मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

बहुत याराना लगता है !

ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे
(भूपेश पंत)

उत्तराखंड में कांग्रेसी सरकार के मुखिया हरीश रावत और प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) के बीच का याराना कांग्रेसियों के विरोध के बावजूद लगातार परवान चढ़ रहा है। पीसीसी अध्यक्ष किशोर उपाध्याय और पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा समेत कई नेताओं के मुखर होने के बावजूद रावत पीडीएफ के साथ प्यार की पींगें लेने में व्यस्त हैं। आंकड़ों के आधार पर अपनी सरकार बचाने के लिये भले ही रावत को अब पीडीएफ के समर्थन की दरकार नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री उसके सहारे राज्य में अपने राजनीतिक विरोधियों को सियासी पटखनी देने की रणनीति पर काम कर रहे हैं।
पीडीएफ का गठन 2012 में राज्य में हुए विधानसभा चुनाव में खंडित जनादेश आने के बाद निर्दलीय तीन, बीएसपी के तीन और यूकेडी के एक विधायक ने मिलकर किया। इस चुनाव में कुल सत्तर विधानसभा सीटों में से कांग्रेस को बत्तीस, बीजेपी को इकतीस, बीएसपी को तीन, निर्दलीय तीन और यूकेडी को एक सीट मिली थी। बहुमत के लिये जरूरी छत्तीस सीटों का आंकड़ा कोई भी दल छू न सका। ऐसे में राज्य में कांग्रेस की सरकार बनाने में पीडीएफ के सात विधायकों ने बैसाखी का काम किया और फ्रंट बना कर कांग्रेस नेतृत्व से  मोलभाव करने की सियासी ज़मीन भी तैयार की। इसी सियासी मज़बूरी के चलते बहुगुणा सरकार में पीडीएफ के सात में से पांच विधायकों को मंत्रीपद से नवाज़ा गया। लेकिन पिछले साढ़े तीन सालों में राज्य विधानसभा की सियासी तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। डोईवाला, सोमेश्वर और सितारगंज विधानसभा उपचुनावों में बीजेपी से तीन सीटें झटक कर और भगवानपुर में दिवंगत बीएसपी विधायक सुरेंद्र राकेश की पत्नी को अपने टिकट से जितवा कर कांग्रेस छत्तीस सीटों के साथ विधानसभा में पूर्ण बहुमत हासिल कर चुकी है। बीजेपी के पास अब अट्ठाइस विधायक शेष हैं जबकि बीएसपी के दो, निर्दलीय तीन और यूकेडी के एक विधायक पीडीएफ के तौर पर कांग्रेस को समर्थन दे रहे हैं। पीडीएफ के छह विधायकों में से चार रावत मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री हैं जबकि कांग्रेस के छत्तीस में से मात्र छह को मंत्रिमंडल में जगह मिल पायी है। कांग्रेस के पास कई अनुभवी नेता होने के बावजूद काबीना मंत्री सुरेंद्र राकेश के निधन से खाली हुए मंत्री पद पर अभी तक किसी को जगह नहीं दी गयी है। मंत्रीपद चाहने वाले कांग्रेस के महत्वाकांक्षी विधायकों को बस यही कसक टीस की तरह चुभ रही है।

