कट रहा इंसान लहू सड़कों पर बह चला है
इस कदर ये किसने इंसानियत को छला है।
लाशों का कारवां, केवल यही रह जाएगा
न हम होंगे न तुम, ये विश्व धरा रह जाएगा।
देशों की सीमाओं में, मानवता को न बांधो
हथियारों के गर्जन से स्वार्थ अपने न साधो।
युद्ध के अंधियारे में हाथ न कुछ भी आएगा
प्रेम की इक बोली से जग सारा मिल जाएगा।
स्वार्थ की शतरंज में इंसां को मोहरा न बनाओ
घर के चिराग़ो, न अपने घर में आग लगाओ।
(खाड़ी युद्ध के समय लिखी एक कविता)
-भूपेश पंत
इस कदर ये किसने इंसानियत को छला है।
लाशों का कारवां, केवल यही रह जाएगा
न हम होंगे न तुम, ये विश्व धरा रह जाएगा।
देशों की सीमाओं में, मानवता को न बांधो
हथियारों के गर्जन से स्वार्थ अपने न साधो।
युद्ध के अंधियारे में हाथ न कुछ भी आएगा
प्रेम की इक बोली से जग सारा मिल जाएगा।
स्वार्थ की शतरंज में इंसां को मोहरा न बनाओ
घर के चिराग़ो, न अपने घर में आग लगाओ।
(खाड़ी युद्ध के समय लिखी एक कविता)
-भूपेश पंत
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