मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

विरासत के पन्ने फाड़ रही कांग्रेस


अजय ढौंडियाल का लेख

(उत्तराखंड की हरीश रावत सरकार स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर दनादन घोषणाएं कर अपनी पीठ कितनी ही थपथपा लें, लेकिन सेनानियों की इस फेहरिस्त को जातीय चश्मे और राजनीतिक समीकरणों के आधार पर बुना गया है। जिस राज्य में नैनीताल जिले के बांसी गांव निवासी 94 वर्षीय गोधन सिंह को घोषित स्वतंत्रता सेनानी होने के बावजूद जीतेजी उनका सम्मान दिलाने के लिये तीन पीढ़ियां खप गयी हों, वहां की कांग्रेस सरकार से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है? क्या कांग्रेस अपनी ही राजनीतिक विरासत के उन पन्नों को फाड़ देना चाहती है जिनका कोई सियासी वजूद नहीं है या जो उसके जातीय खांचे में फिट नहीं होते? पिथौरागढ़ जनपद के दो स्वतंत्रता सेनानी पंत भाइयों को लेकर सरकार का रवैया तो कुछ ऐसा ही दिखता है। सम्मान और अपमान की इस जंग को लड़ रहे सेनानी परिवार से जुड़े और वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता जनार्दन पंत से संपादक अजय ढौंडियाल की बातचीत पर आधारित।)       

