मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

सियासत का 'स्थाई' दांव

सब तैयार, क्यों चुप सरकार

भूपेश पंत

(पहाड़ के नाम पर जम कर सुर्खियां बटोर रहे मुख्यमंत्री हरीश रावत गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने के मुद्दे पर खामोश हैं। उधर गैरसैंण और देहरादून में नयी विधानसभाएं बनाने का फैसला लोगों की उलझन और बढ़ा रहा है। गैरसैंण में विधानसभा सत्र चला कर उसे ग्रीष्मकालीन राजधानी के तौर पर स्थापित किया जा रहा है। लोग कह रहे हैं कि पर्वतीय राज्य में शीतकालीन राजधानी का औचित्य तो फिर भी समझ में आता है लेकिन सरकार जैसे कुछ समझने को तैयार नहीं है। मगर सियासत में जो होता है वो दिखता नहीं और जो नहीं दिखता वही होता है। ज़ाहिर है हरीश रावत भी ये कहावत जानते हैं कि बंद मुट्ठी लाख की, खुल गयी तो खाक की।)  
   
गैरसैंण पर घमासान जारी है। दनादन विधानसभा के सत्र गैरसैंण के लोगों को तोहफे में दिये जा रहे हैं। रावत सरकार अचानक पहाड़-पहाड़ चिल्लाने लगी है। कांग्रेस के भीतर से ही गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग मुखर हो चुकी है। फिलहाल ग्रीष्मकालीन राजधानी और विधानसभा सत्र के नाम पर वहां विधानसभा भवन और दूसरे स्थायी निर्माण कार्य चल रहे हैं। कांग्रेस पर राजनीति करने का आरोप लगा रही बीजेपी खुद गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की सियासत में जुटी है। सोशल मीडिया से लेकर संगठनों के बीच वैचारिक और राजनीतिक स्तर पर गैरसैंण का मुद्दा गरमाया हुआ है। उत्तराखंड के क्षेत्रीय दल यूकेडी ने इस मुद्दे पर गैरसैंण विधानसभा सत्र के घेराव का एलान कर दिया है। पूरा माहौल ऐसा बन गया है जैसे पहाड़ के पैरोकार गुफाओं से निकल निकल कर बाहर आ रहे हों। सेनाएं सज चुकी हैं। सैनिक टूट पड़ने को आतुर हैं लेकिन किस पर ये नहीं पता। जब सभी लोग गैरसैंण के पक्ष में खड़े हैं तो आखिर ये लोग लड़ेंगे भी किससे।
गैरसैंण को पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की स्थायी राजधानी बनाने का मुद्दा उत्तराखंड राज्य की मांग के समय से ही उठता आया है। खुद को राज्य और राजधानी की सियासत का झंडाबरदार मानने वाला यूकेडी इस मुद्दे पर अपना हक जताता आया है। लेकिन वक्त के साथ बिखर चुके इस क्षेत्रीय दल की खिसकती राजनीतिक ज़मीन ने इस मुद्दे को बीजेपी और कांग्रेस की सियासत का खिलौना बना कर रख दिया। राज्य निर्माण के साथ देहरादून को अस्थायी राजधानी बनाने के फैसले ने गैरसैंण को वो सियासी मोहरा बना दिया जिसका इस्तेमाल ये दोनों पार्टियां बारी बारी से करती आयी हैं और आज भी कर रही हैं। पहाड़ के वास्तविक मुद्दों को लेकर बहस छिड़ी नहीं कि गैरसैंण का जिन्न बोतल से बाहर निकाल दिया जाता है। रोजगार, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी, सड़क, विकास योजनाओं में नेताओं और नौकरशाहों की बंदरबांट जैसे मुद्दे गैरसैंण के बोझ तले दबा दिये जाते हैं। दरअसल राज्य गठन के बाद से ही स्थायी राजधानी के मुद्दे पर सियासी दल संजीदा नहीं रहे। बुनियादी ढांचे और सुविधाओं के नाम पर देहरादून को भले ही अस्थायी राजधानी का नाम दिया गया हो लेकिन यहां हुए स्थायी निर्माण कार्य नेताओं और नौकरशाहों की मंशा बताने के लिये काफी हैं। बीजेपी की स्वामी सरकार ने स्थायी राजधानी तय करने के लिये जिस दीक्षित आयोग का गठन किया, उसने भी देहरादून को ही स्थायी राजधानी के लिये सबसे उपयुक्त ठहरा दिया। आठ साल तक जो दीक्षित आयोग राजधानी तलाशने के नाम पर लोगों का पैसा फूंकता रहा उसकी रिपोर्ट इस आयोग के गठन के औचित्य पर ही सवाल खड़े करती है। साफ है कि आयोग ने जानते बूझते पहाड़ की जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया और गैरसैंण पर देहरादून को तवज्जो दी। इसके लिये कौशिक समिति की रिपोर्ट को भी खारिज कर दिया गया जो उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के साथ साथ गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने का सुझाव केंद्र की तत्कालीन बीजेपी सरकार को दे चुका था। केंद्र ने अलग पर्वतीय राज्य का गठन कर उसका श्रेय तो ले लिया लेकिन राजधानी का मुद्दा राज्य सरकार पर छोड़ कर एक नया सियासी खेल शुरू करवा दिया। पहाड़ के लोग पिछले पंद्रह सालों से उस मुद्दे पर उलझे हैं जिसका पहाड़ की वास्तविक समस्याओं से कोई लेना देना नहीं है। भला कौन इस बात को मानेगा कि सिर्फ़ गैरसैंण को स्थायी राजधानी बना देने से ये समस्याएं खत्म हो जाएंगी। उत्तराखंड की पहाड़ी जनता को राज्य के मुद्दे पर ठगने वालों में नेता ही नहीं नौकरशाह भी शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर लोग ना तो पहाड़ से जुड़ाव रखते हैं और ना ही पहाड़ चढ़ने में उनकी दिलचस्पी है। मैदानी इलाकों में कैंप कार्यालयों से चल रहा पहाड़ का शासन-प्रशासन इस बात का सबसे बड़ा सबूत है। नैनीताल हाई कोर्ट के सख्त रवैये के बावजूद नौकरशाहों की कार्यप्रणाली में कोई अंतर आया हो, ऐसा लगता तो नहीं है। इन चंद सुविधाभोगी नौकरशाहों ने पर्वतीय राज्य की मूल भावना को भटकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

