मुट्ठी भर रेत की तरह
धीरे-धीरे ग़ुम हो जाने के बावजूद
वो नहीं छोड़ता सपने देखना
क्योंकि
सत्ताधीशों की मंडी में
सिर्फ़ सपने ही
बिना क़ीमत बिकते हैं।
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सपने ही तो बेंचते है..सत्ता के सौदागर..अच्छी रचना..बधाई
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