता हूं और न ही इसे सियासत का मुद्दा बनाना चाहता हूं। मेरी सोच बिल्कुल साफ है कि हिमालयी क्षेत्रों में आपदा से निपटने में केंद्र से लेकर राज्य तक राजनीतिक सोच से ऊपर उठ कर काम करने की ज़रूरत है बशर्ते इसे सरकारी खजाने और राहत राशि की बंदरबांट का ज़रिया न बनाया जाये। नीतियां दूरगामी हों और पर्यावरण के साथ साथ क्षेत्र की जनता की आकांक्षाओं को भी उनमें शामिल किया जाये। ताकि पलायन और बेरोजगारी का हल निकल सके।”  

“तो क्या राष्ट्रीय पार्टियों के स्थानीय नेता तुम्हें इन मुद्दों पर संजीदा नज़र नहीं आते?” पूरे जोश और आत्मविश्वास के साथ धारा प्रवाह बोल रहे हार्दिक को मैंने फिर टोका?

“नहीं, बिल्कुल नहीं... पलायन के मुद्दे को वो नेता कैसे हल करेंगे जो खुद पलायनवाद के शिकार हैं। जिन्होंने सत्ता की चाह ही इसलिये की ताकि उन्हें पहाड़ से निकल कर मैदानों में आने का सौभाग्य हासिल हो सके। सियासत में आते ही जिनके अपने घर में कोई बेटा-बेटी बेरोजगार ना रह गया हो वो भला क्यों दूसरों की फिक्र करने लगे।” उसने तंज कसा

“मौजूदा रावत सरकार के कामकाज के बारे में तुम्हारी क्या राय है?” मैंने पूछ ही लिया।

“ देखिये, रावत सरकार ने कुछ ऐसे कदम ज़रूर उठाये हैं जिनमें पहाड़ की खेती, संस्कृति और लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की कोशिश की गयी है। लेकिन इन घोषणाओं में ईमानदारी कम और सियासी ज़मीन बचाने की कोशिश ज्यादा नज़र आती है। अगर राज्य में अब तक सरकारों ने ईमानदारी से काम किया होता तो आज मैं आपसे इन मुद्दों पर बात नहीं कर रहा होता। मेरा तो यही कहना है कि पहाड़ के लोग अब अपनी क्षेत्रीय अपेक्षाओं की उपेक्षा सहने को तैयार नहीं हैं... और न ही किसी नयी-पुरानी राष्ट्रीय पार्टी से ठगे जाने के लिये। अगर इस पर्वतीय राज्य में पहाड़ों की हालत ही नहीं सुधरी तो राज्य बनने का क्या फायदा। हां, मौजूदा कांग्रेस सरकार गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की दिशा में जो कदम उठा रही है उसकी सराहना की जानी चाहिये क्योंकि इससे वहां आधारभूत ढांचे का विकास होगा और गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग को मजबूत आधार मिलेगा। लेकिन पहाड़ की उपेक्षा का घाव इतने से नहीं भरने वाला।”       

“तो क्या अगले चुनाव में उतरने का इरादा है...?” मैंने सीधे सीधे पूछा।

“आपको क्या लगता है... इस सूबे की दो दलीय सियासत को एक ऐसे मजबूत त्रिकोण की ज़रूरत नहीं है जो पूरी तरह से क्षेत्रीय भावनाओं को समर्पित हो.... पहाड़ की समस्याएं इतनी आसान होतीं तो क्या उनका समाधान अब तक हो नहीं जाता... उन्हें हल करने के लिये व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरत है। जिन नेताओं ने खुद अपना कद पहाड़ से बड़ा कर लिया हो वो भला पलायन, बेरोजगारी जैसी पहाड़ की तमाम दुरूह समस्याओं का हल कैसे निकाल पाएंगे। इसके लिये तो उन्हें पहले पहाड़ की आत्मा में घुसना पड़ेगा।” हार्दिक ने कहा।

