हिमाचल, उत्तराखंड और राजस्थान को अपवाद मानें तो
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 45 सदस्यीय मंत्रिमंडल में लगभग हर क्षेत्र को
तवज्जो देने की कोशिश की है। खास बात ये है कि मोदी पर अपने सहयोगियों के चुनाव
में न तो संघ और संतों का दबाव नजर आता है और न ही सहयोगी दलों का। पूर्ण बहुमत से
सत्ता में आयी बीजेपी नीत सरकार के प्रधानमंत्री ने मंत्रियों के चुनाव में अपनी
पसंद को ही आधार बनाया है। मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की मुहिम चला रहे योगगुरु
बाबा रामदेव की शपथ ग्रहण समारोह से दूरी को मंत्रिमंडल गठन में उनकी ना चल पाने
की नाराजगी से ही जोड़ कर देखा जा रहा है।
मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में उन राज्यों को तरजीह दी है जहां जल्द ही
विधानसभा चुनाव होने हैं। हालंकि उनके मंत्रिमंडल के कम आकार का खामियाजा बीजेपी
को भारी जीत दिलाने वाले राजस्थान, उत्तराखंड और हिमाचल के सांसदों को भुगतना पड़ा
है। इसे लेकर जहां उत्तराखंड और हिमाचल के बीजेपी नेताओं को सवालों से दोचार होना
पड़ रहा है वहीं राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया की नाराजगी की
खबरें भी सत्ता के गलियारों में उड़ रही हैं। नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल की औसत उम्र कम रखने
के फैसले ने भी बीजेपी के कई वरिष्ठों की राह रोकी है। प्रधानमंत्री की टीम में कई
ऐसे युवा चेहरे शामिल हैं जो पहली बार लोकसभा या राज्यसभा में आये हैं। उत्तर
प्रदेश से सबसे ज्यादा सीटें मिलने के कारण मंत्रिमंडल में राज्य को उसी अनुपात
में अधिक भागीदारी दी गयी है। पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू कश्मीर को प्रतिनिधित्व
देकर मोदी ने संतुलन साधने की कोशिश की है। हालांकि इस सब के बीच कुछ जानकार केंद्रीय
मंत्रिमंडल में दागियों को शामिल न करने के उनके रुख में आयी नरमी से हैरान भी हैं।
कुल मिला कर मोदी ने शपथ ग्रहण समारोह में विरोध
के बावजूद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और श्रीलंका के राष्ट्रपति
महिंद्रा राजपक्षे को न्यौत कर और फिर बिना दबाव के मंत्रिमंडल का गठन कर अपनी
कार्यशैली में लचीलेपन और कठोरता का परिचय एक साथ दिया है। नवाज़ शरीफ के साथ उनकी
मुलाकात को जहां एक ओर अल्पसंख्यकों के मन में उनके प्रति आशंकाओं को खारिज करने
की कोशिश माना जा रहा है, वहीं इस बात का सुबूत भी कि प्रधानमंत्री विदेश नीति के
मसले पर दुनिया को एक सकारात्मक संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं। ये बात और है कि
बीजेपी और उसकी सहयोगी शिवसेना हमेशा ही पूर्ववर्ती यूपीए सरकार पर आतंकी हमलों के
बीच पाकिस्तान से बातचीत करने के औचित्य पर सवाल उठाती रही है। जानकारों के
मुताबिक हो सकता है कि सीमा पार आतंकवाद की कसौटी पर विदेश नीति को परखने से पहले
नरेंद्र मोदी वाजपेयी सरकार की तर्ज़ पर पड़ोसी देशों से मजबूत कूटनीतिक संबंध
बनाने की एक पहल करना चाहते हों। साफ कहें तो फिलहाल मोदी घरेलू मामलों में कठोर
और विदेशी मामलों में लचीला रुख अपनाते नज़र आ रहे हैं। देश में तमिल विरोध को
तवज्जो न देकर श्रीलंकाई राष्ट्रपति को समारोह में बुलाने का उनका फैसला भी इसकी
एक बानगी है।
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