मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

उत्तराखंड में हार्दिक !

मिल गया उत्तराखंड का हार्दिक!


(भूपेश पंत)

(उत्तराखंड के दूरदराज पहाड़ी इलाकों के लोगों को आज भी उस सुबह का इंतज़ार है जब उसकी सारी तकलीफें मिट जाएं। अलग राज्य बनने के 15 साल बाद भी पहाड़ के जीवन की दुरूहता खत्म नहीं हो सकी है। हालात बताने के लिये ये चंद शब्द ही काफी हैं कि मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। आने वाले चुनाव एक मौका होंगे राज्य में ऐसी सरकार बनाने का जो पहाड़ को उसका हक दिला सके। क्या इस बार विकल्पहीनता की स्थिति से उबर पाएगा पहाड़ी समाज और उत्तराखंड में भी गुजरात की तर्ज़ पर दस्तक देगा हार्दिक जैसा कोई नौजवान.। हमने किया पहाड़ की उम्मीदों के हार्दिक से एक स्वप्निल साक्षात्कार) 

आज सुबह जब मैं काम पर निकला तो सड़क पर अचानक सामने से आते शख्स को देकर ठिठक पड़ा। उसका चेहरा मुझे कुछ जाना पहचाना सा लगा। शायद टीवी पर देखा था। मैं सोचने लगा तो मेरी याददाश्त ने भी मेरा पूरा साथ दिया.... हार्दिक और देहरादून में। मैं चौंक पड़ा कि उस नौजवान की शक्ल गुजरात में पटेलों को आरक्षण की मांग कर रहे हार्दिक से मिलती जुलती थी। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उस चिरपरिचित से लगने वाले नौजवान को टोक ही दिया। “आप हार्दिक ही हो ना... वो गुजरात वाले.... ?” मैंने उससे पूछा। अचानक हुए इस सवाल से पहले तो वो नौजवान थोड़ा सकपकाया, लेकिन फिर मुस्कुराते हुए बोला.... “नहीं भाई साहब, मैं गुजरात का नहीं उत्तराखंड का हार्दिक हूं।” अब मेरी फिर से चौंकने की बारी थी.... मैंने पूछा, “उत्तराखंड का हार्दिक, यहां के लोगों को भला क्यों किसी हार्दिक की ज़रूरत पड़ने लगी..?” उसने फिर मुस्कुरा कर जवाब में एक सवाल मुझ ही पर दाग दिया, “क्या नहीं है ज़रूरत, आप ही बताओ?”

उसकी बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया और पत्रकार होने के नाते खुद को उत्तराखंड का हार्दिक बताने वाले इस शख्स से कुछ और जानने की इच्छा होने लगी। मैंने उसके सवाल को दरकिनार करते हुए पूछा, “अच्छा अगर तुम खुद को यहां का हार्दिक बतलाते हो तो आरक्षण पर कुछ विचार तो होंगे ही तुम्हारे।” उस नौजवान ने मुस्कुराते हुए मेरा हाथ पकड़ा और घंटाघर के नजदीक वाले पार्क की दिशा में चल पड़ा। “आइये आराम से बैठ कर बातें करते हैं.... पार्क की बैंच पर बैठते ही वो नौजवान सीधा मुद्दे की बात पर आ गया। “देखिये मैं आरक्षण का विरोधी नहीं हूं.... मेरा मानना है कि उत्तराखंड के दुर्गम पर्वतीय इलाके अपनी भौगोलिक विषमता के कारण शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से आज तक महरूम हैं। यानि आज भी उन इलाकों के लोग विकास की दौड़ में पिछड़े हुए हैं। ऐसे इलाकों के मूल निवासियों को ओबीसी आरक्षण मिलना चाहिये। हमारे पहाड़ के लिये तो ये अलग राज्य बनने से भी बड़ा सवाल है जिसे सत्ता की चाह ने बरसों पहले निगल लिया।”

“मूल निवासियों से तुम्हारा मतलब... क्या तुम पहाड़वाद फैलाना चाहते हो...?” मैंने सवाल दागा।