गैरसैंण फिर सियासत का मोहरा बना मौजूदा कांग्रेस सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के कार्यकाल में। पार्टी की अंदरूनी सियासत और खेमेबाजी झेल रहे बहुगुणा ने तुरुप के इक्के की तरह विधानसभा का सत्र बुला कर गैरसैंण का सियासी इस्तेमाल शुरू किया। इसका मकसद खुद को पहाड़ का एकमात्र पैरौकार बना कर अपनी कुर्सी बचाना था। कुर्सी तो बची नहीं लेकिन जाते जाते मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत को एक सियासी हथियार ज़रूर पकड़ा गये। इस बार सूबे के मुखिया हरीश रावत गैरसैंण पर बड़ा दांव खेलने की तैयारी करते दिखायी दे रहे हैं। वैसे तो विधानसभा सत्र के संयुक्त अधिवेशन में महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण में गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का जिक्र हो चुका है। लेकिन लगता है कि सरकार अब गैरसैंण के फल को सड़ने की हद तक नहीं टाले रखना चाहती। पहाड़ को लेकर बड़ी बड़ी घोषणाएं कर रहे हरीश रावत फिलहाल सियासी नफा नुकसान का आकलन कर रहे हैं और अपने परिवार के राजनीतिक भविष्य की चिंता भी। दरअसल अब सारी लड़ाई पहाड़ की स्थायी राजधानी के बहाने पहाड़ियों की भावनाओं को भुनाने पर केंद्रित हो गयी है। रावत जी को मालूम है कि गैरसैंण राजधानी बनने के साथ ही उसके आसपास के इलाकों की ज़मीनें सोना उगलने लगेंगी। पहाड़ के लोगों को यही सब्जबाग दिखा कर उन्हें करोड़पति बनाने के सपने दिखाये जा रहे हैं। लेकिन लोग ये भूल रहे हैं कि करोड़ों कमाने के लिये उन्हें अपनी ज़मीनें बेचनी पड़ेंगी। यानी वो ना तो घर के रहेंगे और ना पहाड़ के। सरकार स्थायी निर्माण के नाम पर जो अधिग्रहण करेगी उसकी नीति अब तक तैयार नहीं है। कुल मिला कर गैरसैंण का मुद्दा गरमा कर सरकार विकास योजनाओं की ज़मीनी हकीकत से लोगों का ध्यान बंटा रही है और कुछ हद तक उसमें कामयाब भी होती दिख रही है। कांग्रेस नेताओं के लगातार आ रहे बयान इसे और हवा दे रहे हैं। पूर्व सांसद प्रदीप टम्टा पहले ही कह चुके हैं कि रावत गैरसैंण को स्थायी राजधानी बना कर इतिहास में अपना नाम दर्ज करा सकते हैं। प्रदेश कांग्रेस 2 नवंबर से शुरू हो रहे विधानसभा सत्र से पहले गैरसैंण में बैठक कर उसे स्थायी राजधानी बनाने का प्रस्ताव पास कराने की सोच रही है। सियासी मजबूरी के चलते सरकार गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की दिशा में कदम तो बढ़ा रही है लेकिन फूंक फूंक कर। फैसले के लिये उसे सही मौके का इंतज़ार है जिसमें एक महीना भी लग सकता है और एक साल भी। लेकिन पार्टियों और जन संगठनों में इसका श्रेय लेने की होड़ अभी से शुरू हो चुकी है।



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