भूपेश पंत
पहाड़ों के आसमान पर इस साल फिर काले काले बादल घिर आए हैं. इसके साथ ही पहाड़ों के बाशिंदों के चेहरों पर भी आपदा की आशंका का खौफ पसर गया है. दुर्गम पहाड़ी रास्तों में ठूंस ठूंस कर भरे गए बसों के मुसाफिर मंजिल तक सुरक्षित पहुंचने की जद्दोजहद में लगातार जाप कर रहे हैं. मौसम के खराब सिस्टम ने पहाड़ की लोक संस्कृति को बचाने की राह में अड़ंगा डाल दिया है. उधर इन सबके बीच पहाड़ों के आम रागदरबारी गाते हुए अस्थाई राजधानी की ओर पलायन कर गए हैं. क्यों नहीं, आखिर दिग्गजों के दरबार से बुलावा जो आया है. इस दरबार में आम की बेहद खास जगह है. यहां बड़े-बड़े खास लोग जमा होकर आम चूसेंगे. आखिर आम की नियति भी यही है. जो आम पहाड़ में बच गए हैं वह बाकी जिंदगी अपनी किस्मत को कोसते हुए निकाल देंगे. यह तो पहाड़ से नीचे उतरे इन आमों का सौभाग्य है कि सियासी हाथों के चंगुल में फंस कर उनकी मौत एक खिलखिलाता समारोह बन जाएगी. इन आमों के बीच में बैठकर दावत उड़ाने वाले लोग खुद के खास होने का एहसास भी पूरे लुत्फ के साथ कर पाएंगे.
फलों के राजा होने के घमंड में फूले यह आम जब लोकतंत्र के असली राजाओं के दरबार में पेश होंगे तो उनसे यह नहीं पूछा जाएगा कि बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए. बस हाथ में लेकर चूस लिया जाएगा और थोड़ी ही देर में यह आम गुठली में तब्दील होकर मुआवजे के इंतजार में किसी कोने में पड़े होंगे. जितनी ज्यादा गुठलियां उतना ही बड़ा जश्न. अपने अपने समय के हाकिम यह बखूबी जानते हैं कि सियासत में आम के आम और गुठलियों के दाम की कितनी अहमियत है. सियासत में यह भी जरूरी है कि जब राजधानी में आम की दावत उड़ाई जा रही हो तो पहाड़ की जनता अपनी समस्याओं के पेड़ गिनने में व्यस्त रहे. दरअसल यही लोकतंत्र का असली पर्व है जहां राजनीति के दोनों छोर मिल जुलकर आम का भोग करने के लिए एक और पार्टी का गठन करते हैं. मूर्खो इसे ही सियासी जुबान में आम पार्टी कहते हैं.
Posted by: News Trust of India 09/07/2018
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