“ये मुद्दे तो यूकेडी भी उठाती रही है, इसमें नया क्या है?” मैंने जानना चाहा। 

“यूकेडी का भविष्य उसके अतीत से ही जुड़ा है। सत्ता की चाह में शेर के चुनाव चिह्न से कुर्सी और कप प्लेट तक जा पहुंची ये पार्टी कब अपने ही लोगों से कट गयी और बंट गयी इस बात का उसे पहले अहसास तो हो। पिछले पंद्रह सालों में यूकेडी किसी ना किसी रूप में सूबे की सरकारों में भागीदार रही है लेकिन उसके सत्तारूढ़ नेता ना तो अपना भविष्य बना पाये और ना ही पार्टी का। एक आंदोलनकारी छवि की बजाय जिस पार्टी के नेताओं ने सुविधाभोगी राजनीति का लक्ष्य चुना हो उनसे इस क्षेत्र की जनता कितनी और कब तक उम्मीद रखेगी।” उसकी बातों में तल्खी साफ झलक रही थी।   

“तुम्हें क्या लगता है कि इन क्षेत्रीय मुद्दों पर राज्य के लोग तुमसे जुड़ेंगे?” ...मेरा सवाल काफी अहम था। 

“क्यों नहीं... पहाड़ की जनता अब कसमसाने लगी है। वो सीधी सादी है इसीलिये उसे बेवकूफ मान लिया गया है। पहाड़ी लोगों को अपने आत्मसम्मान के लिये एकजुट होना ही होगा। अपने राजनीतिक अधिकार का इस्तेमाल करने से पहले उन ताकतों की पहचान करनी होगी जो पहाड़ को सिर्फ और सिर्फ लूटने में लगी हैं। हम लोगों में राष्ट्रीय भावना की कमी नहीं है और हमारे लोग सेना में जाकर देश के लिये मर मिटने को हमेशा तैयार हैं लेकिन हमारे क्षेत्रीय अस्तित्व को बचाने की ज़िम्मेदारी कौन लेगा। हमें अपनी अलग पहचान बनानी होगी और ‘सूर्य अस्त-पहाड़ मस्त’ जैसे जुमलों को खारिज़ करना होगा जिसने राज्य से बाहर हम लोगों की नकारात्मक पहचान बनायी है।” 

मैंने उससे पूछा, “तो क्या तुम राज्य में शराबबंदी चाहते हो?”

“मैं चाहता हूं कि सरकार इस दिशा में ज़रूरी कदम उठाये लेकिन इसका इस्तेमाल अवैध शराब को संरक्षण और शराब की तस्करी को बढ़ावा देने के लिये ना हो। आबकारी नीति सरकार का खजाना भरने के लिये नहीं बल्कि पहाड़ की जनता और खासतौर पर महिलाओं की चिंताओं को केंद्र में रख कर बनायी जाये। राज्य में लगातार बढ़ रहे अपराधों की सबसे बड़ी शिकार महिलाएं ही हैं। व्यवस्था ऐसी हो जो लोगों में नैतिक मूल्यों का विकास कर सके और कानूनों का पालन कराने में किसी तरह का भ्रष्टाचार और दोगलापन न हो।” बातों बातों में शुरू हुआ ये साक्षात्कार बढ़ता ही जा रहा था।   

“तुम्हें लगता है कि इस राज्य में सियासत की नयी पौध लगाने की ज़रूरत है?” मेरा अगला सवाल था। 

“बिल्कुल... लेकिन ऐसा नहीं कि बदलाव की इस सियासत में अनुभवी लोग हाशिये पर धकेल दिये जाएं। राष्ट्रीय दलों में भी कुछ ऐसे नेता हैं जो पहाड़ की राजनीति से वास्ता रखे हुए हैं.... कुछ सियासी मजबूरियों के कारण लोगों को बरगला रहे हैं तो कुछ वाकई काम करना चाहते हैं लेकिन उनकी अपनी पार्टियां और मैदानों तक सीमित सरकारी नीतियां उनके हाथ बांध लेती हैं। कुछ ऐसे भी लोग और संगठन हैं जो पहाड़ की अस्मिता बचाने के लिये अपने अपने स्तर पर बौद्धिक और सामाजिक काम कर रहे हैं। ऐसे सभी ईमानदार लोगों को जोड़ने की कोशिश की जानी चाहिये।” 