“एक पर्वतीय राज्य में अगर पहाड़ के लोगों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाये तो कौन सा वाद हमें बचाने आयेगा? ये किसी वाद का नहीं पहाड़ के अस्तित्व का सवाल है जिसे बचाने के लिये मैं पहाड़ के लोगों को झकझोरना चाहता हूं। पिछले पंद्रह सालों में राष्ट्रीय दलों ने हमें सिर्फ ठगा है और पहाड़ के लोग इससे आजिज आ चुके हैं। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे सूबे के कई सियासतदां और नौकरशाह इस राज्य का कोई भला नहीं करने वाले। आज भी अगर पहाड़ के लोग नहीं चेते तो अगले पंद्रह सालों में भी विकास की शक्ल नहीं देख पाएंगे। मैं इस राज्य को पहाड़ और मैदान की सीमा में नहीं ईमानदार और भ्रष्टाचार की सीमा में बांधने का पक्षधर हूं।” उसकी आवाज़ थोड़ी तेज हुई।

“इस पर्वतीय राज्य में आपदा और उसके प्रबंधन को लेकर तुम क्या सोचते हो...?” मैंने पूछा।

“देखिये मैं न तो आंकड़ों में जाना चाहता हूं और न ही इसे सियासत का मुद्दा बनाना चाहता हूं। मेरी सोच बिल्कुल साफ है कि हिमालयी क्षेत्रों में आपदा से निपटने में केंद्र से लेकर राज्य तक राजनीतिक सोच से ऊपर उठ कर काम करने की ज़रूरत है बशर्ते इसे सरकारी खजाने और राहत राशि की बंदरबांट का ज़रिया न बनाया जाये। नीतियां दूरगामी हों और पर्यावरण के साथ साथ क्षेत्र की जनता की आकांक्षाओं को भी उनमें शामिल किया जाये। ताकि पलायन और बेरोजगारी का हल निकल सके।”  

“तो क्या राष्ट्रीय पार्टियों के स्थानीय नेता तुम्हें इन मुद्दों पर संजीदा नज़र नहीं आते?” पूरे जोश और आत्मविश्वास के साथ धारा प्रवाह बोल रहे हार्दिक को मैंने फिर टोका?

“नहीं, बिल्कुल नहीं... पलायन के मुद्दे को वो नेता कैसे हल करेंगे जो खुद पलायनवाद के शिकार हैं। जिन्होंने सत्ता की चाह ही इसलिये की ताकि उन्हें पहाड़ से निकल कर मैदानों में आने का सौभाग्य हासिल हो सके। सियासत में आते ही जिनके अपने घर में कोई बेटा-बेटी बेरोजगार ना रह गया हो वो भला क्यों दूसरों की फिक्र करने लगे।” उसने तंज कसा

“मौजूदा रावत सरकार के कामकाज के बारे में तुम्हारी क्या राय है?” मैंने पूछ ही लिया।

“ देखिये, रावत सरकार ने कुछ ऐसे कदम ज़रूर उठाये हैं जिनमें पहाड़ की खेती, संस्कृति और लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की कोशिश की गयी है। लेकिन इन घोषणाओं में ईमानदारी कम और सियासी ज़मीन बचाने की कोशिश ज्यादा नज़र आती है। अगर राज्य में अब तक सरकारों ने ईमानदारी से काम किया होता तो आज मैं आपसे इन मुद्दों पर बात नहीं कर रहा होता। मेरा तो यही कहना है कि पहाड़ के लोग अब अपनी क्षेत्रीय अपेक्षाओं की उपेक्षा सहने को तैयार नहीं हैं... और न ही किसी नयी-पुरानी राष्ट्रीय पार्टी से ठगे जाने के लिये। अगर इस पर्वतीय राज्य में पहाड़ों की हालत ही नहीं सुधरी तो राज्य बनने का क्या फायदा। हां, मौजूदा कांग्रेस सरकार गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की दिशा में जो कदम उठा रही है उसकी सराहना की जानी चाहिये क्योंकि इससे वहां आधारभूत ढांचे का विकास होगा और गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग को मजबूत आधार मिलेगा। लेकिन पहाड़ की उपेक्षा का घाव इतने से नहीं भरने वाला।”       

