मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

मजबूर नहीं मजबूत विपक्ष चाहिये


(भूपेश पंत)

उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों में डेढ़ साल का समय बचा है लेकिन सूबे की सरकार के कामकाज को लेकर विपक्षी बीजेपी के हमलों में धार अब भी नहीं आ रही है। राज्य की कांग्रेस सरकार शिक्षकों और चिकित्सकों को पहाड़ चढ़ाने में नाकाम रही है। आपदा के ढाई साल बाद भी कई जगहों पर मरम्मत का काम धरातल पर दिखायी नहीं दे रहा है। सरकार विकास योजनाओं की गठरी पीठ पर लादे पहाड़ की ओर मुंह कर एक ही जगह पर खड़ी दौड़ लगा रही है, लेकिन जो इन विकास कार्यों को गांवों तक पहुंचाने का दबाव बना सके ऐसा विपक्ष सीन से ही नदारद है। बीजेपी पहाड़ की वास्तविक समस्याओं को आंदोलन का रूप देने में नाकाम रही है। लगता है कि या तो बीजेपी में इस बार अपनी सरकार को लेकर हद से ज्यादा भरोसा है और वो पहाड़ के बेकार मुद्दों में उलझना नहीं चाहती, या फिर उसके पास इन समस्याओं का समाधान है ही नहीं। दूसरी बात ज्यादा तर्क संगत लगती है क्योंकि राज्य में वो पहले दो बार सरकार बना चुकी है और उस दौरान भी पहाड़ को लेकर कोई ठोस कार्ययोजना बनती नज़र नहीं आयी। मुख्यमंत्री के बहिष्कार, कुछ धरने प्रदर्शनों और ज्ञापनों के ज़रिये महज़ विरोध की औपचारिकता निभा रही बीजेपी का ये रवैया पहाड़ का अहित कर रहा है।
विपक्ष का काम सरकार पर जनहित के कार्यों के लिये दबाव बनाना, लोगों की समस्याओं और मुद्दों को हल करवाना और प्रक्रियागत खामियों पर सरकार का ध्यान खींचना होता है। लेकिन सूबे की मौजूदा सरकार की घोषणाएं बयां करती हैं कि उस पर कम से कम विपक्ष का दबाव तो नहीं है। अलबत्ता सरकार छोटे छोटे जन संगठनों की ओर से उठायी जा रही पहाड़ी गांवों के विकास की मांग से ज़रूर प्रभावित नज़र आ रही है। सरकार मंत्रियों, विधायकों और नौकरशाहों को गांवों की पथरीली ज़मीन पर उतारने जा रही है। इसके अलावा खेती और संस्कृति को बचाने के झुनझुने भी बजाये जा रहे हैं। पहाड़ के विकास की योजनाएं कितनी ईमानदारी से धरातल पर उतर पाएंगी इसे देखने की ज़िम्मेदारी राज्य की एकमात्र विपक्षी पार्टी के कंधों पर है लेकिन लगता है कि केंद्र की मोदीमय सत्ता की हवा ने उसे मदहोश कर दिया है। पार्टी बीजेपी विधायकों के साथ दुर्व्यवहार को लेकर रावत सरकार पर लोकतंत्र की हत्या करने का आरोप लगा रही है। लेकिन बतौर विपक्ष खुद लोकतंत्र को मजबूत करने में कितनी कामयाब रही है बीजेपी को ये भी पर्वतीय राज्य की जनता को बताना चाहिये। पार्टी ने सीडी कांड की सीबीआई जांच, आबकारी घोटाला, आपदा घोटाला और खनन घोटाले जैसे मुद्दे उठाए तो ज़रूर लेकिन ना तो वो इन पर सरकार को घेर पायी और ना ही पहाड़ के बुनियादी सवालों को हल करवा पायी। कांग्रेस सरकार के पूरे कार्यकाल में विपक्ष घोटाले ही घोटाले तलाशता रहा लेकिन उसकी आक्रामकता मुद्दों के हल से कहीं ज्यादा लूट में हिस्सा ना बंटा पाने की खिसियाहट