रविवार, 30 दिसंबर 2018

बुतों का समाज!

तुमने
एक बुत देखा
जो आकाश तक बड़ा था
न जाने कितने
बेशकीमती रत्नों से जड़ा था
हालाँकि
जिसका वो बुत था
उसका कद
मोहताज नहीं था इस बुत का
और
सरकारी अलंकारों का
लेकिन
जाने क्यों हुक्मरान अड़ा था
उस दिन मैंने देखा
पूरे देश में
आपराधिक खामोशी
के साथ
बुतों का समाज खड़ा था
जिनके कंधों पर
इस सबसे ऊँचे बुत के
खर्च का
बोझ पड़ा था।

- भूपेश पंत

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