लहरें गिनते नाकारा नौकरशाह
(भूपेश पंत)
कहा जाता है कि नेता कभी रिटायर नहीं होता, लेकिन उत्तराखंड
के संदर्भ में ये कहावत नौकरशाहों पर अधिक फिट बैठ रही है। केंद्र की मोदी सरकार
भले ही नाकारा अफसरों पर सख्ती बरतने जा रही हो लेकिन उत्तराखंड की सरकार अपने
अफसरों पर मेहरबान है। ऐसे अफसरों को सेवा विस्तार या फिर सेवानिवृत्ति के बाद
सलाहकार जैसे पदों पर फिर से नियुक्ति दी जा रही है जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर
आरोप तक लग चुके हैं। ये अफसर आपदा राहत के नाम पर पहाड़ की छाती पर चढ़ कर मौज
मनाते हैं। लोकल पर्चेज के नाम पर इनकी मुफ्तखोरी की दास्तानें भी सरेआम हैं।
कई-कई विभाग संभाले बैठे इन अफसरों की सेवा में हर विभाग से एक गाड़ी है। अब ये इन
अफसरों की मर्जी पर निर्भर करता है कि इन गाड़ियों का इस्तेमाल वो किस तरह से
करें। ताज़्जुब की बात है कि सरकार कोई भी हो इन अफसरों पर सियासी दलों की कृपा
लगातार बरसती रहती है। मौजूदा कांग्रेस सरकार भी इसमें पीछे नहीं है। ये दयानतदारी
तब है जबकि कई मौकों पर मुख्यमंत्री हरीश रावत और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर
उपाध्याय खुल कर नौकरशाही के रवैये पर अपनी नाराजगी जता चुके हैं।
नौकरशाहों के खर्च में अंकुश लगाने
के बाद केंद्र सरकार तीस साल नौकरी कर चुके या 50 साल की उम्र पार कर चुके अफसरों
के प्रदर्शन की समीक्षा करने जा रही है। इसी सालाना अप्रेजल के आधार पर उनका
प्रमोशन या छुट्टी तय होगी। हालांकि इस कार्रवाई की जद में वही अधिकारी आएंगे जिन
पर भ्रष्टाचार और अप्रभावी रहने के गंभीर आरोप हैं। केंद्र के कड़े रुख से हालत ये
हो गयी है कि प्रतिनियुक्ति पर गये कई अफसर अपने अपने कैडर में लौटने की राह तलाश
रहे हैं। दूसरी ओर नाकारा नौकरशाहों के लिये उत्तराखंड अब भी स्वर्ग बना हुआ है। अधिकारियों
की कमी का रोना रोने के नाम पर सूबे की अब तक की सरकारें कई अधिकारियों को सेवा
विस्तार या सेवानिवृत्ति के बाद दूसरे दायित्वों से नवाज़ती रही हैं। हरीश रावत
सरकार भी उसी राह पर चल रही है। आपदा राहत घोटाले को क्लीन चिट दे चुके निवर्तमान
मुख्य सचिव एन रविशंकर का नाम नये मुख्य सूचना आयुक्त की दौड़ में सबसे आगे है। राज्य
के एक बहुचर्चित वरिष्ठ नौकरशाह को भी सेवा विस्तार दिये जाने की चर्चा जोरों पर
है। ये वही नौकरशाह हैं जिनको शासन के सबसे अहम पद पर बैठाने को लेकर कुछ
पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और विपक्ष ने कुछ दिन तो काफी होहल्ला मचाया, लेकिन
आश्चर्यजनक रूप से अब सबकुछ शांत है। कोई कुछ कहे ना कहे लेकिन राज्य की जनता इस
चुप्पी के भी अपने मायने निकाल रही है।
ऐसा लगता है कि उत्तराखंड को लूटने
में जुटे कतिपय नेता और नौकरशाह अब बेशर्मी की सभी हदें पार कर चुके हैं। गरीब की
जोरू सबकी भौजाई की तर्ज पर पहाड़ की बर्बादी की पटकथा लिखी जा रही है। ज़ाहिर है
भला जब भ्रष्टाचार की गंगा इतनी तेजी से बह रही हो तो कौन बेवकूफ किनारे खड़े होकर
देखना चाहेगा। मुख्य धारा में नहा चुके ऐसे अफसरों को सरकार लहरें गिनने के काम
में लगा देती है ताकि सबको उनकी सेवाओं का प्रसाद बंटता रहे। मजे की बात है कि इन
