शनिवार, 29 दिसंबर 2018

चौकीदार-3

(लघुकथा)

कम्बख्त आज फिर सुबह सुबह टकरा गया। मूड ठीक लग रहा था। हाथ माथे तक ले जा के बोला, साहब मेरी किसी बात का बुरा मत मानना लेकिन क्या करूं कभी कभी दिमाग घूम जाता है। वो क्या है न साहब ये देश की चौकीदारी के चक्कर में हमारा पेशा खामखां बदनाम हो रहा है। हमारे साथ के भी कई चौकीदार चोरों की मदद करते हैं और मोटा माल कमाते हैं। मैं भले ही उन्हें पसंद नहीं करता लेकिन उनमें एक खास बात ये है कि चोरों को चुनने में वो कोई भेदभाव नहीं करते। ऐसा नहीं करते कि ये चोर मेरे गाँव घर का है तो उसी के लिये काम करेंगे किसी और के लिये नहीं। जात बिरादरी नहीं देखते वो। मैंने महसूस किया कि अपने साथी चौकीदारों और चोरों की जुगलबंदी की इस खास बात को वो बड़े ही गर्व से बता रहा था। पता नहीं क्यों?

- भूपेश पंत

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