“तो क्या अगले चुनाव में उतरने का इरादा है...?” मैंने सीधे सीधे पूछा।

“आपको क्या लगता है... इस सूबे की दो दलीय सियासत को एक ऐसे मजबूत त्रिकोण की ज़रूरत नहीं है जो पूरी तरह से क्षेत्रीय भावनाओं को समर्पित हो.... पहाड़ की समस्याएं इतनी आसान होतीं तो क्या उनका समाधान अब तक हो नहीं जाता... उन्हें हल करने के लिये व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरत है। जिन नेताओं ने खुद अपना कद पहाड़ से बड़ा कर लिया हो वो भला पलायन, बेरोजगारी जैसी पहाड़ की तमाम दुरूह समस्याओं का हल कैसे निकाल पाएंगे। इसके लिये तो उन्हें पहले पहाड़ की आत्मा में घुसना पड़ेगा।” हार्दिक ने कहा।

“ये मुद्दे तो यूकेडी भी उठाती रही है, इसमें नया क्या है?” मैंने जानना चाहा। 

“यूकेडी का भविष्य उसके अतीत से ही जुड़ा है। सत्ता की चाह में शेर के चुनाव चिह्न से कुर्सी और कप प्लेट तक जा पहुंची ये पार्टी कब अपने ही लोगों से कट गयी और बंट गयी इस बात का उसे पहले अहसास तो हो। पिछले पंद्रह सालों में यूकेडी किसी ना किसी रूप में सूबे की सरकारों में भागीदार रही है लेकिन उसके सत्तारूढ़ नेता ना तो अपना भविष्य बना पाये और ना ही पार्टी का। एक आंदोलनकारी छवि की बजाय जिस पार्टी के नेताओं ने सुविधाभोगी राजनीति का लक्ष्य चुना हो उनसे इस क्षेत्र की जनता कितनी और कब तक उम्मीद रखेगी।” उसकी बातों में तल्खी साफ झलक रही थी।   

“तुम्हें क्या लगता है कि इन क्षेत्रीय मुद्दों पर राज्य के लोग तुमसे जुड़ेंगे?” ...मेरा सवाल काफी अहम था। 

“क्यों नहीं... पहाड़ की जनता अब कसमसाने लगी है। वो सीधी सादी है इसीलिये उसे बेवकूफ मान लिया गया है। पहाड़ी लोगों को अपने आत्मसम्मान के लिये एकजुट होना ही होगा। अपने राजनीतिक अधिकार का इस्तेमाल करने से पहले उन ताकतों की पहचान करनी होगी जो पहाड़ को सिर्फ और सिर्फ लूटने में लगी हैं। हम लोगों में राष्ट्रीय भावना की कमी नहीं है और हमारे लोग सेना में जाकर देश के लिये मर मिटने को हमेशा तैयार हैं लेकिन हमारे क्षेत्रीय अस्तित्व को बचाने की ज़िम्मेदारी कौन लेगा। हमें अपनी अलग पहचान बनानी होगी और ‘सूर्य अस्त-पहाड़ मस्त’ जैसे जुमलों को खारिज़ करना होगा जिसने राज्य से बाहर हम लोगों की नकारात्मक पहचान बनायी है।” 

मैंने उससे पूछा, “तो क्या तुम राज्य में शराबबंदी चाहते हो?”

“मैं चाहता हूं कि सरकार इस दिशा में ज़रूरी कदम उठाये लेकिन इसका इस्तेमाल अवैध शराब को संरक्षण और शराब की तस्करी को बढ़ावा देने के लिये ना हो। आबकारी नीति सरकार का खजाना भरने के लिये नहीं बल्कि पहाड़ की जनता और खासतौर पर महिलाओं की चिंताओं को केंद्र में रख कर बनायी जाये। राज्य में लगातार बढ़ रहे अपराधों की सबसे बड़ी शिकार महिलाएं ही हैं। व्यवस्था ऐसी हो जो लोगों में नैतिक मूल्यों का विकास कर सके और कानूनों का पालन कराने में किसी तरह का भ्रष्टाचार और दोगलापन न हो।” बातों बातों में शुरू हुआ ये साक्षात्कार बढ़ता ही जा रहा था।   

“तुम्हें लगता है कि इस राज्य में सियासत की नयी पौध लगाने की ज़रूरत है?” मेरा अगला सवाल था। 