राज्य में कांग्रेस के भीतर कई गुट पीडीएफ के साथ लंबे संबंधों को लेकर अपना विरोध जता रहे हैं। इनमें से एक गुट की अगुवाई कर रहे हैं पिछले साल पीसीसी अध्यक्ष पद पर काबिज़ हुए किशोर उपाध्याय जो पीडीएफ के साथ गठबंधन के भविष्य और कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को लेकर बेहद चिंतित नज़र आ रहे हैं। ज़ाहिर है संगठन के मुखिया के तौर पर 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को फिर से सत्ता में लाने की ज़िम्मेदारी में मुख्यमंत्री के साथ साथ उनकी भी अहम हिस्सेदारी होगी। सियासत की लंबी पारी खेल चुके रावत के लिये आने वाले चुनाव भले ही जीवन मरण का प्रश्न न हों लेकिन किशोर उपाध्याय का राजनीतिक भविष्य तो पार्टी की हार जीत से ही तय होना है। गौरतलब है कि पीडीएफ के मौजूदा छह विधायकों में से कांग्रेसी पृष्ठभूमि वाले तीन निर्दलीय पिछले चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवारों को हरा कर ही विधानसभा में पहुंचे थे। लिहाज़ा अगले चुनावों में टिहरी और उत्तरकाशी के कांग्रेसी नेताओं को खासतौर पर बड़ी चुनौती मिल सकती है। पीडीएफ से काबीना मंत्री दिनेश धनै ने टिहरी विधानसभा से कांग्रेस उम्मीदवार और अब पीसीसी अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को पटखनी दी थी। काबीना मंत्री और पीडीएफ के प्रमुख मंत्रीप्रसाद नैथानी देवप्रयाग से जीत कर आये हैं जहां से पूर्व विधायक शूरवीर सिंह सजवाण कई बार चुनाव लड़ चुके हैं। कुछ ऐसा ही हाल उत्तरकाशी से कांग्रेस के पूर्व विधायक केदार सिंह रावत के चुनाव क्षेत्र यमुनोत्री का है जहां से इस बार यूकेडी विधायक प्रीतम सिंह पंवार पीडीएफ कोटे से काबीना मंत्री बनाये गये हैं। ज़ाहिर है ऐसे में हारे हुए कांग्रेस उम्मीदवारों को आने वाले विधानसभा चुनाव में अपने जनाधार के खिसकने का डर सता रहा है।

कांग्रेस कार्यकर्ताओं की उपेक्षा का मुद्दा उठा कर पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत, डोईवाला से विधायक हीरा सिंह बिष्ट और संगठन के मुखिया किशोर उपाध्याय लगातार पीडीएफ को सरकार से बाहर करने का दबाव बनाते रहे हैं लेकिन मुख्यमंत्री हरीश रावत गठबंधन धर्म का वास्ता देकर अपनी सियासी गोटियां बिछाने में जुटे हैं। रावत की मजबूरी ये भी है कि सतपाल महाराज के बीजेपी में चले जाने के बाद मंत्री पद से हटायी जा चुकीं कांग्रेस विधायक और महाराज की पत्नी अमृता रावत और महाराज समर्थक विधायकों के पाला बदलने की आशंकाएं बनी हुई हैं। बहुगुणा गुट के विधायक पहले ही अपमान का घूंट पी कर रावत की ओर से किसी ऐसी सियासी चूक का इंतज़ार कर रहे हैं जिससे पूर्व मुख्यमंत्री की फिर से ताजपोशी का रास्ता खुल सके। ऐसे में पीडीएफ को दरकिनार कर केवल छत्तीस विधायकों के सहारे सरकार चला कर रावत सत्ता से बेदखल होने का जोखिम नहीं उठाना चाहते। माना जा रहा है कि इन्हीं आशंकाओं की डरावनी तस्वीर दिखा कर रावत कांग्रेस आलाकमान को अपने पाले में किये हुए हैं। देश भर में कांग्रेस के सिमटते जनाधार के बीच रावत पार्टी संगठन की कीमत पर अपना मुख्यमंत्री पद बरकरार रखना चाहते हैं और इसके लिये पीडीएफ का साथ उन्हें मुफीद नज़र आ रहा है। मजबूरी का ये याराना इतना पक्का है कि हरीश रावत पीडीएफ कोटे को कम करने की मांग को खुलेआम अपनी सरकार के खिलाफ़ साजिश बताने से भी नहीं चूके। विधानसभा में कांग्रेस के भीतर ज़बर्दस्त गुटबाजी और सीएम की कुर्सी को लेकर जारी खींचतान के बीच मंझे हुए राजनीतिज्ञ हरीश रावत पीडीएफ के तिनके के सहारे अपनी सियासी वैतरणी पार करने की फिराक में हैं और उनकी यही जिद राज्य के कई दिग्गज कांग्रेसियों के मन में अपने चुनावी भविष्य को लेकर नित नयी आशंकाओं को जन्म दे रही है। आशंकाओं का ये तूफान कांग्रेस के जहाज को आने वाले चुनावों में सत्ता के किनारे तक पहुंचा पाएगा ऐसा फिलहाल तो संभव नहीं दिखता।



राजसत्ता एक्सप्रेस में 22 सितंबर को प्रकाशित

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