मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

क्षेत्रीय अस्मिता की सुगबुगाहट

(भूपेश पंत)

क्षेत्रीय आकांक्षाओं की कोख से जन्मे उत्तराखंड की सियासत राज्य गठन के पंद्रह साल बाद भी दोराहे पर खड़ी है। यहां से एक रास्ता राष्ट्रीय सोच से ओत प्रोत राज्य की जनता को कांग्रेस और बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के दरवाजे तक ले जाता है जिनके नुमाइंदे भले ही पर्वतीय राज्य से हों लेकिन उनकी नीतियां राष्ट्रीय राजनीति की संभावनाओं से संचालित होती हैं। दूसरा रास्ता राज्य की जनता के उन क्षेत्रीय हितों से जुड़ा है जो राज्य आंदोलन के दौरान पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों के लिये जीवन मरण के सवाल बन कर उभरे थे, लेकिन उनके पैरोकार आज खुद अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। विगत पंद्रह सालों में राज्य की राजनीति पूरी तरह दो ध्रुवों पर केंद्रित रही है। एक ओर राज्य गठन का श्रेय लेकर पर्वतीय जनमानस की भावनाओं को दुहने वाली बीजेपी है तो दूसरी ओर स्वाभाविक विकल्प के तौर पर राष्ट्रीय राजनीति में लंबे समय तक सत्तारूढ़ रही कांग्रेस। पर्वतीय जनता लंबे समय से दोनों ही पार्टियों की जुगलबंदी में उलझी हुई है और इसकी सबसे बड़ी वजह है राज्य में एक मज़बूत क्षेत्रीय विकल्प का अभाव। देश के दूसरे राज्यों में क्षेत्रीय राजनीति के उभार से उलट उत्तराखंड में क्षेत्रीय अस्मिता के मुद्दे पर  नौजवानों को अपने क्रांतिकारी विचारों से झकझोरने वाली यूकेडी लगातार अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि अब इस क्षेत्रीय दल की पदचाप तक सूबे में सुनायी नहीं देती। दूरंदेशी नेतृत्व का अभाव, सुविधाभोगी राजनीति और रीढ़विहीन सिद्धांतों के दम पर उत्तराखंड क्रांति दल विगत डेढ़ दशक में पूरी तरह से उत्तराखंड भ्रांति दल में तब्दील हो चुका है। सत्ता के करीब रहने की चाहत में कभी बीजेपी तो कभी कांग्रेस की गोद में जा बैठने की नीति, नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और उत्तराखंड के क्षेत्रीय मुद्दों पर ठोस आंदोलनकारी रणनीति न अपनाने के कारण ये दल न सिर्फ़ राष्ट्रीय दलों के खिलाफ़ आक्रोश को भुनाने में नाकाम रहा है बल्कि राज्य के युवाओं और बुद्धिजीवियों के बीच अपनी पैठ भी गंवा चुका है।
पंद्रह सालों में आठ मुख्यमंत्री देख चुके नवोदित राज्य उत्तराखंड की जनता इस दौरान कई तरह के राजनीतिक हंगामे, घोटाले, विवादों के गिरते स्तर और राजनीतिक दलों की अंतर्कलह से रूबरू हुई है। चुनावी वायदों की खुराक आज भी इस पर्वतीय राज्य के दूरदराज इलाकों में शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली-पानी जैसे बुनियादी मर्ज़ों से लोगों को निज़ात नहीं दिला सकी है। राज्य में न तो बेरोजगारी और पलायन जैसे मुद्दे हल हुए हैं और न ही राज्य के नुमाइंदे राजधानी को जनभावना के अनुरूप गैरसैंण ले जा पाए हैं। राज्य की जनता ने अगर कुछ देखा है तो बस राजधानी देहरादून में सियासत के ठगों का बढ़ता कुनबा, भ्रष्ट नौकरशाहों के साथ उनका गठजोड़, चंद लोगों के लिये सुविधाओं की फसल उगाते मैदान और विकास को पहाड़ तक चढ़ाने में हांफती सरकार। इन सब हालात के बीच राजनीतिक विश्लेषकों को अब राज्य में और खासतौर पर पर्वतीय इलाकों में क्षेत्रीय अस्मिता की सुगबुगाहट सुनायी देने लगी है। उनका मानना है कि पहाड़ से लेकर मैदानों तक बसे और अपनी जड़ों से जुड़े राज्य के बाशिंदे अब अपने अस्तित्व को लेकर छटपटा रहे हैं। बेरोजगार नौजवानों, कर्मचारियों और बुद्धिजीवियों में