में तब्दील होती ही नज़र आयी। मौजूदा सरकार के मुखिया हरीश रावत ने विधानसभा में जब धमकी भरे अंदाज में सबकी पोल खोलने का दांव फेंका तो न जाने क्यों विपक्ष से एक भी आवाज़ इस चुनौती को कबूल करने के लिये नहीं उठी। मुख्यमंत्री का ये बयान लोकतंत्र का कितना बड़ा उपहास था, ये बात ना तो विपक्ष को समझ में आयी और ना ही राज्य के तथाकथित जन संगठनों को। जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को लेकर सरकार और विपक्ष कितना संजीदा है ये घटना उसे बयान करने के लिये काफी है।    
ऐसा नहीं है कि सरकार ने विपक्ष को मुद्दे थमाने में कोई कोताही बरती हो। कभी मुख्यमंत्री नौकरशाहों की मनमर्जी का रोना रोते नज़र आते हैं तो कभी गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का मुद्दा गरमाते हैं। पलायन के कारण वीरान होते गांव हों या आपदा राहत के नाम पर चल रही बंदरबांट, शिक्षा  स्वास्थ्य और पेयजल से जुड़े मसले हों या पहाड़ से जुड़ी लोकलुभावन घोषणाएं, विपक्ष के पास व्यावहारिकता और भ्रष्टाचार को लेकर सरकार को टोकने का मौका हमेशा रहता है। लेकिन राष्ट्रीय पार्टी होने के अलावा और कौन सी ऐसी सियासी मजबूरी है जिसने बीजेपी के पर्वतीय जनप्रतिनिधियों को मुखर होने से रोक रखा है। नेता प्रतिपक्ष भले ही इन आरोपों से इंकार करें लेकिन सच तो ये है कि बीजेपी ने सदन के भीतर और बाहर जिन कुछ मुद्दों पर सरकार को घेरा भी उनका जन सरोकारों से कोई सीधा रिश्ता है ही नहीं। किसी भी राज्य के लिये विधानसभा सत्र बेहद अहम होता है जबकि विधायक अपने अपने क्षेत्रों की समस्याओं को उठा पाते हैं। लेकिन हर बार सदन के पटल पर रखे गये सवाल हंगामे की भेंट चढ़ जाते हैं। विपक्ष की कमजोर रणनीति हर बार सरकार को बच निकलने का मौका ही देती रही है।
पहाड़ की जनता को इस मामले में उत्तराखंड क्रांति दल से भी निराश ही हाथ लगी है। पार्टी के एकमात्र विधायक कैबिनेट मंत्री के रूप में कांग्रेस की गोद में जा बैठे हैं और संगठन के पांव तले जैसे ज़मीन ही गायब है। गुटों में बंट कर अपनी पहचान खो चुकी यूकेडी अगर पहाड़ की जनता के मुद्दों को आक्रामकता से उठाती तो शायद उनके दिलों में कुछ जगह भी बना पाती। लेकिन खुद को बचाने की कशमकश में ही उलझी ये क्षेत्रीय पार्टी कभी इन मुद्दों की तरफ लौट भी पाएगी ऐसी उम्मीद करना फिलहाल बेमानी लगता है। पहाड़ की अस्मिता के संघर्ष में जुटे छोटे छोटे राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठन स्थानीय स्तर पर इन समस्याओं के लिये संघर्ष कर रहे हैं लेकिन उन्हें एक सूत्र में पिरो सके ऐसी कोई राजनीतिक शक्ति उभर पाएगी इसे लेकर भी संदेह बना हुआ है। पहाड़ के इस तरह बंटे होने का सियासी लाभ हमेशा की तरह कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी उठाती आयी हैं, इसलिये सत्ता और विपक्ष के बीच की सियासत नूराकुश्ती से ज्यादा नहीं रह गयी है। 


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