माँ... इस शब्द में पूरी सृष्टि समाई है...
माँ हमेशा माँ रहती है
उसकी ममता
अपने पराये का भेद कहाँ करती है
वो तो सबके लिए समान रूप से बरसती है...
कसूर तो उस बंजर ज़मीन का है
जो चार बूंदों के लिए तरसती है
माँ एक शाश्वत सत्य है, समर्पण है
जो कभी अधिकार नहीं जताती है
रिश्तों के स्वार्थी संसार में
शायद इसीलिए
वो घर के एक कोने में
मौन खड़ी नज़र आती है....
माँ हमेशा माँ रहती है
उसकी ममता
अपने पराये का भेद कहाँ करती है
वो तो सबके लिए समान रूप से बरसती है...
कसूर तो उस बंजर ज़मीन का है
जो चार बूंदों के लिए तरसती है
माँ एक शाश्वत सत्य है, समर्पण है
जो कभी अधिकार नहीं जताती है
रिश्तों के स्वार्थी संसार में
शायद इसीलिए
वो घर के एक कोने में
मौन खड़ी नज़र आती है....
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