जिस देश में गांधी को दिलों में नहीं नोटों पर छापा जाता हो और जहां अंबेडकर जैसे जन नेताओं को जाति के चश्मे से देखा जाये वहां उन लोगों की क्या बिसात जिनके नाम आज़ादी के इतिहास के पन्नों से कभी बाहर ही न निकल पाये हों। राष्ट्रपिता गांधी जी को लेकर संघ और बीजेपी का दृष्टिकोण सब जानते हैं लेकिन ताज़्जुब तब होता है जब आजादी के आंदोलन को अपने अतीत का सुनहरा पन्ना बना कर आज तक सहेजने वाली कांग्रेस के ही नेता उन स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान करने में भी न हिचकिचाएं जिन्होंने कांग्रेस के चरखे तले देश के दूरदराज इलाकों में आजादी की अलख जगाई। देश के लिये अपनी जान तक कुरबान करने का जज़्बा रखने वाले इन सेनानियों को जातीय संकीर्णता के चश्मे से देखना और उनके योगदान को भावी पीढ़ी तक पहुंचने से रोकना ना सिर्फ उनकी शहादत का अपमान है बल्कि देश का अपमान है और शायद देशद्रोह भी। 
उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार भी ऐसा ही एक अपराध कर रही है। देश को आज़ाद हुए भले ही 68 साल बीत गये हों लेकिन इतिहास के पन्नों में दर्ज स्वतंत्रता सेनानी परिवार से जुड़े दो स्वतंत्रता सेनानी आज तक खुद की आज़ादी का इंतज़ार कर रहे हैं। आज़ादी क्षेत्रवाद से, आज़ादी जातिवाद से और आज़ादी वोटबैंक की राजनीति से। ये दो सेनानी हैं उत्तराखंड में कुमाऊं क्षेत्र के पिथौरागढ़ जनपद से स्व. प्रयाग दत्त पंत और उनके छोटे भाई स्व. बंशीधर पंत। बीडी पांडे लिखित कुमाऊं के इतिहास पर नज़र डालें तो स्व. प्रयाग दत्त पंत को पिथौरागढ़ जनपद (तत्कालीन अल्मोड़ा जनपद की सीमान्त तहसील) के पहले स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जाना जाता है। आज़ादी की लड़ाई में पं. गोविंद बल्लभ पंत, पं हरगोविंद पंत और बी. डी. पांडे के समकक्ष रहे प्रयागदत्त पंत को पिथौरागढ़ जिले में गांधीवादी आंदोलन का सूत्रधार माना जाता है। 1898 में ग्राम हल्पाटी में जन्मे प्रयाग दत्त पंत जन्मजात प्रतिभा के धनी थे और यही बात गरीब परिवार में जन्मे प्रयाग को प्रयागराज तक ले गयी। उन्होंने इलाहाबाद में बीए की डिग्री स्वर्ण पदक के साथ हासिल की और जनपद का पहला स्नातक होने का गौरव हासिल किया। इस दौरान राष्ट्रीय नेताओं के संपर्क में आये प्रयाग दत्त पंत ने 1919 में रॉलेट एक्ट के विरोध में हुए आंदोलन से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी ना करने और स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने का निश्चय किया। उन्होंने 1921 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन के संदेश को अपने ओजस्वी विचारों के ज़रिये कुमाऊं के दूरदराज इलाकों के पिछड़े इलाकों में फैलाने का काम किया। 1921 में बागेश्वर में आयोजित कुली-बेगार उन्मूलन आंदोलन में पिथौरागढ़ का प्रतिनिधित्व करने वाले एकमात्र व्यक्ति थे प्रयाग दत्त पंत। लगान बंदी, कर बंदी और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिये लोगों को प्रेरित करने के अपराध में ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया। 1922 के अंत में जेल से छूटने के बाद प्रयाग दत्त पंत ने अल्मोड़ा जिला अंतरिम परिषद के सदस्य के नाते शिक्षा दीक्षा में पिछड़े इलाकों को अपनी अमूल्य सेवाएं दीं। उन्होंने 1929 तक अपने समकालीन सहयोगियों के साथ कांग्रेस संगठन का काम किया। देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना पूरा जीवन झोंक देने वाले इस सेनानी का स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता गया और आज़ादी की सुबह देखे बगैर 1940 में उन्होंने अल्पायु में अपने प्राण त्याग दिये।
प्रयागदत्त पंत जी की असमय मौत के बाद भी सेनानी परिवार का रिश्ता स्वतंत्रता आंदोलन से नहीं टूटा। उनके छोटे भाई बंशीधर पंत बर्मा में जापानी हमले के बाद 1940 में पिथौरागढ़ आ गये और पिथौरागढ़ के सिमलगैर में खादी और सिंगर सिलाई मशीन के पुर्जों की दुकान खोली। उन्होंने अपनी दुकान में तिरंगा झंडा लगा रखा था जिसे हटवाने के लिये अंग्रेज प्रशासन ने उनके पूरे परिवार को प्रताड़ित किया। पिथौरागढ़ तहसील के कांग्रेस संगठन मंत्री की हैसियत से बंशीधर पंत को अगस्त 1942 में जेल भेज दिया गया। परिवार दाने दाने को मोहताज था और दो बच्चे मृत्युशैया पर पड़े थे। उन्हें इस शर्त पर छोड़ा गया कि सत्याग्रह करने पर सरकार को सूचित करना होगा और हाज़िरी लगानी होगी। कुछ दिन पश्चात उनका एक पुत्र चल बसा। 