“बिल्कुल... लेकिन ऐसा नहीं कि बदलाव की इस सियासत में अनुभवी लोग हाशिये पर धकेल दिये जाएं। राष्ट्रीय दलों में भी कुछ ऐसे नेता हैं जो पहाड़ की राजनीति से वास्ता रखे हुए हैं.... कुछ सियासी मजबूरियों के कारण लोगों को बरगला रहे हैं तो कुछ वाकई काम करना चाहते हैं लेकिन उनकी अपनी पार्टियां और मैदानों तक सीमित सरकारी नीतियां उनके हाथ बांध लेती हैं। कुछ ऐसे भी लोग और संगठन हैं जो पहाड़ की अस्मिता बचाने के लिये अपने अपने स्तर पर बौद्धिक और सामाजिक काम कर रहे हैं। ऐसे सभी ईमानदार लोगों को जोड़ने की कोशिश की जानी चाहिये।” 

“लेकिन सिर्फ पहाड़ की बात करके आखिर तुम कितनी सीटें हासिल कर पाओगे।” मैंने उसके जोश को थोड़ा ठंडा करने की कोशिश की।

“70 में से पहाड़ की 37 सीटें कम होती हैं भाई साहब.... उसने समझाने के अंदाज में मुझसे पूछा। “देखिये, नीतियों में अनुकूल बदलाव लाना है तो संख्या बल की सियासत तो करनी ही पड़ेगी और ऐसे लोगों के हाथों में सत्ता की कमान सौंपनी पड़ेगी जो हमारे मुद्दों के प्रति गंभीर हों। ये पहाड़ का दुर्भाग्य है कि बहुमत का आंकड़ा हमारे पास होने के बावजूद सत्ता हमारी फिक्र नहीं करती। वो हमें धर्म, जाति और क्षेत्र की सीमाओं में बांटते हैं और हम उनकी मंशा भांप नहीं पाते। वैसे भी हमें अपने अस्तित्व की लड़ाई को पहाड़ बनाम मैदान के विवाद में उलझने नहीं देना है। लेकिन ये भी एक कड़वा सच है कि पहाड़ की सुरक्षा के बिना मैदान का कोई भविष्य नहीं है और ये क्षेत्रीय या राष्ट्रीय नहीं एक अंतर्राष्ट्रीय प्रश्न है।” हार्दिक का जोश बरकरार था।

“चुनाव के लिये फंड कहां से आयेगा”, ये सवाल पूछना मुझे वाजिब लगा।

“देखिये, हमें अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाने के लिये उनके दिलों में उतरना पड़ेगा ना कि पोस्टरों और बैनरों में। हां शुरुआत में थोड़ी दिक्कत ज़रूर होगी लेकिन एक बार ये काम हो गया तो हमें लोगों का वो सहयोग मिलेगा जो बीजेपी-कांग्रेस के करोड़ों रुपये के प्रचार तंत्र पर भारी पड़ेगा ।” वो शायद बात को अब और खींचना नहीं चाहता था।  

मैंने महसूस किया कि खुद को उत्तराखंड का हार्दिक कह रहे इस शख्स के दिलोदिमाग में जो स्वप्न पल रहे थे वो कई चुनौतियां अपने साथ लेकर चल रहे थे। सोच अलग नहीं थी लेकिन मुद्दों को हल करने का ज़ज्बा नज़र आ रहा था... बस ज़रूरत थी तो विचारों को व्यावहारिकता के धरातल पर उतारने और ईमानदार लोगों के साथ की। ये सोचते सोचते मैंने उससे विदा लेते हुए कहा... “एक आखिरी सवाल...आपु कांक छा?” (आप कहां के ठैरे?) उसने मुस्कुरा कर हाथ मिलाते हुए कहा, “मैं पहाड़ी हूं..... और मेरा नाम है हार्दिक पी, पूरा नाम.... हार्दिक पहाड़ी।” 

विचारों के तेज होते प्रवाह और दिलोदिमाग पर छा रही उत्तेजना ने मुझे आंखें खोलने पर मजबूर कर दिया। ऑफिस के लिये तैयार होते होते मैं बस यही सोच रहा था कि पहाड़ की जनता और सूबे के सियासी भविष्य को ‘हार्दिक’ शुभकामनाओं का अभी और कितना इंतज़ार करना होगा।

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