“लेकिन सिर्फ पहाड़ की बात करके आखिर तुम कितनी सीटें हासिल कर पाओगे।” मैंने उसके जोश को थोड़ा ठंडा करने की कोशिश की।

“70 में से पहाड़ की 37 सीटें कम होती हैं भाई साहब.... उसने समझाने के अंदाज में मुझसे पूछा। “देखिये, नीतियों में अनुकूल बदलाव लाना है तो संख्या बल की सियासत तो करनी ही पड़ेगी और ऐसे लोगों के हाथों में सत्ता की कमान सौंपनी पड़ेगी जो हमारे मुद्दों के प्रति गंभीर हों। ये पहाड़ का दुर्भाग्य है कि बहुमत का आंकड़ा हमारे पास होने के बावजूद सत्ता हमारी फिक्र नहीं करती। वो हमें धर्म, जाति और क्षेत्र की सीमाओं में बांटते हैं और हम उनकी मंशा भांप नहीं पाते। वैसे भी हमें अपने अस्तित्व की लड़ाई को पहाड़ बनाम मैदान के विवाद में उलझने नहीं देना है। लेकिन ये भी एक कड़वा सच है कि पहाड़ की सुरक्षा के बिना मैदान का कोई भविष्य नहीं है और ये क्षेत्रीय या राष्ट्रीय नहीं एक अंतर्राष्ट्रीय प्रश्न है।” हार्दिक का जोश बरकरार था।

“चुनाव के लिये फंड कहां से आयेगा”, ये सवाल पूछना मुझे वाजिब लगा।

“देखिये, हमें अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिये उनके दिलों में उतरना पड़ेगा ना कि पोस्टरों और बैनरों में। हां शुरुआत में थोड़ी दिक्कत ज़रूर होगी लेकिन एक बार ये काम हो गया तो हमें लोगों का वो सहयोग मिलेगा जो बीजेपी-कांग्रेस के करोड़ों रुपये के प्रचार तंत्र पर भारी पड़ेगा ।” वो शायद बात को अब और खींचना नहीं चाहता था।  

मैंने महसूस किया कि खुद को उत्तराखंड का हार्दिक कह रहे इस शख्स के दिलोदिमाग में जो स्वप्न पल रहे थे वो कई चुनौतियां अपने साथ लेकर चल रहे थे। सोच अलग नहीं थी लेकिन मुद्दों को हल करने का ज़ज्बा नज़र आ रहा था... बस ज़रूरत थी तो विचारों को व्यावहारिकता के धरातल पर उतारने और ईमानदार लोगों के साथ की। ये सोचते सोचते मैंने उससे विदा लेते हुए कहा... “एक आखिरी सवाल...आपु कांक छा?” (आप कहां के ठैरे?) उसने मुस्कुरा कर हाथ मिलाते हुए कहा, “मैं पहाड़ी हूं..... और मेरा नाम है हार्दिक पी, पूरा नाम.... हार्दिक पहाड़ी।” 

विचारों के तेज होते प्रवाह और दिलोदिमाग पर छा रही उत्तेजना ने मुझे आंखें खोलने पर मजबूर कर दिया। ऑफिस के लिये तैयार होते होते मैं बस यही सोच रहा था कि पहाड़ की जनता और सूबे के सियासी भविष्य को ‘हार्दिक’ शुभकामनाओं का अभी और कितना इंतज़ार करना होगा।

बहुत याराना लगता है !

ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे
(भूपेश पंत)

उत्तराखंड में कांग्रेसी सरकार के मुखिया हरीश रावत और प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) के बीच का याराना कांग्रेसियों के विरोध के बावजूद लगातार परवान चढ़ रहा है। पीसीसी अध्यक्ष किशोर उपाध्याय और पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा समेत कई नेताओं के मुखर होने के बावजूद रावत पीडीएफ के साथ प्यार की पींगें लेने में व्यस्त हैं। आंकड़ों के आधार पर अपनी सरकार बचाने के लिये भले ही रावत को अब पीडीएफ के समर्थन की दरकार नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री उसके सहारे राज्य में अपने राजनीतिक विरोधियों को सियासी पटखनी देने की रणनीति पर काम कर रहे हैं।
पीडीएफ का गठन 2012 में राज्य में हुए विधानसभा चुनाव में खंडित जनादेश आने के बाद निर्दलीय तीन, बीएसपी के तीन और यूकेडी के एक विधायक ने मिलकर किया। इस चुनाव में कुल सत्तर विधानसभा सीटों में से कांग्रेस को बत्तीस, बीजेपी को इकतीस, बीएसपी को तीन, निर्दलीय तीन और यूकेडी को एक सीट मिली थी। बहुमत के लिये जरूरी छत्तीस सीटों का आंकड़ा कोई भी दल छू न सका। ऐसे में राज्य में कांग्रेस की सरकार बनाने में पीडीएफ के सात विधायकों ने बैसाखी का काम किया और फ्रंट बना कर कांग्रेस नेतृत्व से  मोलभाव करने की सियासी ज़मीन भी तैयार की। इसी सियासी मज़बूरी के चलते बहुगुणा सरकार में पीडीएफ के सात में से पांच विधायकों को मंत्रीपद से नवाज़ा गया। लेकिन पिछले साढ़े तीन सालों में राज्य विधानसभा की सियासी तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। डोईवाला, सोमेश्वर और सितारगंज विधानसभा उपचुनावों में बीजेपी से तीन सीटें झटक कर और भगवानपुर में दिवंगत बीएसपी विधायक सुरेंद्र राकेश की पत्नी को अपने टिकट से जितवा कर कांग्रेस छत्तीस सीटों के साथ विधानसभा में पूर्ण बहुमत हासिल कर चुकी है। बीजेपी के पास अब अट्ठाइस विधायक शेष हैं जबकि बीएसपी के दो, निर्दलीय तीन और यूकेडी के एक विधायक पीडीएफ के तौर पर कांग्रेस को समर्थन दे रहे हैं। पीडीएफ के छह विधायकों में से चार रावत मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री हैं जबकि कांग्रेस के छत्तीस में से मात्र छह को मंत्रिमंडल में जगह मिल पायी है। कांग्रेस के पास कई अनुभवी नेता होने के बावजूद काबीना मंत्री सुरेंद्र राकेश के निधन से खाली हुए मंत्री पद पर अभी तक किसी को जगह नहीं दी गयी है। मंत्रीपद चाहने वाले कांग्रेस के महत्वाकांक्षी विधायकों को बस यही कसक टीस की तरह चुभ रही है।