नौकरशाहों को अलग अलग विभागों में सलाहकार जैसे पदों पर अच्छी तनख्वाह के साथ
एडजस्ट किया जाता है। सरकार में ऐसे दर्जनों विभाग हैं जहां सेवानिवृत्ति के बाद अधिकारी उसी विभाग
में सलाहकार का अपना पद सुरक्षित कर लेते हैं। नए पद और यहां तक कि नए विभाग भी
उनके लिए गठित कर लिए जाते हैं। दर्जनभर से ज्यादा सेवानिवृत्त अफसरों को यहां की
सरकारें उनकी मनचाहे विभाग और ओहदों पर बिठा चुकी हैं। सरकार के पास नयी भर्ती और पहाड़ के विकास कार्यों पर खर्च
करने को पर्याप्त पैसे नहीं हैं जबकि जनता के खून पसीने की कमाई सत्ता के चहेते
रिटायर्ड अफसरों को पालने पर झोंकी जा रही है। लेकिन इन पदों पर उनके होने का
औचित्य और उनके योगदान पर कोई सवाल नहीं उठाता। विपक्ष इसे मुद्दा कैसे बनाए जबकि
उसकी सरकारों का खुद का दामन इस मसले पर पाक साफ नहीं है।
राज्य में इस वक्त भी कई बड़े नौकरशाह रिटायर होने के बाद विभागों,
निगमों और आयोगों में उच्च पदों पर आसीन हैं। ये सिलसिला राज्य गठन के बाद से ही
चला आ रहा है। साल 2006 से लेकर 2014 तक राज्य में दो दर्जन से ज्यादा आईएएस, आईपीएस और पीसीएस अफसर पुनर्नियुक्ति पा चुके हैं
जिनमें से कई आज भी पुनर्वास के मजे लूट रहे हैं। राज्य के मुख्य सचिव आरएस टोलिया
ने सेवानिवृत्ति के बाद राज्य के पहले मुख्य सूचना आयुक्त का पद संभाला। इसके बाद
से तो सेवानिवृत्ति के बाद अधिकारियों के पुनर्वास का सिलसिला ही चल पड़ा। मुख्य
सचिव से सेवानिवृत्त हुए दूसरे अधिकारी एनएस नपल्च्याल को भी मुख्य सूचना आयुक्त बनाया
गया। इससे पहले मुख्य सचिव से ही रिटायर हुए एस के दास को लोकसेवा आयोग का अध्यक्ष
बनाया गया था। पूर्व मुख्य सचिव इंदु कुमार पाण्डे सेवानिवृत्ति के बाद पहले उत्तराखण्ड
बहुउद्देशीय वित्त विकास निगम में अध्यक्ष के पद पर बिठाये गये और फिर वो मुख्यमंत्री
के सलाहकार हो गए। इसी तरह पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार को सेवानिवृत्ति के बाद
विद्युत नियामक आयोग का अध्यक्ष पद सौंपा गया है। पूर्व मुख्य सचिव आलोक कुमार जैन को सेवा का अधिकार आयोग का ज़िम्मा सौंपा
गया। सुरेंद्र सिंह रावत को सेवानिवृत्ति के बाद राज्य सूचना आयुक्त बनाया गया।
कुणाल शर्मा को सेवानिवृत्ति के बाद राज्य खाद्य आयोग में पुनर्नियुक्ति मिली। इसी
तरह बीसी चंदोला सेवानिवृत्ति के बाद उत्तराखण्ड प्रशासनिक सेवा अधिकरण में सदस्य
बने और बाद में उत्तराखण्ड राज्य निर्वाचन आयुक्त के पद पर तैनात हो गए। विद्युत
नियामक आयोग में उपनिदेशक रहे बीसी त्रिपाठी सेवानिवृत्ति के एक माह बाद ही वहां सलाहकार
के पद पर विराज दिये गये। सोहन लाल, टी एन सिंह, डी के कोटिया, एन एस नेगी, हरीश
चंद्र जोशी, ये फेहरिस्त काफी लंबी है।
आईएएस के अलावा न्यायिक सेवाओं
में भी यह परंपरा पैर जमा चुकी है। कई सेवानिवृत्त न्यायाधीश प्रदेश के विभिन्न
आयोगों में सर्वेसर्वा बने हुए हैं और कई बनने की तैयारी में हैं। ये घोटालों के
जांच आयोगों के अध्यक्ष बनते तो हैं लेकिन सरकारी सेवाओं के इस्तेमाल के बाद भी उनकी रिपोर्ट सामने नहीं आ पाती और
अगर आती भी हैं तो सरकार खुद उन्हें ठंडे बस्ते में डाल देती है। सरकारें तर्क देती हैं कि नौकरशाहों के लंबे अनुभव
