शनिवार, 29 दिसंबर 2018

लोग देखते हैं..

पेट की आग पे ख़ुदगर्जी की रोटी सेंकते हैं
बहलाने के लिए कुछ टुकड़े रोज फेंकते हैं।
लुटी अस्मतों का दर्द वो जानेंगे भी तो कैसे
इनसे ही हैं जो वहशियत का राग छेड़ते हैं।
तुम कहां उलझ गये तकनीक के जमाने में
जनाब मशीनों से नहीं दिमाग़ों से खेलते हैं।
भूख से तड़प तड़प कर मरते हैं जब बच्चे
हुक्मरान तब कैमरों के सामने दंड पेलते हैं।
रोग, ग़रीबी, लाचारी चुनावी बातें हैं तुम्हारी
कुछ उनसे पूछो जो ये मसले रोज झेलते हैं।
नाइत्तफ़ाकी को दबा कर होगा क्या हासिल
अरे जो ये नहीं देखते वो कुछ और देखते हैं।
ठान लिया बनना जबसे सियासत के काबिल
हम खुद से ही ग़िरेबान को अपना उधेड़ते हैं।
माफ़ भी कर दे तू अब उनकी नादानियों को
अपनी ज़ुबान से खुद अपना राज़ खोलते हैं।
न खत्म होने देंगे वह हमारे दिलों की गिरह
नफ़रत के तराज़ू में रख जो इंसान तोलते हैं।
बहक न जाना तुम उनकी आकाशवाणी से
इन्सां भी नहीं खुद को जो भगवान बोलते हैं।

- भूपेश पंत

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