राज्य में कांग्रेस के भीतर कई गुट पीडीएफ के साथ लंबे संबंधों को लेकर अपना विरोध जता रहे हैं। इनमें से एक गुट की अगुवाई कर रहे हैं पिछले साल पीसीसी अध्यक्ष पद पर काबिज़ हुए किशोर उपाध्याय जो पीडीएफ के साथ गठबंधन के भविष्य और कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को लेकर बेहद चिंतित नज़र आ रहे हैं। ज़ाहिर है संगठन के मुखिया के तौर पर 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को फिर से सत्ता में लाने की ज़िम्मेदारी में मुख्यमंत्री के साथ साथ उनकी भी अहम हिस्सेदारी होगी। सियासत की लंबी पारी खेल चुके रावत के लिये आने वाले चुनाव भले ही जीवन मरण का प्रश्न न हों लेकिन किशोर उपाध्याय का राजनीतिक भविष्य तो पार्टी की हार जीत से ही तय होना है। गौरतलब है कि पीडीएफ के मौजूदा छह विधायकों में से कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाले तीन निर्दलीय पिछले चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवारों को हरा कर ही विधानसभा में पहुंचे थे। लिहाज़ा अगले चुनावों में टिहरी और उत्तरकाशी के कांग्रेसी नेताओं को खासतौर पर बड़ी चुनौती मिल सकती है। पीडीएफ से काबीना मंत्री दिनेश धनै ने टिहरी विधानसभा से कांग्रेस उम्मीदवार और अब पीसीसी अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को पटखनी दी थी। काबीना मंत्री और पीडीएफ के प्रमुख मंत्रीप्रसाद नैथानी देवप्रयाग से जीत कर आये हैं जहां से पूर्व विधायक शूरवीर सिंह सजवाण कई बार चुनाव लड़ चुके हैं। कुछ ऐसा ही हाल उत्तरकाशी से कांग्रेस के पूर्व विधायक केदार सिंह रावत के चुनाव क्षेत्र यमुनोत्री का है जहां से इस बार यूकेडी विधायक प्रीतम सिंह पंवार पीडीएफ कोटे से काबीना मंत्री बनाये गये हैं। ज़ाहिर है ऐसे में हारे हुए कांग्रेस उम्मीदवारों को आने वाले विधानसभा चुनाव में अपने जनाधार के खिसकने का डर सता रहा है।

कांग्रेस कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का मुद्दा उठा कर पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत, डोईवाला से विधायक हीरा सिंह बिष्ट और संगठन के मुखिया किशोर उपाध्याय लगातार पीडीएफ को सरकार से बाहर करने का दबाव बनाते रहे हैं लेकिन मुख्यमंत्री हरीश रावत गठबंधन धर्म का वास्ता देकर अपनी सियासी गोटियां बिछाने में जुटे हैं। रावत की मजबूरी ये भी है कि सतपाल महाराज के बीजेपी में चले जाने के बाद मंत्री पद से हटायी जा चुकीं कांग्रेस विधायक और महाराज की पत्नी अमृता रावत और महाराज समर्थक विधायकों के पाला बदलने की आशंकाएं बनी हुई हैं। बहुगुणा गुट के विधायक पहले ही अपमान का घूंट पी कर रावत की ओर से किसी ऐसी सियासी चूक का इंतज़ार कर रहे हैं जिससे पूर्व मुख्यमंत्री की फिर से ताजपोशी का रास्ता खुल सके। ऐसे में पीडीएफ को दरकिनार कर केवल छत्तीस विधायकों के सहारे सरकार चला कर रावत सत्ता से बेदखल होने का जोखिम नहीं उठाना चाहते। माना जा रहा है कि इन्हीं आशंकाओं की डरावनी तस्वीर दिखा कर रावत कांग्रेस आलाकमान को अपने पाले में किये हुए हैं। देश भर में कांग्रेस के सिमटते जनाधार के बीच रावत पार्टी संगठन की कीमत पर अपना मुख्यमंत्री पद बरकरार रखना चाहते हैं और इसके लिये पीडीएफ का साथ उन्हें मुफीद नज़र आ रहा है। मजबूरी का ये याराना इतना पक्का है कि हरीश रावत पीडीएफ कोटे को कम करने की मांग को खुलेआम अपनी सरकार के खिलाफ़ साजिश बताने से भी नहीं चूके। विधानसभा में कांग्रेस के भीतर ज़बर्दस्त गुटबाजी और सीएम की कुर्सी को लेकर जारी खींचतान के बीच मंझे हुए राजनीतिज्ञ हरीश रावत पीडीएफ के तिनके के सहारे अपनी सियासी वैतरणी पार करने की फिराक में हैं और उनकी यही जिद राज्य के कई दिग्गज कांग्रेसियों के मन में अपने चुनावी भविष्य को लेकर नित नयी आशंकाओं को जन्म दे रही है। आशंकाओं का ये तूफान कांग्रेस के जहाज को आने वाले चुनावों में सत्ता के किनारे तक पहुंचा पाएगा ऐसा फिलहाल तो संभव नहीं दिखता।



राजसत्ता एक्सप्रेस में 22 सितंबर को प्रकाशित