का लाभ उठाने के मकसद से ही ऐसा किया जाता है। एक लिहाज से ये तर्क वाजिब भी लगता
है, लेकिन ये कौन तय करेगा कि सेवा विस्तार या पुनर्वास पा चुके सभी नौकरशाह इस
खांचे में फिट होते हैं। पिछले पंद्रह सालों में उत्तराखंड और खासतौर पर पहाड़ की
जनता जिन नौकरशाहों के नाकारापन, लापरवाही और ग़ैर जिम्मेदारी का खामियाज़ा भुगत
रही है उनके किस अनुभव का लाभ सरकार उठाना चाहती है ये कभी साफ नहीं हो पाता। ऐसे
में परंपरा का रूप ले चुका पुनर्नियुक्ति का ये खेल संदेह तो पैदा करता ही है। ये
बात भी स्पष्ट है कि कुछ का पुनर्वास राजनीतिक रसूख और सत्ता से नजदीकियों के
सहारे होता है। कुछ ओहदे पर रहते हुए सरकार के भ्रष्टाचार और नाकामियों से आंखें
मूंदे रहने या फिर उसमें शामिल होने का ईनाम पाते हैं। इस सिलसिले में सरकार पर
आईएएस लॉबी का ज्यादा दबाव नज़र आता है जबकि आईपीएस और पीसीएस अधिकारियों को
पुनर्नियुक्ति के मौके कम ही मिल पाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कई ऐसे
अधिकारियों को भी पुनर्वास का मौका मिला होता जिनकी कार्यशैली सरकार भले ही पचा ना
पायी हो लेकिन उससे पहाड़ का कुछ भला हुआ हो। राज्य के डीजीपी रह चुके सत्यव्रत बंसल का
तो सेवा विस्तार का प्रस्ताव ही बहुगुणा सरकार ने आगे नहीं बढ़ाया। बंसल ने ही आपदा
के बाद केदारघाटी में सर्च ऑपरेशन चला कर सैकड़ों शवों को खोजा था। मामले में हुई
फजीहत के बाद तत्कालीन सरकार ने बंसल को ना तो सेवा विस्तार दिया और ना ही
पुनर्नियुक्ति। जबकि उसी कांग्रेस सरकार ने पुलिस महानिदेशक पद से जे एस पांडे की
विदाई के साथ ही पुलिस सुधार आयोग का गठन कर उन्हें इसका जिम्मा सौंपने में देर
नहीं की। सचिव आरसी पाठक काफी मशक्कत के बाद भी चुनाव आयोग में पुनर्नियुक्ति नहीं
पा सके जबकि सुवर्द्धन को मुख्य चुनाव आयुक्त बना दिया गया।
राज्य के चुनिंदा कर्मठ अफसरों पर सरकारों की ये मेहरबानी
अपनी कहानी खुद बयां करती है। साफ है कि इस खेल में अपनी कार्यशैली से सरकार को परेशान
करने वालों के पर कतरे जाते हैं और वफादारों को ईनाम दिया जाता है। जो लोग अपने सेवाकाल में प्रदेश का भला नहीं कर
पाए, उनकी सलाह की दरकार भला किसी को क्यों होने लगी। लेकिन लगता है सरकार ऐसे
अफसरों के भीतर छिपी किसी खास प्रतिभा को पहचान लेती है और जब तक हो सके, उनके
हुनर का लाभ उठाने के लिये प्रतिबद्ध नज़र आती है। राज्य पर आर्थिक बोझ बढ़ाने के
अलावा इनकी उपयोगिता कहां साबित होती है ये तो सरकार के नुमाइंदे ही बेहतर बता
सकते हैं। अब तो रिटायर होने के बाद राजनीति में उतरने वाले अफसरों की तादाद भी बढ़ रही है।
बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों ही इन्हें हाथों हाथ लेती हैं। जाहिर है ऐसे में पदों
पर बैठे ज्यादातर अफसरों से लोकसेवक की भूमिका का ईमानदारी से निर्वाह करने की
उम्मीद पालना बेमानी हो गया है। उनकी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी तन-मन-धन से अपने
राजनीतिक आकाओं को खुश करने की होती है ताकि सेवानिवृत्ति के बाद दूसरी पारी खेलने
का रास्ता साफ हो सके।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें