मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

लोकतंत्र के पर्व में करोड़ों का दांव !

(भूपेश पंत)

बिहार विधानसभा चुनाव के बहाने एक बार फिर चुनावों में होने वाले अंधाधुंध खर्च का मुद्दा गरम है। चुनाव आयोग भले ही विधायकों और सांसदों के चुनावी खर्च की सीमा तय करता हो लेकिन राजनीतिक पार्टियां इस संवैधानिक संस्था के कायदे कानूनों को ठेंगा दिखाने में कभी गुरेज नहीं करतीं। लोकतंत्र में चुनावों को भले ही सरकारों से जनता की अपेक्षाओं और उनके आकलन का अवसर माना जाता हो, लेकिन अब ये चुनाव बड़े पैमाने पर कालेधन को ठिकाने लगाने का ज़रिया बन गये हैं। बिहार में सत्तारूढ़ जेडीयू ने बीजेपी पर चुनाव प्रचार में तीस हजार करोड़ रुपये खर्च करने का आरोप लगाया है जबकि बीजेपी पहले ही जेडीयू पर तीन सौ करोड़ रुपये झोंकने का आरोप लगा चुकी है। कोई इन आंकड़ों पर भरोसा ना भी करे तो भी कई चुनाव देख चुकी देश की आम जनता को ये अप्रत्याशित नहीं लगता। सब जानते हैं कि चुनाव आयोग को दिये गये राजनीतिक दलों के चुनावी खर्च के आंकड़े असलियत के कितने करीब होते हैं।     
पिछले लोकसभा चुनाव और उसके साथ कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में सियासी दलों के प्रचार पर अरबों रुपये का खर्च चुनाव आयोग में दर्ज है। प्रचार में रुपये खर्च करने में बीजेपी नंबर एक पर रही जबकि कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही। बीजेपी ने कुल 714 करोड़ रुपये खर्च करने का आंकड़ा पेश किया है तो कांग्रेस ने 516 करोड़ रुपये खर्च करने की बात मानी है। आंकड़ों को ही मानें तो एनसीपी ने इन चुनावों पर 51 करोड़ रुपये झोंके जबकि बीएसपी तीस करोड़ और सीपीआई (एम) 19 करोड़ से ज्यादा खर्च नहीं कर पायीं। लेकिन राजनीतिक दलों के इन आंकड़ों पर भरोसा करने की कोई वजह दिखायी नहीं देती। बड़े पैमाने पर काले धन का इस्तेमाल होने के कारण चुनावी खर्च का वास्तविक ब्यौरा मिलना नामुमकिन लगता है। चुनाव में काला धन लगाने का एक अहम ज़रिया बना हुआ है, चुनावी चंदा।
पंचायत चुनावों से लेकर विधानसभाओं और लोकसभा के चुनावों में तय सीमा से कई सौ गुना ज्यादा खर्च होता है, इस बात से कोई इंकार कर ही नहीं सकता। महंगाई बढ़ने के साथ साथ इस खर्च में भी बढ़ोत्तरी होती है। आखिर इतना पैसा सियासी दलों के पास आता कहां से है... जाहिर है चुनावी चंदे से। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की ओर से जारी चुनावी चंदों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो यूपीए सरकार के दौरान अप्रैल 2004 से मार्च 2011 तक सात सालों में कांग्रेस पार्टी ने करीब 2009 करोड़ रुपये कमाये। इनमें से साढ़े तेरह फीसदी यानी 272 करोड़ रुपये उसे चंदे से मिले। घोषित तौर पर बीस हज़ार रुपये से ज्यादा का चंदा देने वाले नौ फीसदी से भी कम रहे। बीजेपी ने इन सात सालों में करीब 995 करोड़ रुपये कमाये जिसमें से 820 करोड़ रुपये चंदे के नाम पर जुटाये गये। हैरानी की बात है कि यहां भी बीस हज़ार रुपये से ज्यादा का चंदा देने वाले इनमें से केवल 15 फीसदी रहे। दरअसल बीस हज़ार रुपये से ज्यादा चंदा देने वालों का नाम घोषित करना कानूनन अनिवार्य है और सियासी दल इसी कानून का जम कर दुरुपयोग कर रहे हैं। इन चंदों का एक बड़ा हिस्सा श्वेत-श्याम रूप में उद्योगपतियों और बड़े बड़े ग्रुपों से मिलने वाले राजनीतिक चंदे से आता है। ऐसे में ट्रस्टों के ज़रिये पार्टियों को दिये जाने वाले इस चंदे की घोषित रकम भी उतनी बड़ी नहीं होती जिससे असली चुनावी खर्च को आंका जा सके। कई नेता चुनाव आयोग की ओर से तय सीमा को व्यावहारिक ना मान कर अपने बढ़ते चुनावी खर्च को नैतिकता का जामा पहनाना चाहते हैं।
उत्तराखंड में डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों के लिये भी राजनीतिक पार्टियां कमर कसने लगी हैं। एक ओर सदस्यता अभियान के ज़रिये चंदा जुटाया जा रहा है तो वहीं अपनी अपनी जीत के दावे करके सियासी पार्टियां राजनीतिक चंदों की उगाही के लिये छोटी-बड़ी कंपनियों पर डोरे डाल रही हैं। सूत्रों की मानें तो मोदी लहर के चलते अपनी जीत को लेकर आश्वस्त बीजेपी इस बार राज्य में करोड़ों का दांव खेलने जा रही है। खबर है कि 70 विधानसभा क्षेत्रों से प्रत्येक पर पार्टी कम से कम डेढ़ करोड़ रुपये चुनाव प्रचार पर खर्च करेगी। केंद्र की सत्ता से बाहर होने के बाद कांग्रेस का चुनावी खर्च काफी हद तक राज्य की कांग्रेस सरकार के आर्थिक कौशल पर निर्भर करेगा। हैरानी की बात है कि जो राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिये करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाने को तैयार रहती हैं, वो सत्ता में आने के बाद इससे कई गुना अधिक तो वसूल करती ही होंगी। साफ है कि लोकतंत्र के इन लगातार महंगे हो रहे चुनावी पर्वों की कीमत तो विकास के खोखले दावों से जूझ रही आम जनता ही चुकाती है।

