बुधवार, 2 सितंबर 2009

सपने-2..... एक लघु कविता

मुट्ठी भर रेत की तरह 

धीरे-धीरे ग़ुम हो जाने के बावजूद

वो नहीं छोड़ता सपने देखना

क्योंकि

सत्ताधीशों की मंडी में

सिर्फ़ सपने ही 

बिना क़ीमत बिकते हैं।

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