राष्ट्रीय दलों के प्रति निराशा का माहौल है और क्षेत्रीय विकल्प के प्रति उनका झुकाव लगातार बढ़ रहा है। सूत्रों की मानें तो अगले विधानसभा चुनाव के लिये खुद कांग्रेस और बीजेपी का अंदरूनी राजनीतिक विश्लेषण यूकेडी और निर्दलीयों के प्रति मतदाताओं के बढ़ते रुझान की ओर इशारा कर रहा है। हालांकि ये झुकाव इतना नहीं है कि सूबे की सियासत में किसी बड़ी उलटफेर को जन्म दे सके। इस दौरान यूकेडी ने भी युवा नेतृत्व को आगे करके राज्य की जनता और प्रवासी उत्तराखंडियों के बीच अपनी खोई सियासी साख फिर से पाने की कोशिशें तेज़ कर दी हैं। लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि उसके तमाम बड़े नेता आम मतदाताओं के बीच अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की उठापटक ने पार्टी की आत्मा को इतना क्षत विक्षत कर दिया है कि उसके लिये युवा मतदाताओं में नये सिरे से पैठ बना पाना आसान नहीं होगा। उधर बीजेपी को पूरा भरोसा है कि वो देश भर में मोदी के असर और राज्य की सत्ता विरोधी लहर के सहारे अगली बार सूबे में सरकार ज़रूर बना लेगी। हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बीजेपी का ये ख्वाब डेढ़ साल के अंतराल के दौरान धुंधला भी सकता है। राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस की हरीश रावत सरकार तो अभी से ये भ्रम पाले हुए है कि विकास कार्यों में गतिरोध का ठीकरा केंद्र के सिर फोड़ने के अलावा भोले भाले पहाड़ियों को जनप्रिय जुमलों और गैरसैंण सत्र जैसे झुनझुनों से बहला कर वो अगली बार भी सत्ता पर काबिज़ हो जाएगी। राष्ट्रीय राजनीति में सिमटती कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रप बन कर उभरे हरीश रावत मोदी के नक्शे कदम पर चल कर संगठन और दूसरे वरिष्ठ मंत्रियों को जिस तरह हाशिये पर रखे हुए हैं उससे आने वाले दिनों में कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के विस्फोटक होने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। पीडीएफ के साथ रावत की गलबहियां और सूबे के कांग्रेसी मुखिया किशोर उपाध्याय के कई फैसलों पर मुख्यमंत्री का यू टर्न इस सियासत को और भी दिलचस्प बनाता है।
क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर राज्य की जनता में पनप रही बेचैनी अगर आने वाले दिनों में वाकई एक सच्चाई बन कर उभरती है तो मतदाताओं के बीच सबसे बड़ा सवाल होगा एक मज़बूत क्षेत्रीय विकल्प का। यूकेडी को अपनी दावेदारी पेश करने के लिये बहुत कठिन सफर तय करना होगा, जबकि आम आदमी पार्टी राज्य में खुद को एक मज़बूत विकल्प बना कर पेश करने की तैयारी कर रही है। लेकिन इसके लिये उसे भी दिल्ली से देहरादून तक अपनी साख, पर्वतीय राज्य के क्षेत्रीय हितों से जुड़ाव, स्थानीय निर्विवाद चेहरों और राज्य की जनआकांक्षाओं से जुड़े कई चुनौतीपूर्ण सवालों के जवाब देने होंगे। ऐसे में आने वाले दिनों में उत्तराखंड के वास्तविक सवालों के साथ जुड़ी और युवा मतदाताओं की नब्ज़ को पहचानने वाली किसी नयी क्षेत्रीय ताकत के उभरने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। युवाओं में क्षेत्रीय पहचान की छटपटाहट और उनसे जुड़े मुद्दों पर एक नयी और ईमानदार सोच का दावा करने वाला संगठन खुद को बेहतर विकल्प के तौर पर सामने लाये तो हो सकता है कि हालात में बदलाव लाने के इच्छुक मतदाता उसे हाथों हाथ ले भी लें। आखिर सियासत भी तो क्रिकेट की तरह संभावनाओं का खेल ही है।

(राजसत्ता एक्सप्रेस में 22 सितंबर को प्रकाशित)

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