इस कीमत को चुका कर भी जनता जिन सियासी पार्टियों को भरोसे से सत्ता सौंपती हैं उसी जनता के सामने ये पार्टियां झूठ बोलने से बाज नहीं आतीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में चुनावी खर्च को लेकर इनका झूठ हाल ही में तब सामने आया जब एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म ने 14 राजनीतिक दलों के खर्च का ब्यौरा निकाला। उसमें लगभग सभी पार्टियों और सांसदों की ओर से दी गयी जानकारियों में काफी अंतर मिला। उत्तराखंड के टिहरी से बीजेपी सांसद माला राज्यलक्ष्मी शाह कहती हैं कि पार्टी से उन्हें कुछ नहीं मिला तो बीजेपी उन्हें 15 लाख रुपये देने का दावा कर रही है। बीजेपी के ऐसे 35 सांसदों ने पार्टी के घोषित आंकड़ों से कहीं ज्यादा चुनावी खर्च जाहिर किया है। वैसे बीजेपी के हिसाब से उसने अपने 159 सांसदों को 48.25 करोड़ दिये, जबकि उसके ही 229 सांसद पार्टी से चुनाव खर्च मिलने की बात कह रहे हैं। उधर कांग्रेस के मुताबिक 44 में से सात सांसदों को 2.70 करोड़ रुपये दिये गये जबकि एफिडेविट में उसके 18 सांसद पार्टी फंड से पैसा मिलने का दावा कर रहे हैं। जाहिर है कि सियासत के इस हमाम में सभी नंगे हैं। ये तो सिर्फ़ एक बानगी है जो ये बताने के लिये काफी है कि खुद को हमारा जनप्रतिनिधि बताने वाले  सांसद और विधायक किस तरह हमारी ही जेब काट कर सियासत के ऐश लूट रहे हैं और वो भी बिना शर्मिंदगी के। जनता के पैसे को पार्टी और अपने विकास के लिये पानी की तरह बहाया जा रहा है और लोग बुनियादी सुविधाओं के लिये तरस रहे हैं। कालेधन के मुद्दे पर खुद को संजीदा दिखा रही बीजेपी जितना पैसा चुनाव प्रचार में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से खर्च करेगी, उसका दोगलापन उतना ही ज़ाहिर होता जाएगा। पार्टियों की ओर से प्रचार पर होने वाले खर्च के बंटवारे में मीडिया का भी एक हिस्सा होता है इसलिये बेहतर होगा कि लोग खुद ही विचार करें कि उसे लोकतंत्र की इतनी महंगी कीमत चुकाते रहना है या फिर बढ़ते चुनावी खर्च पर अंकुश लगाने की मुहिम में अपनी भागीदारी निभानी है।           



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