शनिवार, 31 मई 2014

सुन रहा है ना तू !

(साप्ताहिक देवभूमि संवाद में 11 मई, 2014 को प्रकाशित व्यंग्य)


जब से बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि उन्हें ईश्वर ने चुना है, तभी से बीजेपी के कई वरिष्ठ नेताओं के माथे पर बल पड़े हुए हैं। वो तो अब तक यही समझ रहे थे कि नरेंद्र मोदी को उन्होंने चुना है, तो फिर ये ईश्वर बीच में कहां से आ गया। सहयोगी दल भी इस बात को लेकर भौंचक हैं कि ईश्वर तो एनडीए के एजेंडे में था ही नहीं फिर ये मोदी की ज़ुबान पर और मंच के पोस्टरों में अचानक क्यों दिखने लगा। आडवाणी तो अब मोदी और राजनाथ सिंह से अपनी नाराजगी भुला कर ईश्वर को इस बात पर कोस रहे हैं कि उसने उन्हें क्यों नहीं चुना। जनता इस बात पर हैरान है कि ईश्वर ने क्या गुण देख कर नरेंद्र मोदी को चुना जबकि विपक्षी दल ईश्वर को उसके इस चुनाव के लिये निर्वाचन आयोग तक घसीट कर ले जाने पर आमादा हैं। सवाल ये भी उठाये जा रहे हैं कि ईश्वर ने ये चुनाव सभी लोकतांत्रिक परंपराओं को अपनाते हुए किया है या फिर संघ की तरह सबको दरकिनार कर मोदी के नाम पर मुहर लगवा दी? और ये चुनाव आखिर निर्वाचन आयोग की बगैर रज़ामंदी के हुए तो कैसे?
कुछ जानकार मान रहे हैं कि देश में जो बदलाव की आंधी चल रही है उस पर सवार होकर मोदी ने बाकी नेताओं की आंखों में धूल झोंक दी और मौका पा कर अकेले ही ईश्वर के सामने जा पहुंचे। विरोधियों की गैरमौजूदगी और विकास का राग अलाप कर मोदी ने ईश्वर का आशीर्वाद कुछ उसी तरह से लिया जिस तरह से बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने लखनऊ में बुजुर्ग कांग्रेसी नेता एनडी तिवारी के घर पर जाकर लिया था। कुछ विरोधियों का तो यहां तक आरोप है कि मोदी ने ईश्वर से कहा कि पीएम बनने पर वो उनका सरदार पटेल से भी बड़ा बुत बनवाएंगे। हालांकि कुछ जानकारों का मानना है कि ईश्वर ने बीजेपी के ताबड़तोड़ प्रचार से प्रभावित होकर ही उन्हें चुना है। बीजेपी के नारे ने मोदी और सरकार को जिस तरह से एक दूसरे का पर्यायवाची बना दिया है उससे रामगोपाल वर्मा भले ही आहत महसूस करें लेकिन लगता है कि ईश्वर को इससे मोदी के सर्वव्यापी होने का भ्रम हो गया है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कुछ ऐसा ही आरोप मोदी पर लगाया भी है कि उन्हें खुद के पीएम होने का मुगालता हो गया है। मोदी के विरोधी ये मानने को तैयार नहीं कि ईश्वर कभी मोदी के फेर में आ सकता है। वो इसे मोदी का मिथ्या प्रचार और इसके पीछे संघ का हाथ देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि मोदी ने ये जुमला उछाल कर एक तीर से दो शिकार करने का दांव खेला है। पहला तो जनता को ये विश्वास दिलाना कि मोदी ईश्वर के प्रतिनिधि हैं तो दूसरी ओर अपनी पार्टी के कुछ दिग्गज नेताओं का ये भ्रम तोड़ना कि मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक उन लोगों ने ही पहुंचाया है।
कुछ लोग इस बयान का तकनीकी रूप से पोस्टमार्टम भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि क्या ईश्वर का नाम देश के किसी मतदाता रजिस्टर में दर्ज़ है या फिर ये पूरा चुनाव ही अवैध रूप से बिना उसे वोटर बनाए किया गया है। विरोधियों की इस सियासी चाल को भांप कर कुछ बीजेपी नेता तो ईश्वर नाम के मतदाता की तलाश में भी जुट गये हैं। अब ईश्वर नाम का कोई मतदाता उन्हें मिलता है या फिर मतदाता ही ईश्वर बन कर मोदी का बेड़ा पार लगाते हैं ये तो सोलह मई को मतदान के बाद ही पता चल पाएगा। लेकिन लगता है कि मोदी खुद को ईश्वर का प्रतिरूप मान बैठे हैं। मतदाताओं से उनकी ये अपील कि पार्टी के प्रत्याशी को दिया गया एक-एक वोट सीधा मोदी को ही मिलेगा, ये जताने के लिये काफी है कि वो सर्वव्यापी हैं। लोग वोट या तो ईश्वर के नाम पर या फिर मोदी के नाम पर दें, भले ही उनके क्षेत्र का बीजेपी प्रत्याशी कितना ही दागी, सांप्रदायिक या फिर भ्रष्ट क्यों न हो।
खबर ये भी है कि ज्यादातर चाय बेचने वालों को इस चुनाव पर चाय का असर दिखायी दे रहा है। उन्हें इस बात का रंज है कि दिन-रात चाय बेचकर वो भी कई सालों से अपने घर की रोजी-रोटी चला रहे हैं, लेकिन उन पर अब तक ईश्वर की नज़र क्यों नहीं पड़ी। वो चाहते हैं कि एक दिन वो भी मोदी के नक्शे कदम पर चल कर केंद्र की सत्ता के दम पर सियासी चाय उबालें, लेकिन ईश्वर तक पहुंचें तो कैसे। उन लोगों को तो और बड़ा झटका लगा है जो अपने किन्हीं निजी कारणों से हाल-फिलहाल चाय बेचने का धंधा छोड़ बैठे थे। क्या पता ईश्वर उन्हें ही चुन लेता। बहरहाल मोदीजी सीना तान कर अपने भाषणों में कह रहे हैं कि पूरा देश इस वक्त सिर्फ़ मोदी-मोदी पुकार रहा है। हे ईश्वर, सुन रहा है ना तू?




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