1946 तक बंशीधर पंत ने किसान संगठन का काम किया जिसमें छत्रसिंह आजाद, जगत सिंह चौहान, हरिदत्त शास्त्री और धर्म सिंह जैसे सेनानियों का उन्हें पूरा सहयोग मिला। बंशीधर पंत ने रजवारशाही के खिलाफ किसानों के उल्लेखनीय अहिंसात्मक संघर्ष का नेतृत्व किया और ज़मींदारों की बंदूकें छीन कर मालखाने में जमा करवाईं और भूमिहीनों के हक हकूक के लिये संघर्ष किया।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि आजादी के इन दोनों परवानों को अपने बलिदानों के एवज़ में पहले यूपी और अब उत्तराखंड की सरकारों से उपेक्षा और तिरस्कार ही मिला है। क्या वजह है कि आज़ादी के 68 साल बाद भी इन दोनों सेनानियों के नाम पर इनके अपने गृह जनपद पिथौरागढ़ में आजतक एक भी सार्वजनिक संस्थान नहीं है ? क्या वजह है कि उत्तराखंड में आये दिन स्वतंत्रता सेनानियों को शिक्षण संस्थाएं, सड़कें और दूसरे सार्वजनिक संस्थान बांट रही हरीश रावत सरकार इन दोनों पंत भाइयों के नाम पर चुप्पी साधे हुए है ? स्व. बंशीधर पंत के सबसे छोटे बेटे और कुमाऊं में सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर विख्यात जनार्दन पंत तल्ख लहजे में ये सवाल उठाते हैं। भ्रष्टाचार, मजदूरों के शोषण और कई स्थानीय मुद्दों को लेकर आंदोलन छेड़ चुके जनार्दन पंत इसे सीधे सीधे क्षुद्र राजनीति, जातीय समीकरणों और अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ के बीच क्षेत्रवाद से जोड़ कर देखते हैं। पिथौरागढ़ पीजी कॉलेज को स्व. प्रयागदत्त पंत के नाम से जोड़ने की स्वतंत्रता सेनानियों और जनता की बेहद पुरानी मांग को ठुकरा कर एनडी तिवारी सरकार ने जिन स्व. लक्ष्मण सिंह महर के नाम से उसे जोड़ा वो स्व. प्रयागदत्त पंत के आजादी की अलख जगाने के बाद ही स्वतंत्रता संग्राम में आये थे। साफ है कि तिवारी सरकार का ये फैसला जाति विशेष के वोट बैंक और संकीर्ण सोच पर आधारित था और कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत के दबाव में लिया गया था। सेनानी परिवार अब पिथौरागढ़ जिले के नाम को स्व. प्रयागदत्त पंत के नाम पर करने और स्व. बंशीधर पंत के नाम पर गौरंगचौड़ इंटर कॉलेज का नामकरण करने की मांग कर रहा है। जनार्दन पंत बताते हैं कि परिवार के दोनों स्वतंत्रता सेनानियों को उनकी गरिमा के अनुरूप सम्मान दिलाने के लिये वो और उनकी बड़ी बहिन कलावती जोशी लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं और सरकार को भेजे पत्रों और मीडिया के ज़रिये लगातार अपनी मांग रख रहे हैं लेकिन सरकार बीजेपी की हो या कांग्रेस की, किसी ने भी उनकी इन मांगों को गंभीरता से नहीं लिया। जिन सेनानियों के संघर्ष ने आजाद भारत में इन नेताओं को लोकतंत्र की सीढ़ियां चढ़ कर सत्ता का सुख भोगने लायक बनाया, उन्हीं नेताओं की ओर से मिल रही उपेक्षा और उपहास की हद तक तिरस्कार ने सेनानी परिवारों के देशभक्ति के जज्बे को ही चोट नहीं पहुंचायी है बल्कि सियासत के नंगे सच को भी उधेड़ कर रख दिया है। स्व. बंशीधर पंत की बड़ी बेटी कलावती जोशी ने सेनानी परिवार के खोये सम्मान को वापस दिलाने के लिये राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार की चौखट तक खटखटायी लेकिन दुर्भाग्य से वो जीते जी अपने इस संघर्ष में कामयाब नहीं हो सकीं। 75 साल पूरे कर चुके और अस्वस्थता के शिकार जनार्दन पंत रोष व्यक्त करते हुए कहते हैं कि क्या स्वतंत्रता सेनानियों की अगली पीढ़ी के जीते जी उन्हें ये सम्मान नहीं मिलेगा और क्या सरकार उन्हें इसी तरह अपमानित करती रहेगी। इस पूरे मामले में पिथौरागढ़ जनपद के जनप्रतिनिधियों, बुद्धिजीवियों, सेनानी परिवारों और पत्रकारों की चुप्पी भी उन्हें खलती है। वो कहते हैं कि ये चुप्पी उनके जातीय प्रवंचनाओं में जकड़े होने का प्रमाण है। यही वजह है कि उन्होंने राष्ट्रपति महोदय तक अपनी बात पहुंचाते हुए इस संबंध में ठोस कार्रवाई करने या फिर उन्हें इस अपमान के खिलाफ इच्छा मृत्यु की मंजूरी देने की गुहार लगाई है।

दुर्भाग्य ही है कि जिन सेनानियों ने धर्म, जाति और क्षेत्र से ऊपर उठ कर देश की आजादी में अपना योगदान दिया हो, उन्हें आज के राजनीतिक आका भाषा, धर्म, जाति और क्षेत्र के ही आधार पर इतिहास के पन्नों से गुम करने की साजिश रच रहे हैं। अगर ऐसा होता रहा तो बहुत जल्द इतिहास में उन्हीं लोगों का नाम रह जाएगा जिनकी पीठ पर या तो राजनीतिक सत्ता का हाथ हो या फिर जिनके नाम में किसी खास जाति के वोटबैंक को लुभाने की कुव्वत होगी। इससे ये भी साफ होता है कि जो सरकारें अपने पुरखों के बलिदान को राजनीतिक नफा नुकसान के चश्मे से देख रही हैं उन्होंने उत्तराखंड राज्य के लिये वास्तविक तौर पर संघर्ष करने वाले बलिदानियों और आंदोलनकारियों के साथ कितना न्याय किया होगा।  

        

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